अग्नि आलोक

प्रजातंत्र की सही संरक्षक न्यायपालिका ही….!

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ओमप्रकाश मेहता

सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने आज पुनः यह सिद्ध कर दिया है कि प्रजातंत्र के चार अंगों- विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और खबर पालिका में न्याय पालिका ही प्रजातंत्र की सही संरक्षक है, कथित अवैध निर्माणों के नाम पर लोगों के घरों को ‘जमींदोज’ कर देने की शासकीय मनमानी पूर्ण प्रक्रिया को सर्वोच्च न्यायालय ने एकदम गैर कानूनी व गलत माना है तथा शासन-प्रशासन को सख्त निर्देश दिए है कि बिना ठोस गैरकानूनी सबूतों के ऐसी कार्यवाही कतई नही की जानी चाहिए। इस तरह आज फिर एक बार यह स्पष्ट हो गया है कि प्रजातंत्र की सही संरक्षक न्यायपालिका ही शेष बची है, प्रजातंत्र के शेष अंग विधायिका, कार्यपालिका और खबर पालिका अब अपने कर्तव्यों, मंसूबों, अधिकारों व कार्यों के प्रति ईमानदार कतई नही रहे है, इसीलिए आज आम भारतीय का विश्वास सिर्फ और सिर्फ न्यायपालिका पर ही केन्द्रित हो गया है।


प्रजातंत्र के अंगों में प्रमुख तौर पर विधायिका की भूमिका अहम् मानी जाती रही है, किंतु अब इस अंग में स्वार्थ की राजनीति इतनी अधिक हावी हो गई है कि इसने आम जनप्रतिनिधि को जनसेवा के मार्ग से बिल्कुल अलग कर दिया है, आज तो इस अंग में यह धारणा समाहित हो गई है कि किसी भी तरह के कानूनी या गैर कानूनी हथकण्डों का सहारा लेकर एक बार सांसद या विधायक बन जाओं और फिर अपने आपको अगली सात पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रखने की क्षमता हासिल कर लो, और अब यही हो रहा है, एक बार येन-केन- प्रकारेण सांसद, विधायक चूने जाने के बाद फिर राजनेता ‘जनसेवा’ भूलकर ‘स्वयंसेवा’ में संलग्न हो जाते है और पांच साल में सत्ता की लूट के सहारे अपने भविष्य को सपरिवार ‘स्वर्णिम’ बना लेते है और उन्हें इस स्थान तक पहुंचाने वालों को पूरी तरह बिसरा देते है, फिर इनकी याद अगले चुनाव अर्थात् पांच साल बाद ही आती है।
यह तो हुआ प्रजातंत्र के सबसे अहम् अंग विधायिका का हाल, अब यदि दूसरे अंग कार्यपालिका की बात करें तो मेरी दृष्टि में उसका नाम कार्यपालिका से बदलकर ‘जी-हुजूरी पालिका’ रख देना चाहिए, क्योंकि इस अंग से जुड़ सरकारी अमला अपने जनसेवा के मूल दायित्वों को त्याग कर सिर्फ और सिर्फ विधायिका के सदस्यों (राजनेताओं) व उच्च अधिकारियों की जी-हुजूरी में ही लगा रहता है, उसे न अपने मूल कर्तव्यों या दायित्वों की परवाह है न स्वयं की प्रतिष्ठा या इज्जत की। उसे सिर्फ अपने आकाओं को पटाकर रखकर अपने स्वार्थ सिद्ध करना है, इन दो अंगों के बाद तीसरा अंग न्यायपालिका है, जो सही अर्थों में अपने कर्तव्यों, दायित्वों व कानूनों का पालन कर रही है, इसीलिए अब यही अंग भरोसे के काबिल रह गया है और यह अंग अभी तक कई बार यह सिद्ध भी कर चुका है कि वह अपने दायित्वों व कर्तव्यों की पूर्ति पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कर रहा है।
अब जहां तक प्रजातंत्र के चौथे अघोषित अंग खबर पालिका की बात करें तो वह जमाना कभी का गुजर गया, जब अधिकारपूर्ण लिखे गए शब्दों का कोई वजन होता था और लिखे हुए शब्द पूरी कायनात को बदलकर रख देने का माद्दा रखते थे, अब तो प्रजातंत्र का यह अघोषित अंग भी सिर्फ और सिर्फ स्वार्थ सिद्धी और ‘ब्लेकमेल’ का माध्यम बनकर रह गया है, अब लोक सिर्फ अपना रसूख और आय का माध्यम बनाए रखने के लिए अपना अखबार निकालते है, इसलिए इस अंग पर से जनविश्वास पूरी तरह खत्म हो चुका है और यह जन नेताओं की ‘कुठपुतली’ बनकर रह गया है।
इस प्रकार कुल मिलाकर अब भारत में प्रजातंत्र का एकमात्र आधार स्तंभ न्यायपालिका ही रह गया है और इसकी न्यायिक व्यवस्था ने भारतीय प्रजातंत्र पर अपनी छाप छोड़ी है और आज सर्वोच्च न्यायालय ने फिर एक बार सिद्ध करके भी दिखा दिया है।

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