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कबीर बुनते थे, असर लिखते थे

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दीपक असीम

कल शाम शहर के मशहूर शायर इसहाक असर का निधन हो गया। वे खजराना में अपने बेटे के घर थे। उन्हें आज दोपहर आजाद नगर कब्रिस्तान दफनाया गया है। उनका घर नयापुरा में है। एक बेटा खजराना रहता है, एक आजाद नगर। वे लगभग अस्सी साल के थे। उन्होंने शहर को शायरी की नई पौध दी। वे हिंदी में भी खूब ग़ज़लें कहते थे। पत्रकारिता की और बाद में राजवाड़ा पर टेलरिंग की दुकान भी की। जब तक आंखों ने साथ दिया घर पर भी टेलरिंग का काम करते रहे।

इसहाक असर ने अपनी ज़िंदगी दोस्ती और मुहब्बत में गुजारी। उनका दिल बहुत बड़ा था। उनके शागिर्द और दोस्त लगभग रोज़ ही दोपहर उनकी दुकान पर मजमा जमाए रहते। खाना आता तो सबको बैठा कर खिलाते। भले खुद के हिस्से में आधी रोटी आए या चौथाई रोटी। मोबाइल फोन का भी ज़माना नहीं था कि घर पर फोन करके ज्यादा खाना मंगा लें।

घर पर भी कौनसा बहुत खाना होता था। आठ बच्चे थे। गरीब थे, मगर गरीबी को महसूस नही करते थे। यही हाल घर पर सब लोगों का था। अभाव था मगर जिंदगी उत्सव जैसी चलती थी। घर पर हंसी ठट्ठा होता रहता था। शाम को भी घर जाते तो दो चार शागिर्द या दोस्त साथ होते। जो भी पका-बना होता मिल-जुलकर खाते खिलाते। टुकड़े अकसर बनते। टुकड़े अर्थात बची हुई रोटियों को दाल के साथ मिलाकर बनाई गई पतली लपसी…। कभी गुंजाइश होती तो इसी में नानवेज डल जाता।

 उनकी बीवी का इतंकाल पांच साल पहले हुआ। वो असल सब्र वाली महिला थीं। उन्हें सब मम्मी कहते और इसहार असर डैडी कहलाते थे। रात के दो बजे गहरी नींद से उठ कर वे मजमे के लिए चाय बनातीं तो कभी चेहरे पर शिकन नहीं आई। चाय देकर वे फिर ऐसे सो जातीं कि जैसे सोना उठना उनके बस में हो। कभी शिकायत नहीं करतीं कि कमाई तो ज्यादा है नहीं आप अपने दोस्तों को लेकर क्यों आते हैं। उनके घर रोज़ रात को दो-तीन बजे तक ताश की महफिलें जमा करतीं। एक कमरे का ही उनका मकान था। उसी में खाना बनता। उसी में एक तरफ दरी-कथरी बिछा ओढ़ कर बच्चे सो जाते और उसी कमरे में एक तरफ दरी चटाई बिछा कर महफिल जमती। मम्मी ने कभी नहीं कहा कि लाइट के कारण नींद नहीं आ रही या बच्चे नहीं सो पा रहे। उल्टे वे सब नींद में जाते हुए हमारी बातें सुनते रहते और जब तक होश रहता हंसी में साथ देते। देर रात भूख लगने पर उनके शागिर्द और दोस्त कटोरदान खोल कर रात की बची हुई रोटी की भोंगली बना कर चाय के साथ खा लेते। कभी बचे हुए चावल में दाल डालकर चम्मच से खा लेते। अपने असल डैडी के घर में शागिर्द जितने सहज नहीं रहे होंगे, उतना इसहाक असर के घर में रहा करते थे। उनके शागिर्द ने एक बार उन्हें कुर्ता पैजामे का कपड़ा दिया। नाप शागिर्द का लिया, मगर कुर्ता पैजामा बना लिया खुद के लिए। कहने लगे कपड़ा और कलर मुझे पसंद आ गया। ना शागिर्द ने बुरा माना और ना कपड़े के पैसे मांगे। उनके नज़दीक कुछ अपना पराया होता ही नहीं था।

उनके दोस्तों और शागिर्दों में हिंदू मुस्लिम सब थे। छह दिसंबर बानवे को जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई और दंगे के बाद कर्फ्यू लगा तो उनके घर रात की महफिलें और देर तक जमने लगीं। हिंदू मुस्लिम शागिर्द दोस्त सब शाम को जैसे तैसे कर्फ्यू फलांग कर उनके घर नयापुरा जाते जो पूरी तरह मुस्लिम बस्ती थी और है। दो चार घड़ी दुनिया जहान की बात होती और उसके बाद फिर ताश की गड्डी निकाल ली जाती। मुहल्ले के उग्र मुस्लिम युवाओं ने एतराज़ जताया कि आपके घर हिंदू क्यों आते हैं। क्या वे इस इलाके की जासूसी करते हैं। इसहाक असर हंसने लगे। कहा रात को आएं तो खुद ही पूछ लेना। मगर बहुत दबाव पड़ा तो एक बार मना कर दिया कि भाई हालात अच्छे नहीं हैं, कुछ दिन परहेज करो। मगर यह परहेज दो दिन भी नहीं चला। जब तक कर्फ्यू रहा तब तक महफिलें सुबह तक जमीं।

लड़कियों की शादी भी ऐसे ही मस्ती में की। धेला पास नहीं था, मगर मुहब्बतों की बरकत से सब इंतज़ाम हो गया। फिर जब लड़कों की शादी हुई तो रात की महफिलों को घर के बाहर लाना पड़ा और धीरे धीरे वो सिलसिला खत्म हो गया। शागिर्द और यार दोस्त वक्त के थपेड़ों से अलग अलग जा गिरे। पिछले दिनों उसी महफिल का एक मेंबर मिला था। कह रहा था कि डैडी चाहते हैं एक बार फिर वैसी ही ताश की महफिल जमा ली जाए। अगले हफ्ते का तय भी हुआ मगर वो पुराना मेंबर अपने वादे के मुताबिक महफिल जमा नहीं पाया।

इसहाक असर शायरी में बहुतों के उस्ताद रहे। शायरी तो सिखाई ही मगर असली चीज़ जो उन्होंने अपनी ज़िंदगी से शागिर्दों को सिखाई वो अपनापन, मुहब्बत, दरियादिली, धर्मनिरपेक्षता…। इसहाक असर ने राम, कृष्ण, मीरा पर नज़्में कहीं। राजवाड़ा पर हर उत्सव मनता था और वे हिंदू मुस्लिम यहां तक जैन उत्सवों पर भी खुश हुआ करते थे। निशान निकलें या ताजिये निकले, वे रंग में रहते थे। गंगा जमुनी तहज़ीब उनके खून में दौड़ती थी।  उन्होंने कभी इसका प्रचार नहीं किया कि मैं धर्मनिरपेक्ष हूं। शायद उन्हें इसका खयाल तक नहीं आया होगा। वे खुद पाबंदी से नमाज़ पढ़ते थे। आखरी समय तक नमाज़ नहीं छूटी। मगर मजाल है जो उनकी बातों या बर्ताव में कभी अंतर आया हो। आखरी समय में वे उस दौर को याद करते थे, जब उनके घर और दुकान पर महफिलें जमा करती थीं। अगर उनका नयापुरा वाला घर उनके दिल जितना बड़ा होता, तो बच्चों को अलग अलग कमरे मिल जाते और महफिलें आखरी समय तक कायम रहतीं। 

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