अग्नि आलोक

*आजीवक दर्शन के संवाहक हैं कबीर*

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         ~ पुष्पा गुप्ता 

     प्राचीन भारत में दर्शन का विकास उसी तरह हुआ है जिस तरह से विश्व के किसी अन्य कोने में। भारत का इतिहास चार हजार साल पुराना है तो इसका दर्शन भी बहुत  इतना ही पुराना है।‌ न आर्यों के आगमन से यहां दर्शन का सूत्रपात होता है न, महावीर और बुद्ध के प्रादुर्भाव से कोई क्रांति। ये लोग खुद के आर्य समाज मे सुधार कर रहे हैं, बाकी 90 % जनता निष्पृह रुप से आजीवक दर्शन का अनुपालन करती है।

     कबीर को कोई देव नहीं बना सकता, क्योंकि वे देव के पीछे लाठी लेकर पड़े हैं।‌ प्रभुताई को आजीवक के मस्कर से धुन रहे हैं।‌ सवाल यह है कि लोग कबीर को अद्भुत बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन कबीर बन नहीं पाते।‌ वे आजीवक के रुप में जनमानस के मानस पटल पर तैरते है।

       सवाल है क्यों ?

इस क्यों को समझने के लिए आजीवक दर्शन का विकास को समझना पड़ेगा।‌

    आजीवक दर्शन भूत दर्शन से होकर विकसित हुआ है।‌ भूत से भौतिक बना है। मिस्र में जब फराओ देवदूत बनकर राज करता था, सुमेर ( आधुनिक इराक ) जिगुरत बनाकर अलौकिक शक्तियों से संपर्क साध रहे थे. उस समय भारत भौतिकवादी दर्शन विकसित कर रहा था।‌ जहां न कोई देव था, न कोई अलौकिक शक्ति, न ही कोई स्वर्ग की अवधारणा ,न ही क्रिया- कर्म , कर्म – फल की। लौकिक दर्शन ही इतना उन्नत सभ्यता विकसित कर सकता है।‌

     नियति  – नियम की प्रधानता ही इस तरह का अनुशासन विकसित कर सकती है।‌

    दो – ढाई हजार साल के इस भौतिकवादी दर्शन को आर्य घुसपैठियों ने पहली बार संक्रमित किया ।‌ वे वेद का दर्शन लेकर आए।‌ वह एक कबीला का दर्शन था।‌ हमे गाय दे दो , हमे घी दे दो , हमे वर्षा से बचा लो , हमारे दुश्मन को आग में जला दो , उन्हें बिष दे दो , उन्हें मार डाले – काट डालो। इस तरह की प्रार्थना करते थे वैदिक ऋषि। सवाल है और कर भी क्या सकते थे। घूमंतू प्रजाति के थे तो उन्हें डर बना ही रहता था।‌ 

जब वे कुछ व्यवस्थित हुए तो अपना एक समाजिक व्यवस्था बनाई और उसको तीन भागों में बांटा। एक ब्राह्मण , दूसरा क्षत्रिय , तीसरा वैश्य। इस समाजिक व्यवस्था में उन्होंने चौथे को भी जोड़ लिया , उन्हे शूद्र कहा। वह उन्हीं के आर्य लोग थे जिनको जीत कर वे दास बना लिए और उनका उपनयन करने से इंकार किया। 

       इस तरह एक समाजिक दर्शन का विकास हुआ ,जिसको ब्राह्मण धर्म कहते है।‌ वर्णवाद एक समाजिक व्यवस्था और धर्म  के रुप मे भारत मे आस्तित्व में आया।‌

      यह वर्णवादी धर्म विकसित होते हुए उपनिषद ,महाकाव्य , पुराण और कथा – व्रत होते हुए ,मुर्तिपूजक हिंदुत्व में परिणित हो गया है। 

दूसरा दर्शन उसी का शाखा की तरह विकसित हुआ – उसमे जैन , बौद्ध, नास्तिक , चार्वाक विकसित हुए। उन्होंने अपने धर्म से बगावत की , लेकिन  पूर्णत: लौकिक नहीं हो पाए।‌ ये नास्तिक होते हुए भी अपने लिए एलिटिज्म विकसित कर रहे थे ,कयोंकि इनमे अधिकांश क्षत्रिय वर्ण के थे और अपना वर्णवादी पोजिशन खोना नहीं चाहते थे।‌ इसलिए उन्होंने आजीवकों को अवर्णवादी  कह कड़ी आलोचना की।‌

आजीवकों का दर्शन एक दम साफ था :

  व्यक्ति कुछ नहीं है ,कर्म और अकर्म कुछ नहीं हैं , न पुरूषार्थ है ,न कोई निर्बल , फ्री विल नाम की कोई चीज नहीं है।‌ सब नियति के अधीन है।

    अगर देखा जाए तो यह नियति ही कबीर के  राम हैं ,हरि हैं।‌ 

    नियति कोई ईश्वर नहीं है ,इसलिए इस नियति के पास न कोई स्वर्ग है ,न नर्क है ,न परलोक मे दंड देने का कोई प्रावधान , न पुनर्जन्म है ,न आत्मा।

वह नियति निर्गुण है ,निरंकार है। 

कबीर ने इसी निर्गुण – निरंकार की बात की है।‌ इसको ही आधार मान सब तरह पोंगापंथ को आड़े हाथो लिया है।

    लख चौरासी योनी की बात आजीवक करते थे , कबीर भी करते हैं।‌ इस तरह हम देखते हैं कि आजीवक दर्शन का प्रवाह निरंतर है।‌

     आजीवक दर्शन का मूल मंत्र है – 

नियति – संगति – भव – परिणति.

    इन चार तत्वों में ही विशाल आजीवक दर्शन का रहस्य छुपा है।‌

नृत्य- गीत – संगीत आजीवक दर्शन का अभिन्न अंग है और यह तीनों दलितों और आदिवासी का जीवन दर्शन है।‌ 

शंकर के हाथ में डमरू है ,जो उनके आजीवक होने की चुगली करता है।

      अब बताओ डमरू कौन बजाता है – मदारी। मदारी तो नीच जाति हुआ , चमार मानर बजाता है , बंजारा डफली , दुसाध और आदिवासी मांदर और मृदंग।‌ 

    कबीर गाते हैं , तानपुरा बजाते हैं , कबीर पंथी पखावज और झांझर।

   यह गीतमय समाज ही आजीवक समाज है।‌ कबीर को बुद्ध कहना उनको गाली देने के बराबर है।

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