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कश्मीर समझौता

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*कश्मीर समस्या के पीछे का सच**भाग 7

अजय असुर

कश्मीरियों ने अपनी आजादी के सपनों को कभी भी खत्म नहीं होने दिया है और आज भी अपने आजादी को लेकर सपने देख रहें हैं, चाहे वो पाकिस्तान वाला काश्मीर हो या भारत के हिस्से वाला कश्मीर। वक्त-वक्त पर कश्मीरियों द्वारा केन्द्र व राज्य के संबंधों का निर्धारण करने वाले या केन्द्र द्वारा विलय के दस्तावेज की मूल भावना को खत्म करने के प्रत्येक प्रयास का बहुत ही सख्ती से अपना विरोध जताया है। शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी पर ही नहीं बल्कि भारत सरकार द्वारा संवैधानिक एकीकरण के जितने भी प्रयास किये गये, कश्मीरी जनता ने हिंसक और गैर हिंसक दोनों ही प्रकार से भारी विरोध जताया। जब एक कठपुतली सरकार की सहमति से राज्य पर संविधान के अनुच्छेद 356 और 357 लागू कर दिये गये और इससे केन्द्र ने राज्य में आपातकालीन स्थिति में सीधे शासन करने का अधिकार हासिल कर लिया, तब इन कदमों की कश्मीर घाटी में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। न सिर्फ भारत अधिकृत कश्मीर घाटी में बल्कि पाक अधिकृत कश्मीर घाटी में भी विरोध रैलियाँ आयोजित की गयी थीं। यहाँ तक कि अब्दुल्ला के आह्वान पर लोगों ने कांग्रेसियों का सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया था। कुल मिलाकर केन्द्र सरकार ने कश्मीरी राज्य की लगभग वही स्थिति बना दी, जो अन्य राज्यों की थी। लेकिन अन्य राज्यों और कश्मीर के बीच फर्क यह था कि कश्मीरी जनता एक लंबे समय से अपनी आजादी के लिए संघर्षरत थी और इसे पाने के लिए वह आज भी छटपटा रही है। अब किसी को भी शक नहीं होना चाहिये कि भारत सरकार ने कश्मीरियों की आजादी की आकांक्षा का अपहरण कर बलात्कार किया है।

अमेरिका और पाकिस्तान द्वारा जनमत संग्रह पर जोर देने के कारणों से भारत की मुश्किलें और दबाव बढ़ रहा था। भारत सरकार ने शेख अब्दुल्ला पर बाहरी शक्तियों के हाथों खेलने का आरोप लगाते हुए शेख अब्दुल्ला को लम्बे समय तक के लिए जेल में भी डाल दिया। ध्यान देने योग्य है कि यह वही शेख अब्दुल्ला हैं जिन पर आजादी के समय और विलय के समय भारत के पक्ष में एक निर्णायक और महत्वपर्ण भूमिका अदा की थी। शेख अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षा भारत के आगे आ रही थी, ऐसे में कश्मीर को पूरी तरह तभी हड़पा जा सकता था जब शेख अब्दुल्ला को किनारे लगा दिया जाये और उनको किनारे लगा भी दिया गया। 1953 से 1968 तक तो शेख अब्दुल्ला अधिकांश समय जेल में ही रहे। उन्हें गिरफ्तार और रिहा करने का सिलसिला 15 वर्षों तक जारी रहा और 1971 में तो उन्हें कश्मीर राज्य से निष्कासित ही कर दिया गया था। शेख अब्दुल्ला को तभी पूर्ण रूप से रिहा किया गया, जब उन्होंने पूरी तरह दिल्ली की मातहती स्वीकार कर ली। इस दौरान केन्द्र की कठपुतली सरकारें ही कश्मीर में सत्ताशीन होती रहीं। इन कठपुतली सरकारों के माध्यम से केन्द्र सरकार ने वह सभी कुछ हासिल कर लिया, जिसको लेकर शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करना पड़ा। केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों से विलय के दस्तावेज की मूल भावना को अनेको नियम-कानूनों के द्वारा उनका गला घोंट दिया गया। इसे मात्र इस तथ्य से ही समझा जा सकता है, जिसके तहत 1956 में अपने कठपुतली नेताओं के माध्यम से राज्य की संविधान सभा द्वारा राज्य के लिए ऐसा संविधान स्वीकृत करा लिया गया जिसमें यह असंशोधनीय प्रावधान शामिल है कि कश्मीर राज्य भारतीय संघ का अविभाज्य हिस्सा है। इस संविधान को भारत सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इससे पहले अंतरिम संविधान 1951 में ही लागू हो गया था। इसी अंतराल में केन्द्र-राज्य संबंधों के मामले में अन्य बहुत से महत्वपूर्ण संविधान संशोधन किये गये जो कश्मीर राज्य पर केन्द्र सरकार के प्रभुत्व को स्थापित करने वाले थे। इन तमाम संशोधनों से गुजरते हुए अंततः शेख-इंदिरा समझौता (13 नवंबर 1974) संपन्न हुआ, जिसे कश्मीर समझौता कहा जाता है। इस समझौते के अनुसार कश्मीर प्रदेश को भारतीय संघ का हिस्सा मान लिया गया, जिस पर संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत शासन जारी रहेगा और जिसे कानून बनाने के वे सब अधिकार प्राप्त होंगे जो केन्द्र के अधिकारों से शेष बचेंगे। यह भी तय किया गया कि भारत सरकार राज्य पर 1953 के बाद लागू कुछ ऐसे केन्द्रीय कानूनों को संशोधित करने अथवा रद्द करने पर सहानुभूति से विचार करेगी, जिनका निर्णय राज्य विधानसभा करेगी। इस दौरान कश्मीरी जनता ने इसे बहुत अच्छी तरह से समझ लिया कि कश्मीर में वे ही सरकारें रह सकती हैं जो भारतीय शासक द्वारा संचालित हों।

शेख अब्दुल्ला और भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के बीच हस्ताक्षरित इंदिरा-शेख समझौते ने उन शर्तों को तय किया जिसके तहत शेख अब्दुल्ला कश्मीर की राजनीति में फिर से प्रवेश करेंगे। इसने अब्दुल्ला को 22 साल बाद फिर से जम्मू और कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने की अनुमति दी और राज्य में प्रतिस्पर्धी राजनीति को सक्षम बनाया। इस समझौते में कुल 5 शर्तें थीं-

1- जम्मू और कश्मीर राज्य, जो भारत संघ की एक घटक इकाई है, संघ के साथ अपने संबंध में, भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 द्वारा शासित होता रहेगा।

2- विधान की अवशिष्ट शक्तियाँ राज्य के पास रहेंगी; हालांकि, संसद के पास भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को अस्वीकार करने, सवाल करने या बाधित करने या भारत के क्षेत्र के एक हिस्से के अधिग्रहण या भारत के एक हिस्से को अलग करने की दिशा में निर्देशित गतिविधियों की रोकथाम से संबंधित कानून बनाने की शक्ति बनी रहेगी। संघ से भारत का क्षेत्र या भारतीय राष्ट्रीय ध्वज, भारतीय राष्ट्रगान और संविधान का अपमान करना।

3- जहां भारत के संविधान के किसी भी प्रावधान को अनुकूलन और संशोधन के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू किया गया था, ऐसे अनुकूलन और संशोधनों को अनुच्छेद 370 के तहत राष्ट्रपति के एक आदेश द्वारा बदला या निरस्त किया जा सकता है, इस संबंध में प्रत्येक व्यक्तिगत प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है। इसकी खूबियों पर; लेकिन भारत के संविधान के प्रावधान पहले से ही जम्मू और कश्मीर राज्य पर बिना अनुकूलन या संशोधन के लागू हैं, अपरिवर्तनीय हैं।

4- जम्मू और कश्मीर राज्य को राज्य में विशेष परिस्थितियों के अनुकूल तरीके से कल्याणकारी उपायों, सांस्कृतिक मामलों, सामाजिक सुरक्षा, व्यक्तिगत कानून और प्रक्रियात्मक कानूनों जैसे मामलों पर अपना कानून बनाने के लिए स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए, यह है सहमति व्यक्त की कि राज्य सरकार संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा कर सकती है या 1953 के बाद राज्य के लिए समवर्ती सूची से संबंधित किसी भी मामले पर विस्तार कर सकती है और यह तय कर सकती है कि उनमें से किसे, उसकी राय में, संशोधन या निरसन की आवश्यकता है। इसके बाद, भारत के संविधान के अनुच्छेद 254 के तहत उचित कदम उठाए जा सकते हैं। ऐसे विधान को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्रदान करने पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा। अनुच्छेद के खंड 2 के प्रावधान के तहत भविष्य में संसद द्वारा बनाए जाने वाले कानूनों के संबंध में भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाएगा।

5-अनुच्छेद 368 के तहत प्रदान की गई व्यवस्था के पारस्परिक रूप से, उस अनुच्छेद का एक उपयुक्त संशोधन जैसा कि राज्य पर लागू होता है, राष्ट्रपति के आदेश द्वारा इस आशय का किया जाना चाहिए कि जम्मू और कश्मीर राज्य के विधानमंडल द्वारा कोई भी कानून बनाने की मांग नहीं की जाए। जम्मू और कश्मीर राज्य के संविधान के किसी भी प्रावधान के प्रभाव में कोई भी परिवर्तन, जो नीचे उल्लिखित मामलों से संबंधित है, तब तक प्रभावी होगा जब तक कि राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयक को उसकी सहमति प्राप्त नहीं हो जाती है; मामले हैं ए) राज्यपाल की नियुक्ति, शक्तियां, कार्य, कर्तव्य, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां, और बी) चुनावों से संबंधित निम्नलिखित मामले, अर्थात्, भारत के चुनाव आयोग द्वारा चुनावों का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण।

इस समझौते पर शेख अब्दुल्ला की ओर से मिर्जा अफजल बेग द्वारा और भारत सरकार की ओर से (प्रधानमंत्री इन्द्रा गांधी के नेतृत्व में) जी. पार्थसारथी द्वारा 24 फरवरी 1975 को नई दिल्ली में हस्ताक्षर किए गए थे।

सुमंत्र बोस अपनी पुस्तक “कश्मीर: संघर्ष की जड़ें, शांति के रास्ते” में इस समझौते के बारे में बताते हैं कि मीरवाइज मौलवी फारूक की ओर से समझौते के लिए राज्य के भीतर विरोध प्रदर्शन हुए, जिन्होंने इसे कश्मीरी लोगों की आत्मनिर्णय की मांग के परित्याग के रूप में देखा। सुमंत्र बोस के साथ एक साक्षात्कार में, नेशनल कांफ्रेंस के एक वयोवृद्ध अब्दुल कय्यूम जरगर, जो मिर्जा अफजल बेग के निजी सचिव भी रह चुके हैं, ने कहा कि समझौते की शर्तें “गंभीर रूप से अलोकप्रिय” थीं और “एक कड़वी गोली के रूप में निगल ली गई” गोली केवल इसलिए कि अब्दुल्ला ने समझौते को स्वीकार कर लिया था। सुमंत्र बोस इसी पुस्तक में आगे बताते हैं कि दिल्ली ने अब्दुल्ला की वापसी को “वास्तविक समाधान” के बजाय कश्मीर संघर्ष की “चतुर चोरी”। शेख अब्दुल्ला के शासन में जम्मूकश्मीर की आवाम द्वारा समझौते का विरोध जारी रहा।

*शेष अगले भाग में…*

*अजय असुर*

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