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*पत्रकारजी के नाम संजीव शुक्ल की पाती*

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       ~ सुधा सिंह 

    हे पत्रकारिता के दिपदिपाते दीपक, हे चाटुकारिता के शिखर, कल जो तुम्हारे साथ हुआ, जो तुम्हारी सरेआम उतारी गयी, उसे देखकर हम बहुतै दुखी हैं। नहीं होना चहिये था। अकेले में अगर कोई किसी को मुर्गा भी बना लेता तो भी इतना नहीं खलता।

       कई बार तो धंधेबाज लोग इतने स्मार्ट होते हैं कि सामने वाले की सदिच्छा भाँप पहले ही मुर्गा बन जाते हैं और मालिक को अपने इस समर्पण-प्रतिबद्धता से भरे अप्रत्याशित कदम से भौचक्का कर देते हैं। पर आप न कर सके ऐसा।

    मस्तिष्क में कहीं पड़े हुए, मरे हुए संस्कार जीवित हो उठे होंगे। बहुत गलत हुआ उस दिन आपके साथ।

माना कि लोगों की निगाह में आप बहुत पहले ही गिर चुके थे, पर फिर भी सबके सामने और ज्यादा नहीं गिराना चाहिए था उन्हें। कल कुछ ज़्यादा ही दुत्कारीकरण हो गया। मेहमान मेहमान न रह सका, वो मालिक बन गया।

      हालांकि आपने अपनी तरफ से बहुत ही मुलायमियत से और बहुत हल्का सा सवाल पूछा था। नहीं तो पूछने को तो आप उनसे उनके मंत्रालय से संबंधित घोटालों पर भी पूछ सकते थे, पर आपने लिहाज किया। आपने तो सिर्फ़ उनसे यही पूछा था कि टमाटर इतने महंगे क्यों हैं; ग्राहकों की जेब पर इतने लाल क्यों हैं? 

ख़ैर……

    लेकिन फिर भी हम यह कहेंगे कि आपके सवाल आम काटकर खाएंगे या चूसकर जैसे रसीले नहीं थे। ये सवाल उनकी तुलना में तो सूखे ही कहे जाएंगे।

जब आपके सामने पिछले वाले की कोमल पर अक्षय पत्रकारिता की बेहतर नजीर सामने थी, तब भी आपने उससे कुछ नहीं सीखा। आपने अपना ट्रैक बदला ही क्यों, जबकि इस ट्रैक पर आपका बीता रिपोर्ट कार्ड ठीकठाक था। नए लौंडों के लिए आप रोलमॉडल जैसे थे। नई आजादी (लीज वाली से हटकर) में सत्ता की जगह विपक्ष से सवाल पूछे जाने की परंपरा डालने वाले कुछ चुनिंदा लोगों में से आप एक थे।

     आप हमेशा विपक्ष से ही सवाल किए और ईनाम पाए। हाँ उधर जरूर एक हादसा हो गया था, जब आप न्यूज रूम से घर जाने के बजाय, सीधे जेल चले गए थे। हम जानते हैं कि यह सब ग्रहदशा का चक्कर था और कुछ नहीं। पर उसके बाद तो आपकी पत्रकारिता में जबरदस्त निखार आया। आप बात-बात पर विपक्ष पर पिल पड़ते थे।

      जिस क्रांतिकारी तेवर के साथ आप सरकार के कामों का हिसाब विपक्ष से मांगने लगे, पूरा विपक्ष सन्नाटे में था। लोकतंत्र में दहशत फैल गयी थी। आपके समर्थक श्रोता आपकी जयजयकार करते थे।

पर फिर हम यह कहेंगे कि उस दिन आपने अपना ट्रैक क्यों बदला? क्या जरूरत थी, बैलेंस दिखने की, जब आप किसी एंगल से ऐसे नहीं हैं। यह हया! ये शर्म तो कभी आपको छू तक न सकी थी, फिर पता नहीं आप कैसे संक्रमित हो गए। हम दावे के साथ कह सकते हैं कि आपके चेहरे पर तो वही …. ज्यादा फबती थी। जरा सी सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घट गयी।

     मंत्री जी ने आपके सवालों को दिल पर ले लिया। और सबके सामने आपके जेल के संस्मरण सुनाने का आग्रह करने लगे। अरे भाई आप स्वतंत्रता संग्राम या लोकतंत्र की रक्षा के पुनीत कार्य में तो जेल गए नहीं थे, जो सबके सामने अपनी वीरगाथा सुनाने लगते।

     हे पत्रकारिता के अधीर प्रौढ़ !

   आपके साथ अन्याय हुआ। हम तो कहते हैं कि अगर आप बदले थे तो बदले ही रहते। जो होता देखा जाता। अब तो एक गलत परंपरा और पड़ गयी।

      अब तो जिससे भी आप सवाल पूछेंगे, वो ही आपकी जेलयात्रा पर आपसे कुछ सुनाने का आग्रह करने लगेगा। लेकिन ख़ैर अब आप घबड़ाइये नहीं, हिम्मत से काम लीजिये। इतनी जल्दी झेपेंगे तो अपने अंदर की बची हुई बाकी की पत्रकारिता का अंतिम संस्कार कैसे कर पाएंगे!

आपने तो कई बार नेहरू और गांधी के जेलजीवन पर प्रोग्राम किये हैं। आपको तो सब पता है। आपने बताया था कि किस तरह नेहरू और गांधी ऐशोआराम से जेल में रहते थे। वे जब घर में रहते-रहते ऊब जाते थे, तो जेल चले जाते थे, वगैरह-वगैरह।

      सो अपने लिए भी कुछ अच्छी सी मनमुताबिक कहानी गढ़ लीजिये। आपने तो खोजी पत्रकारिता के कई आयाम गढ़े हैं।

     हाँ, आगे से मेहमान की प्रकृति देखकर ही सवाल पूछा करिये,ये व्यक्तिगत सलाह है। जब आपको पता था, कि मंत्री जी किस तरह एक पत्रकार द्वारा सवाल पूछने को लेकर उसके सवाल को सीधे क्षेत्र और जनता के अपमान से जोड़ दिए थे और चेतावनी दी थी कि इस धृष्टता के लिए आपके मालिक से बात की जाएगी। आप तब भी ख्याल नहीं किये।

      आप बैलेंस बनाने के चक्कर में डिसबैलेंस हो गए। ख़ैर आगे से खयाल रखियेगा। हमारी शुभकामनाएं हमेशा से आपके साथ चस्पा रहेंगी। नौकरी पहले है बाकी सब बाद में।

आपका शुभेच्छु, आपका हमदर्द।

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