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कलियुगीन रामराज:राजनैतिक पतनशीलता का उत्कर्ष काल

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रामशरण जोशी 

हम त्रेता युग की रामराज प्रजा से 22 जनवरी को कलियुगीन रामराज की प्रजा बने हैं। अयोध्या में विराट प्रदर्शन के साथ त्रेतायुग के रामलला की प्राणप्रतिष्ठा संपन्न हुई। सरयू नदी की पावन कलकल से अब भी रामधुन की ध्वनियां उठ रही हैं।इसी रामधुन के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने छठी बार पलटीमार चमत्कार का प्रदर्शन किया। इससे पहले पिछले वर्षों में वे पांच दफे अपने पलटीमार चमत्कारों का प्रदर्शन प्रदेश और देश को दिखा चुके हैं। अब उन्हें मीडिया ‘पलटूमार नेता’ के तमगे से नवाज़ा जा रहा है। ज़ाहिर है, मीडिया ने यह तमगा खुद तो गढ़ा नहीं होगा। पहले यह जनता और कतिपय राजनैतिक क्षेत्रों में यह तमगा प्रचलित हुआ होगा। इसके बाद मीडिया ने झपट लिया होगा। कांग्रेस राज में भी ‘आयाराम-गयाराम’ का तमगा चल पड़ा था। लेकिन, राजनीति की आयाराम-गयाराम टकसाल का ताज़ा संस्करण है ‘ पलटूराम ‘ ।

मेरी दृष्टि में यह अधूरा है; पलटूराम की कलाबाज़ी का संरक्षक और प्रायोजक भी तो होने चाहिए। क्या यह कलाबाज़ी शून्य में की जाती है? जब तक इसके संरक्षक और प्रायोजक नहीं होंगे, तब तक जादूगर यह खेल दिखायेगा नहीं।सामाजिक न्याय के दिग्गज नेता नीतीश कुमार ने अपनी पलटू कलाबाज़ी के जौहर छह बार दिखाए और बिहार के नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। एक दर्ज़न में तीन कम हैं। हो सकता है, अगले सालों में तीन दफे और ले लें। लेकिन, यदि इसके संरक्षक और प्रायोजक नहीं रहते तो क्या नीतीश सुविधापूर्वक यह कलाबाज़ी दिखा सकते थे? यह करिश्मा भी गौरतलब है कि उन्हें इफ़रात में संरक्षक और प्रायोजक मिलते रहते हैं; कभी भाजपा, तो कभी सामाजिक न्याय के समकालीन नेता लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल (आर.जे.डी.)।

पलटूराम उर्फ़ नीतीश कुमार कभी मोदी-शाह ब्रांड की भारतीय जनता पार्टी का दामन थामते हैं, और कभी लालू यादव का। त्रिशंकु अवस्था में दो ध्रुवों के बीच झूलते रहते हैं। इस दशा के लिए अकेले नीतीश कुमार ही ज़िम्मेदार नहीं हैं। उतने ही ज़िम्मेदार दोनों परस्पर विरोधी पक्ष भी हैं जो उन्हें त्रिशंकु दशा में बनाये रखना चाहते हैं। तब इन दोनों पक्षों को भी संयुक्त रूप से किसी तमगे से नवाज़ा जाना चाहिए। मेरे विचार में ‘ झपटूराम’ से बेहतर क्या हो सकता है क्योंकि दोनों पक्षों के नेता नीतीश कुमार को एक-दूसरे से कुछ-कुछ अंतराल के बाद झपटने के लिए सीमाओं पर तैनात सैनिक के समान हमेशा तैयार रहते हैं।

सो, पिछले कुछ सालों से बिहार का सत्ता ड्रामा ‘झपटूराम और पलटूराम’ के बीच चलता आ रहा है। इसके पटकथा लेखक पटना, दिल्ली और न जाने कितनी जगह फैले हुए हैं। दिलचस्प विडंबना यह है कि ‘झपटूराम-पलटूराम सत्ता ड्रामा’ बिहार के विकास के नाम पर खेला जाता है। फिर भी बिहार का विकास नहीं होता है। बड़ा ज़िद्दी प्रदेश है यह ! यह अपना ही विकास नहीं चाहता है, ऐसे नेताओं के शानदार जौहर के बावजूद। क्या सरयू और गंगा के पावन जल झपटूराम और पलटूराम के राजनीतिक पापों को धो सकेंगे? आज का अहम सवाल यही है।

देश का राजनीतिक यथार्थ यह है कि झपटूराम+पलटूराम संस्कृति बिहार तक ही सीमित है, ऐसा भी नहीं है। यह अमरबेल की तरह अन्य प्रदेशों में भी फैली हुई है। पिछले दस सालों में इसका व्यापक फैलाव हुआ है: महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गोवा, अरुणाचल जैसे प्रदेशों में सरकारों का पतन भी तो इस संस्कृति की देन है। तीन साल पहले राजस्थान भी इसकी चपेट में आनेवाला था, लेकिन बच गया।

इस संस्कृति का विस्तार बंद हो गया है, यह निष्कर्ष भी गलत होगा। इस संस्कृति की चपेट में कब कौनसा गैर भाजपाई सरकारें आ जाएं, कौन ठिकाना है। हिमाचल और झारखण्ड प्रदेशों को छोड़ कर सभी हिंदी (दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हरियाणा) भाजपा के हिंदुत्व ध्वज आ चुके हैं। ये दोनों छोटे प्रदेश कब तक अपनी खैर मनाएंगे। फिलहाल दक्षिण के पांच राज्यों (तमिलनाडु, केरल,कर्णाटक, तेलंगाना और आंधप्रदेश) और पश्चिम बंगाल व ओडिशा में भाजपा के लिए भरोसेमंद पलटूराम नहीं मिल पा रहे हैं। लेकिन, इसकी तलाश चल रही होगी, इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।

भाजपा के मास्टर माइंड अमित शाह को देर-सबेर कोई-न-कोई विश्वसनीय पलटूराम मिल ही जायेगा। मुझे इसका विश्वास है। इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की उपयोगिता लोकसभा के चुनावों के बाद ख़त्म हो जाए। जेडीयू का हश्र भी शिवसेना की तरह हो जाए। इसमें भी कोई शिंदे पैदा हो जाए। 2025 में होने वाले विधानसभा चुनावों में नीतीश नेतृत्व का लोप हो सकता है।

सत्ता और धन की कोख में पलटूराम पलते ही रहते हैं। लेबर पैन और डिलीवरी का सही अंदाज़ होना चाहिए, पलटूराम कोख से फटाक से बाहर आजायेंगे। इस मामले में गृहमंत्री अमित शाह बेजोड़ ‘दाई’ हैं ।उनके सीधे निशाने पर हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड और ओडिशा होंगे, यह सम्भावना बनी हुई है। यह अलग बात है कि फिलहाल द्रविड़ संस्कृति के पांच राज्यों में भाजपा की दाल नहीं गल पा रही है। उन्हें भरोसेमंद पलटूराम नहीं मिल रहा है। लेकिन मोदी+शाह-गिद्ध नज़रें ज़रूर गढ़ी होंगी। अब चूंकि भाजपा स्वयं को अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के उद्घाटन के अमोघ शस्त्र से सुसज्जित मानती है तो गैर-भाजपा सरकारों की शिकस्त उसका एकमात्र अभियान रहेगा। इस अमोघ शस्त्र के अलावा ईडी, सीबीआई, इन्कमटैक्स जैसे शक्तिशाली बाणों से वह पहले से ही लैस है।

अब यह सवाल उठता है कि क्या झपटूराम और पलटूराम की शकुनि जोड़ी यह सोच पा रही है कि उसके कुकृत्यों का समाज पर क्या असर पड़ रहा है? समाज में कैसे मूल्यों की रचना हो रही है? क्या इससे वर्तमान पीढ़ी में सकारात्मक संस्कारों का निर्माण हो रहा है? जब मतदाता किसी दल के प्रत्याशी को विधायिका में अपना प्रतिनिधि चुन कर भेजते हैं, तब उससे अपेक्षा रहती है कि वह मतदाता के साथ विश्वासघात नहीं करेगा।वह उसके विश्वास पर खरा उतरेगा। मतदान में दल की विचारधारा और मतदाता का विश्वास+अपेक्षाएं+ वैचारिक दृष्टि भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

जब कोई सांसद या विधायक पाला बदलता है तब वह मतदाताओं के साथ ही नहीं, विचारधारा और अपेक्षाओं के साथ भी विश्वासघात कर रहा होता है। जहां वह अपनी तिज़ोरी भर रहा होता है, वहीं वह मतदाताओं के सपनों को रौंद भी रहा होता है। समाज में नकारात्मक मूल्यों, अनैतिकताओं और अविश्वासों को जन्म दे रहा होता है। इस प्रक्रिया में सामान्य जन की उपचेतना में मूल्यहीन और संवेदनाहीन संबंध जन्म लेने लगते हैं। ऐसा भी समय आता है जब नागरिक मतदाता देश, राष्ट्र और समाज के प्रति उदासीन बनने लगे और अविश्वास का वातावरण समाज में पैदा होने लगे।

झड़पूराम और पलटूराम या दल बदलू या आयाराम-गयाराम को इसकी कल्पना होनी चाहिए कि उनके कुकारनामों की कीमत अप्रत्यक्ष तौर पर समाज को कितनी चुकानी पड़ रही है? समाज में किस तरह की कुरीतियों, अपराधों का वस्फ़ोट हुआ है, इसका अंदाज़ इन रामों को होना चाहिए।याद रखना चाहिए कि राजनीतिकर्मियों की कार्य शैली का प्रभाव जनता पर पड़ता रहता है। जब शासक बेईमान, विश्वासघात, वादाफरोश रहेंगे तो जनता भी वैसी ही बनने लगेगी। समाज में पतनशीलता फैलेगी। निर्वाचित जनप्रतिनिधि मार्ग दर्शक का रोल निभाता है, इस ध्रुव सत्य को याद रखा जाना चाहिए।

मेरा दोनों प्रकार के रामों से सवाल है कि क्या उनकी वैचारिक प्रतिबद्धताएं पलक झपकते बदल जाती हैं? क्या उन्होंने कभी अपनी ज़मीर से इसका सवाल किया है? क्या बिहार के पलटूराम और झपटूराम ने आईने के सामने खड़े हो कर सवाल किया है कि उनकी ताज़ा हरक़तों से भविष्य में लोकतंत्र और संविधान के अस्तित्व को कितना खतरा पैदा हो सकता है? फिलहाल बिहार का ताज़ा पलटूराम+झड़पूराम सत्ता ड्रामा राजनीतिक पतनशीलता का उत्कर्षकाल प्रतीत होता है!

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