आज पत्रकारों की नियत , नैतिकता , प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में है I कहा जाने लगा है कि पत्रकार पत्रकारिता छोड़ कर सारे काम कर रहा है। उन पर जनसरोकारों की उपेक्षा का आरोप आम बात हो गयी है I ये आरोप आम जन ही नहीं खुद पत्रकारिता जगत से भी लग रहें है I लेकिन ऐसा करने से पहले हम यह भूल जाते हैं कि पत्रकारिता शून्य में उपजने वाली कोई चीज नहीं है I समाज में तीव्र गति से हो रहे आर्थिक , सांस्कृतिक और सामाजिक बदलावों से उसे भी प्रभावित होना होता है i वर्तमान बाजारवादी व्यवस्था में यदि समाज की संवेदनाएं मर रहीं हैं तो पत्रकारिता कैसे संवेदनशील बनी रह सकती है । आम आदमी की पीड़ा में भी उसे चटपटी खबर चाहिए I वह चाहते हुए भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकती I समाज के बदलते स्वरुप से उसे प्रभावित होना ही पड़ता है I यहाँ यह साफ कर दूँ ,मेरा मकसद पथभ्रष्ट और कर्तव्यविमुख पत्रकारिता की वकालत करना नहीं है सिर्फ परिस्थितियों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन भर है ।
आज पत्रकारों के लिए धरातल पर काम करना अत्यंत मुश्किल है । जन सरोकारों की पत्रकारिता करिए तो वो कही छपेगी नहीं , कहीं दिखेगी नहीं , सिस्टम के कोपभाजन का शिकार बनिए वो अलग I जो इस तरह की पत्रकारिता कर रहे है उन्हें धमकियां मिलती हैं , उन पर दर्जनों मुकदमे लाद दिए जाते है , हत्या तक हो जाती है । जिन मीडिया हाउस में सरकार विरोधी ख़बरें प्रकाशित या प्रसारित होती हैं , उनके खिलाफ सरकार किसी भी कार्रवाई से हिचकती नहीं है , विज्ञापन रोक लेना तो बहुत मामूली बात है I इस डर से ज्यादातर मीडिया हाउस खुद ही सरकारी भोपू बन गए हैं I अधिकांश मीडिया हाउस सरकार से जुड़े नज़र आते हैं, जिनकी दृष्टि मे समाज को नापने – परखने का पैमाना दूसरा होता है । पूंजीपतियों द्वारा मीडिया का संचालन प्रजातांत्रिक समाज के विकास मे एक बड़ा अवरोध है। उनकी आर्थिक शक्ति अनेक स्वतंत्र पक्षों का गला घोट देती है। उनका उद्देश्य राष्ट्र और समाज की सेवा नहीं बल्कि खुद के आर्थिक साम्राज्य का सरंक्षण है, इसलिए वे चाह कर भी सत्य का समर्थन और असत्य और अन्याय का विरोध नहीं कर सकते।
वर्तमान पत्रकारिता का एक पहलू यह भी है…. ” बाजार की अनदेखी जब पत्रकार करता है तो वह भूखों मरता है और उसके अनुसार चलता है तो उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता और नैतिकता पर सवाल उठते हैं ” , जो पत्रकारिता लोकतंत्र का आधार थी, आज लोक और तंत्र के बीच खड़ी पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों को भूल स्वयं सवालों के घेरे मे है। आज़ादी के पूर्व की भारतीय पत्रकारिता को अपनी जिस ऊँचाई को हासिल करने मे डेढ़ सौ साल लगे, उसे हम ने आज़ादी के बाद चंद वर्षों मे गंवा दिया है।
इसके लिए सिर्फ पत्रकार को दोषी ठहराना उचित नही। इस पतन के कई पहलू हैं। यदि हम लोकतंत्र को बचाये रखना चाहते हैं, और पत्रकारिता मे सामाजिक प्रतिबद्धता और शुचिता को पुनर्स्थापित करना चाहते है तो हमे इसके लिए जिम्मेदार सभी पक्षों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कर आवश्यक कदम उठाने होंगे।
सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता का सशक्त उपयोग करने वाले महात्मा गांधी ने कहा था, ” समाचारों मे अभिव्यक्त विचार जबरदस्त शक्ति की तरह होते है , जो एक सुसंगठित समाज का निर्माण कर सकते हैं, पर जैसे निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है, फसलें नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह नाश करता है… मानवता का, करुणा का, इस पर भीतरी अंकुश होना चाहिए। अर्थात निरंकुश, असत्य, अविवेक पूर्ण भावनाओं का दूषित प्रवाह जब अपनी अभिव्यक्ति की मर्यादा के बांध तोड़ देता है तो इसका दंड पूरे समाज को भोगना पड़ता है। ” कलम के सिपाहियों को भी यह याद रखना चाहिए कि समाज से विमुख रह कर सिर्फ सत्ता और बाजारवाद के बल पर पत्रकारिता का जीवन बहुत लंबा नही हो सकता। गांधी का यह कथन अपने जेहन मे रख कर अपनी भूमिका का निर्वहन करना उन्हे अपनी खोयी प्रतिष्ठा हासिल करने मे मदद करेगा।