अमिता शीरीं
बामा की किताब ‘करुक्कू’ भारतीय ईसाई समाज की इस हक़ीक़त को तफसील से बयान करती है कि वहां भी जातिवाद है। दलित ईसाई का भी वैसे ही शोषण होता है, जैसे दूसरे दलितों का होता हैं।
करुक्कू का अर्थ है ताड़ के वृक्ष के पत्ते। इन पत्तों की खासियत होती है कि उसके डंठल के दोनों किनारे आरे के ब्लेड की तरह धारदार होते हैं। यानि अपने वृत्तांत को दोधारी तलवार का बिंब दिया है बामा ने।
गौर तलब है कि बामा वही जानी-मानी लेखिका हैं, जिनकी रचनाएं अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटा दी गई हैं।
दरअसल, तमिल लेखिका फौस्तीना मैरी फ़ातिमा रानी एक दलित इसाई हैं, जो बामा के नाम से प्रसिद्ध हैं। बामा तमिलनाडु में मदुरई के निकट पुदुपत्ति गांव की रहने वाली हैं। उनका जन्म 1958 में हुआ था। अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने बामा नाम चुना। उनके पिता सुसाई राज भारतीय सेना में नौकरी करते थे। माता का नाम था – सेबस्थिअम्मा। 18वीं शताब्दी में ही उनके पूर्वज ईसाई हो गए थे। उनके पहले की पीढ़ी के लोग कथित ऊंची जातियों की चाकरी करते थे। अपने गांव में ही प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने तुठुक्कुदी के सेंट मेरीज़ कान्वेंट से स्नातक किया। इसके बाद बीएड किया फिर एक शिक्षिका हो गईं।
उनकी आत्मकथा ‘करुक्कू’ तमिल में 1992 में प्रकाशित हुई थी। वर्ष 2000 में लक्ष्मी होमस्ट्रोम ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया। वर्ष 2001 में इस अनुवाद के लिए इस किताब को क्रॉसवर्ड पुरस्कार से नवाज़ा गया। इसके अलावा प्रकाशित कृतियों में दो उपन्यास ‘संगति’ (1994) और ‘वन्मम’ (2002) और तीन कहानी संग्रह शामिल हैं।
इस किताब की भूमिका में बामा लिखती हैं– “अंदरूनी घावों को भरने के लिए मैंने यह किताब लिखी है।” सच में दलित लेखन सदियों से इस देश की एक बड़ी जनसंख्या की आत्मा पर जो ज़ुल्म के घाव हैं, उस पर मरहम लगाने का काम करती है। जो लोग इस सच से केवल समानुभूति रखते हैं, उन्हें इस बात का अहसास कराती है कि वास्तविकता कल्पना के परे है।
‘करुक्कू’ की खासियत यह है कि इसे पढ़ते वक्त इसका साहित्य हमें घेर लेता है और हम एक बेहतरीन साहित्य का लुत्फ़ लेने लगते हैं। आमतौर पर दलित लेखक-लेखिकाओं के आख्यान दलित होने के दर्द में इतना अधिक डूबे रहते हैं कि उसमें अन्य चीज़ों पर ध्यान ही नहीं जाता। लेकिन ‘करुक्कू’ की खासियत है कि यह किताब एक दलित इसाई की आपबीती तो कहती ही है, साथ ही यह एक उच्च कोटि के साहित्य लेखन की मिसाल भी पेश करती है। आत्मकथा का आरंभ वह अपने गांव की खूबसूरती के वर्णन से करती हैं–
“हमारे गांव के चारों ओर पहाड़ियां हैं। उन्हें देखना मुझे बहुत सुहाता है। लोग कहते हैं कि ये पश्चिमी घाट हैं। कुछ पहाड़ियों के अलग नाम भी हैं।”
इसके बाद वह विस्तार से गांव की छटा का इस तरह वर्णन करती हैं कि समूचे गांव की तस्वीर सामने उभर जाती है। हरेक पहाड़ी के नाम के पीछे कोई न कोई कहानी या अर्थ है। गांव में प्रत्येक समुदाय की गली का अलग नाम है। बामा जिस दलित परया समुदाय की थीं, उस इलाके की गलियों के नाम भी अलग थे। उन गलियों से लोगों की जाति पहचानी जा सकती थी।
इसी तरह उनके गांव में भी लोगों के नाम भी उनकी जाति, रंग, घट चुकी किसी घटना या व्यवहार के आधार पर रख दिया जाता है। जैसे उत्तर भारत में खेतों में चिड़ियों को भगाने वाली महिला को बुलाने लगते हैं – ‘कौव्वा हंकनी’। वैसे ही उनके गांव में एक औरत थी, जिसे लोग ‘काक्का’ बुलाते थे। गांव में नायकर जाति के पास अकूत ज़मीन थी। ज़ाहिर है दलित ग़रीब और शोषित थे। वे कथित ऊंची जातियों के घरों में और खेतों में लगभग बंधुआ मजदूरी ही करते थे।
तीसरी कक्षा तक छोटी-सी बामा को इस बात का साफ़ तौर पर अंदाज़ा नहीं था कि वह ‘अछूत’ जाति की हैं। लेकिन उनका मानना है कि उन्हें इस बात का अहसास हो चुका था। एक बार स्कूल से लौटते हुए उसने देखा कि नायकर जाति का एक ज़मींदार, उसकी जाति के एक बुज़ुर्गवार से कैसे अस्पृश्यता का व्यवहार कर रहा था। इस घटना का उसके नन्हे मन पर बहुत असर पड़ा। घर आकर उसने अपने बड़े भाई को, जो शहर में पढ़ता था, सारी घटना सुनाई। उस वक्त उसके भाई ने उसे ऊंची और निम्न जाति के बारे में बताया। जाति से यह उसका पहला औपचारिक परिचय था, जिसने जीवन-भर पीछा नहीं छोड़ा। गली में, स्कूल में, कॉलेज में, बस में, चर्च में, नौकरी में; हर जगह जाति उनके साथ त्वचा की तरह चिपकी रही।
बामा की नानी और दादी दोनों नायकर के घरों में काम करती थीं और रोज़-रोज़ अपमानित होती थीं। उनके अन्ना (बड़े भाई) ने उन्हें जातिगत अपमानों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि “चूंकि हमारा जन्म परया जाति में हुआ है, इसलिए हमें सम्मान और गरिमा नहीं मिलती। हमसे यह सब कुछ छीन लिया जाता है। लेकिन अगर अच्छे से पढ़ाई करें तो हम ये सारी चीज़ें उखाड़ कर फेंक सकते हैं। इसलिए मन लगाकर पढ़ो।”
बामा ने अन्ना की इस बात को गांठ बांध ली और मन लगाकर पढ़ाई करने लगी। वह हरेक क्लास में अव्वल आती। इस कारण से उसके सहपाठी और शिक्षक उसका उतना अपमान नहीं कर पाते, जितना वह करना चाहते थे। हालांकि उन्होंने कोशिश पूरी की। सवर्ण जाति की एक लड़की को जब पता चला कि वह तथाकथित निम्न जाति की है तो वह उठ कर दूसरी सीट पर चली गई। यहां तक कि बस में भी गैर-दलित लोग जाति का पता चलने पर उसके बगल में नहीं बैठते।
जातिगत अपमान का घूंट भरते हुए भी बामा ने अपना दिमाग पढ़ाई में लगाये रखा और हमेशा अव्वल आती रही। हालांकि शिक्षक सहपाठियों और अन्य सवर्ण लोगों ने उन्हें अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बामा एक घटना का ज़िक्र करती हैं कि जब स्कूल में खेलते समय एक कच्चा नारियल टूट कर गिर गया। अगले दिन प्रधानाध्यापक ने सरेआम प्रार्थना सभा में उसका नाम बुलाते हुए कहा– “तुमने परया जाति के रूप में अपना असली चरित्र दिखा दिया न!” जबकि बामा नारियल के पेड़ पर चढ़कर खेलनेवाली अकेली नहीं थी, जिसके कारण नारियल गिरा था।
बामा कहती हैं कि अगर आपने हमारी जाति में जन्म लिया है तो जीवन-भर अपमान आपका पीछा नहीं छोड़ता।
अध्याय-दर-अध्याय बामा अत्यंत ही पीड़ा के साथ इन अपमानों का वर्णन करती हैं। वह बताती हैं कि उनके गांव में दलित और गैर-दलित समुदायों के शमशान अलग-अलग जगहों पर हुआ करते थे।
वह एक घटना का वर्णन करती हैं, जिसमें उनके समुदाय के कब्रिस्तान में शव को दफ़नाने को लेकर अक्सर उनके पड़ोस में रहने वाले चालियर समुदाय के लोगों से उनके समुदाय का झगड़ा होता रहता था। चालियार समुदाय के लोग उनके कब्रिस्तान की ज़मीन पर कब्ज़ा करना चाहते थे। एक बार झगड़ा इतना बढ़ा कि उनलोगों ने पुलिस बुला ली। इसके बाद शुरू हुआ परया समुदाय के पुरुषों पर पुलिस का बर्बर ज़ुल्म। पुलिसवालों ने उनके पुरुषों को घर से निकाल-निकाल कर इतना मारा कि उनको घर छोड़कर भागना पड़ा। कइयों को जेल जाना पड़ा। उन्हें सालों कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़े। बामा यह दिखाने में सफ़ल रहती हैं कि न सिर्फ़ समाज, बल्कि सरकार पुलिस और यह व्यवस्था सभी मिलकर दलितों के ख़िलाफ़ काम करते हैं।
बामा बताती हैं कि सेना में नौकरी करने वाले उनके पिता जब भी घर आते तो उनके जीवन में कुछ बहार आ जाती। बाकी समय वे लोग बेहद गरीबी में ही जीवन जीते। बीएड करने के बाद उन्होंने नौकरी करना शुरू किया और जिंदगी थोड़ी आसान हो गई। लेकिन उनके अपने लोगों के कष्ट उन्हें सताते रहते कि इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें कुछ हासिल नहीं होता। वे मुश्किल से अपना खाना जुटाते हैं और चीथड़ों में ही जीवन गुजार देते हैं।
कुछ इन्ही दर्द भरी मनःस्थिति में उन्होंने अपने जीवन का वह फैसला किया, जिसे वह मूर्खतापूर्ण कहती है। इन्हीं क्षणों में उन्होंने नन बनने का फैसला किया।
पुस्तक के अंतिम अध्यायों में बामा ने पर्याप्त विस्तार से कान्वेंट के भीतर होने वाले भ्रष्टाचार, आरामतलबी और भेदभाव का चित्रण किया है। कई बार तो उन बातों का दुहराव हुआ है कि लगता है कि लेखिका एक ही बात को कितनी बार बताएंगीं। लेकिन इससे पता चलता है कि उन सबके पीछे उनके मन में कितना क्षोभ और आक्रोश छिपा था। और अगर वह ये सब नहीं लिखतीं तो शायद कुछ फट जाता उनके भीतर।
इसके पहले वह विस्तार से गांव में मौजूद चर्च और उसके माध्यम से होने वाले कर्मकांडों का विस्तार से वर्णन करती हैं। धार्मिक मेलों और उत्सवों के बारे में विस्तार से बताती हैं। एक ईसाई समुदाय का सदस्य होने के कारण शुरू में वह पूरी आस्था के साथ इनमें हिस्सा लेती हैं।
कान्वेंट (नन के आवास) में जाने के बाद उन्हें यह अहसास हुआ कि उनका उद्देश्य ग़रीबों की सेवा करना कतई नहीं है। इसके बजाय वहां पर नन लोग ऐश की जिंदगी जी रही थीं। खाने-पीने से लेकर जीने के सारे ऐशो-आराम उन्हें वहां मुहैया थे। उनके जीने के स्तर को देख कर बामा का मोहभंग हो जाता है। उनका मानना है कि कान्वेंट के भीतर के जीवन ने उनके भीतर की ताकत को खत्म कर दिया। वे खुद को अनाथ जैसा महसूस करने लगीं। वह लिखती हैं कि समाज के भीतर तो दलितों के लिए एक ख़ास भाव था ही, चर्च ने भी दलितों का इस्तेमाल किया और उन्हें उपेक्षित रखा। वह लिखती हैं–
“जब हम स्कूल या चर्च जाते तो हमें दूरी बनाकर चलना पड़ता। चर्च, स्कूल, कान्वेंट और पादरियों के बंगले, सब सवर्णों के मोहल्ले में होते थे। दलित बच्चों को पढ़ने के लिए सबसे दूरी बनानी पड़ती। कथित ऊंची जातियों के क्रिश्चियन बच्चे संख्या में बहुत कम थे, फिर भी उनको चर्च, स्कूल, कान्वेंट सब आसानी से उपलब्ध था।”
पढ़ाई ख़त्म होने के बाद वह चर्च द्वारा चलाए जानेवाले एक स्कूल में पढ़ाने लगीं। उस समय उनका दिल गरीब बच्चों की ख़िदमत करने के भाव से भरा हुआ था। लेकिन उनकी यह तमन्ना पूरी नहीं हुई। उन्होंने पांच साल तक वहां पढ़ाया। उनका तबादला एक बहुत बड़े स्कूल में कर दिया गया।
इसके बाद वह एक कान्वेंट में शामिल हो गईं। और कड़े अनुशासन के साथ आर्डर (जहां रहने वाले खुद को बाहरी दुनिया से काट लेते हैं) में रहने को मन बना लिया।
उनके अनुसार कान्वेंट का अपना एक पूरा संसार होता था। यहां पर वे लार्ड जीसस और लेडी के बारे में तथा आर्डर के अनुशासन के बारे में बातें करते। बामा को कान्वेंट में आकर ख़ुशी नहीं महसूस हुई। उन्हें लगता जिन गरीबों की सेवा के उद्देश्य से वह कान्वेंट में शामिल हुईं थी, वह पूरा नहीं हो रहा है। वह लिखती हैं–
“मुझे एक तरह से शर्म महसूस होती। ऐसा लगता कि मैं किसी नायकर के घर में रहती हूं। मैं मनमाफ़िक काम नहीं कर सकती या बोल नहीं सकती थी। यहां तक कि स्वतंत्रतापूर्वक खा भी नहीं सकती थी। उस वक्त यही मेरे भाव थे।”
कान्वेंट में अपने साथ भेदभाव का उल्लेख करते हुए एक जगह वह कहती हैं कि एक बार उन्हें प्रोन्नति दी जानी थी। लेकिन बाद में उनके बजाय किसी और को प्रोन्नति दे दी गई। बामा कहती हैं कि वे लोग अपनी ही जाति के किसी व्यक्ति को देखना चाहते थे, जबकि उस पद के हिसाब से वह कम योग्यता रखते थे।
इसी तरह का एक अनुभव साझा करते हुए बामा कहती हैं कि हमारे अपने चर्च में भेदभाव होता था जबकि अकेले दलितों की संख्या सबसे अधिक थी। वे केवल ऊंची जातियों के ईसाई थे, जो चर्च की सारी सुविधाओं का उपभोग करते थे। वहीं पादरी और नन के रूप में मनोनयन के मामले में भेदभाव किया जाता था। एक तो दलितों को पादरी और नन नहीं बनाने की पूरी कोशिश की जाती और यदि कोई बन भी गया तब उसे हाशिए पर डाल दिया जाता।
फिर उन्होंने कान्वेंट को छोड़ने का फैसला कर लिया। उनके अनुसार तेल और पानी बहुत दिनों तक साथ मिलकर नहीं रह सकते। और उन्होंने कान्वेंट छोड़ दिया। उसे छोड़ने की प्रक्रिया में भी उन्हें काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा। उन्हें एक बांड पर दस्तख़त करने पड़े कि उनका आर्डर से कुछ लेना-देना नहीं है। वह अपनी मर्ज़ी से छोड़कर जा रही हैं। बामा लिखती हैं–
“जब मैं बाहर आई तो मेरी सारी ताकत निचुड़ चुकी थी… फिर भी मैं एक सच्ची और ईमानदार जिंदगी जीने को स्वतंत्र थी… वहां मुझे लगता था कि मैं एक ऐसी चिड़िया हूं, जिसके पंख टूटे हुए हैं।”
इसके बाद बामा एक सरकारी स्कूल में गणित की शिक्षिका हो गईं। वे दलित मुक्ति के साथ भी जुड़ी हुई हैं। आज बामा एक प्रसिद्ध दलित लेखिका रूप में जानी जाती हैं। उनकी इस किताब का अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन और मलयालम में हो चुका है।
उनकी इस सफ़लता के पीछे कितना संघर्ष छुपा हुआ है, वह इस किताब को पढ़ कर ही समझ आता है। उनकी आत्मकथा ‘करुक्कू’ को पढ़ने के बाद यह पता चलता है कि दलित यदि ईसाई भी बन जाएं तब भी उन्हें समाज के जातिवाद से मुक्ति नहीं मिलती है।
इस तरह बामा की यह किताब ‘करुक्कू’ न केवल साहित्य की एक बेमिसाल किताब है, बल्कि यह हम जैसे पाठकों के लिए एक अलग तरह से घट रही घटनाओं का परिचय भी है।
बेशक किताब तक हमारी पहुंच इस लिए ही संभव हो पाई है कि लक्ष्मी होमस्ट्रोम ने एक बेहतरीन अंग्रेज़ी अनुवाद हमें उपलब्ध कराया। कहीं-कहीं पर अनुवाद की सीमा समझ आती है और लगता है कि काश हम तमिल में इसे पढ़ पाते। लेकिन हम जानते हैं कि एक साथ सारे आसमान हमें नहीं मिल सकते।
(आलेख में बामा की आत्मकथा ‘करुक्कू’ के उद्धृत अंशों का हिंदी में अनुवाद – अमिता शीरीं,