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जस्टिस सुधांशु धूलिया, सुप्रीम कोर्ट और हिजाब

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विश्लेषण : संजय पराते

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सुधांशु धूलिया ने कर्नाटक हिजाब विवाद में गुरुवार को अपने फैसले में कहा है कि मुस्लिम लड़की के हिजाब पहनने का अधिकार स्कूल के गेट पर खत्म नहीं होता, क्योंकि उसे कक्षा के अंदर भी निजता और गरिमा का अधिकार है। (मामला : ऐशत शिफा बनाम कर्नाटक राज्य)

अपने फैसले में उन्होंने कहा है — “एक मुस्लिम बच्ची को अपने घर में या अपने घर के बाहर हिजाब पहनने का अधिकार है और यह अधिकार उसके स्कूल के गेट पर खत्म नहीं होता है। स्कूल के गेट के अंदर, अपनी कक्षा में होने पर भी, बच्चा अपनी गरिमा और अपनी निजता को बनाए रखता है।”

विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और भाषाओं के समायोजन का आह्वान करते हुए अपने फैसले में न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा है कि एक लड़की यदि हिजाब पहनने की अनुमति मांगती है, तो यह लोकतंत्र में बहुत बड़ी मांग नहीं है। अपने फैसले में उन्होंने लिखा है — “हमारे स्कूल, विशेष रूप से हमारे प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज आदर्श संस्थान हैं, जहां हमारे बच्चे, जो अभी अपरिपक्व उम्र में हैं और इस देश की समृद्ध विविधता के प्रति जागरुक हो रहे हैं, उन्हें उचित परामर्श और मार्गदर्शन की आवश्यकता है, ताकि वे उन लोगों के प्रति सहिष्णुता और समायोजन के हमारे संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करें, जो एक अलग भाषा बोलते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं, या यहां तक ​​​​कि अलग-अलग कपड़े या परिधान पहनते हैं! यह समय विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति संवेदनशीलता, सहानुभूति और समझ को बढ़ावा देने का है।”

न्यायमूर्ति धूलिया ने अपने फैसले में कहा कि कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला इस बात का पर्याप्त जवाब नहीं देता है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाना चाहिए? अपने फैसले में उन्होंने कहा है कि इस तर्क में कोई दम नहीं है कि कक्षा में हिजाब पहनने से कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा होगी। उन्होंने लिखा है — “यह मेरे तर्क या समझ के अनुकूल नहीं है कि कैसे एक लड़की जो किसी कक्षा में हिजाब पहनती है, एक सार्वजनिक व्यवस्था की समस्या है या यहां तक ​​कि कानून-व्यवस्था की समस्या है। इसके विपरीत इस मामले में उचित समायोजन एक संकेत होगा कि एक परिपक्व समाज ने कैसे अपने मतभेदों के साथ जीना और समायोजन करना सीख लिया है। संवैधानिक दर्शन के अनुरूप स्कूलों और कॉलेजों में सहिष्णुता और समायोजन के मूल्यों को विकसित करना होगा।”

इस संबंध में उन्होंने भारत सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी हवाला दिया, जो शिक्षा में सहिष्णुता और समझ के मूल्यों को विकसित करने और बच्चों को इस देश की समृद्ध विविधता के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

प्रासंगिक रूप से, न्यायाधीश ने संवैधानिक मूल्यों की प्रासंगिकता को भी रेखांकित किया है। अपने फैसले में उन्होंने कहा है — “हमारे संविधान के कई पहलुओं में से एक है विश्वास। हमारा संविधान भरोसे का दस्तावेज है। यह वह भरोसा है, जिसे अल्पसंख्यकों ने बहुसंख्यकों के प्रति जताया है।” इस प्रकार प्रासंगिक रूप से, न्यायाधीश ने संवैधानिक मूल्यों की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है।

प्रासंगिक रूप से, उन्होंने यह भी बताया कि हिजाब पर प्रतिबंध से एक लड़की की शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? अपने फैसले में उन्होंने लिखा है — “भारत में गांवों और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में, एक बालिका के लिए अपने स्कूल बैग को हथियाने से पहले, अपनी मां की सफाई और धुलाई के दैनिक कार्यों में मदद करना आम बात है। एक लड़की को शिक्षा प्राप्त करने में जिन बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वे  एक पुरुष बच्चे की तुलना में कई गुना अधिक है। इसलिए इस मामले को एक बालिका के स्कूल पहुँचने में पहले से ही आ रही चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। इसलिए यह अदालत अपने सामने यह सवाल रखेगी कि क्या हम सिर्फ इसलिए कि वह हिजाब पहनती है, उसकी शिक्षा के अधिकार से इंकार करके एक लड़की के जीवन को बेहतर बना रहे हैं?”

उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक सरकार के आदेश (जीओ) को चुनौती देते हुए, राज्य के सरकारी शिक्षण संस्थाओं या कॉलेज परिसर में मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ, कई याचिकाएं दायर की गई है।न्यायाधीश धूलिया ने अपने फैसले में कहा है — “सभी याचिकाकर्ता हिजाब पहनना चाहते हैं! क्या लोकतंत्र में यह बहुत बड़ी मांग है?”

पीठ की अध्यक्षता करने वाले न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने सरकार के फैसले को बरकरार रखा है, जबकि न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने इसे खारिज कर दिया है। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी चौखटी में सुना जाएगा।

 *(लेखक छत्तीसगढ़ माकपा के सचिव हैं। संपर्क : 9424231650)*

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