सुधा सिंह
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_संसदमार्गी वामियों की नयी स्टार अब सुपरस्टार बनने के लिए सभी नीचतम और मूर्खतम सामाजिक जनवादियों और बुर्जुआ लिब्बुओं का भी दिल जीत लेना चाहती हैं !और क्यों न करें भला ? उनकी पार्टी भाकपा (मा-ले) लिबरेशन वैसे भी संशोधनवादी गटर-गंगा में उतरकर “पवित्र” हो जाने के मामले में भाकपा-माकपा के पुराने संसदीय जड़वामनों को मीलों पीछे छोड़ चुकी है !_
मैं बात कर रही हूँ भाकपा (मा-ले) लिबरेशन की पोलित ब्यूरो सदस्य, वक्तृत्व-वीरांगना, चुनावी समर की जनेवि-प्रशिक्षित दुर्द्धर्ष सेनानी, “कामरेड” देवि कविताकृष्णन जी की !
देवीजी इनदिनों बहुते खुश हैं ! खुशी डबल है I एक तो विनोद मिश्रा और आई.पी.एफ. के ज़माने से जारी तपस्या का फल मिलने जा रहा है और पूरे आसार हैं कि सिवान के “रोबिनहुड” शहाबुद्दीन की पार्टी को संघाती बना लेने से तेजस्वी और कन्हैया जैसों से गलबहियाँ डालकर बिहार में फासिज्म को धूल चटाने के बाद, अब बिहार में पहली बार सत्तासीन होकर “समाजवाद लाने” का मौक़ा मिलेगाI
ज्योतिबसु, बुद्धदेब भट्टाचार्य, राजेश्वर राव, इन्द्रजीत गुप्ता आदि वाला “समाजवाद” तो जनता ने थोड़े दिन बंगाल,त्रिपुरा में और कुछ दिन केंद्र में भी देख ही लिया था ! अब आयी है माले की बारी ! देखेंगे सभी बिहारी ! गोरख पाण्डेय ने व्यंग्य में लिखा था,”समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई !” विनोद मिश्रा से लेकर दीपंकर, रामजी राय, कविता कृष्णन आदि ने कार्यकर्ताओं और जनता को समझाया कि,”भक्क बुड़बक !
यह व्यंग्य नहीं है, यह तो पांडेजी ने रास्ता बताया है !” वैसे भी ज़माना ऐसा आ गया है कि जो कल तक व्यंग्य हुआ करता था, वह आज यथार्थ हो गया है, जो हास्य रस था वह करुण रस हो गया है और अगर कुछ जादुई यथार्थवाद की शैली में लिखने की कोशिश करो तो वह यथातथ्य आख्यानात्मक शैली में लिखा गया विवरण प्रतीत होने लगता है !
क्षुद्रताओं के “महाख्यानों”, आदर्शों और उसूलों के प्रहसनों और विदूषकों के नायकत्व के युग में ऐसा ही होता है !
हाँ, तो मैं बता रही थी कि देवि कविता कृष्णन की खुशी डबल क्यों है ! खुशी डबल होने का एक कारण अगर पटना में है तो दूसरा कारण वाशिंगटन में है ! महामना भूली नहीं हैं कि कम्युनिस्ट ‘इंटरनेशनलिस्ट’ होते हैं ! सो, “कामरेड” की इस ख़ुशी का स्रोत ‘इंटरनेशनल’ है ! “कामरेड” बहुते खुश हैं क्योंकि इधर जिसतरह उनकी पार्टी बिहार में फासिज्म को धूल चटा रही है, वैसे ही बाइडेन और कमला हैरिस के सेनापतित्व में अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी के “जुझारू जनवादी” लोग फ़ासिस्ट ट्रम्प का मानमर्दन कर रहे हैं !
उनका तर्क संशोधनवादियों का स्टैण्डर्ड तर्क है कि इससमय सबसे बड़ा काम सभी जनवादी शक्तियों के साथ मिलकर मोर्चा बनाकर फासिज्म को हराना है ! और ये जनवादी शक्तियाँ हैं भाजपा और उसके गठबंधन को छोड़कर, कांग्रेस सहित देश की सभी बुर्जुआ पार्टियाँ !
वही पार्टियाँ जो नवउदारवाद की प्रबल समर्थक हैं ! वही पार्टियाँ जिनमें से कोई कभी भी उछलकर भाजपा की गोद में जा बैठती है ! वही कांग्रेस जिसने दशकों निरंकुश दमनकारी सत्ता चलाई है, जिसने भारत में नव-उदारवाद का सूत्रपात किया और जिसकी ‘नरम केसरिया लाइन’ ने भाजपा के फ़ासिस्ट शासन के लिए देश में ज़मीन तैयार की !
और सबसे बड़ा राजनीतिक मजाक तो यह है कि इन संसदमार्गी बौने विदूषकों ने चुनावी संयुक्त मोर्चे को फासिज्म-विरोधी संयुक्त मोर्चे का पर्याय बना दिया ! इस बात पर तो ग्योर्गी दिमित्रोफ़ भी सिर पीट लेते ! ‘पॉपुलर फ्रंट’ की अवधारणा के तहत फासिज्म-विरोधी मोर्चा ज़मीनी संघर्ष का मोर्चा था ! लेकिन अपने हिसाब से लिल्ली घोड़े पर सवार गत्ते की तलवार लिए ये लाल कलंगी वाले “योद्धा” ठीक ही कर रहे हैं, क्योंकि इनका तो सारा “ज़मीनी संघर्ष” संसद और विधानसभाओं में ही होता है !
हम पहले भी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि 1930 के दशक की तरह आज कोई भी ऐसी बुर्जुआ जनवादी पार्टी नहीं है जो ज़मीनी संघर्ष में फासिज्म के ख़िलाफ़ उतर सके ! इसलिए आज के समय में वह लाइन ही प्रासंगिक है जो कोमिन्टर्न ने 1920 के दशक में दी थी, यानी, सभी मज़दूर-पक्षीय दलों, संगठनों और मंचों का ही फासिज्म-विरोधी संयुक्त मोर्चा संभव है जो मज़दूर वर्ग और सभी मेहनतकशों का आह्वान करेगा कि वे अपनी राजनीतिक दलीय सम्बद्धता से परे हटकर फासिज्म के विरुद्ध सन्नद्ध हों !
जाहिर है कि भारत के इन कथित लाल चोंच और लाल कलंगी वाले “सभ्य-सुशील” तोतों के कलेजे में इतना दम है ही नहीं, क्योंकि इन्होने मज़दूर वर्ग को न तो कोई राजनीतिक शिक्षा दी है, न ही उसे राजनीतिक संघर्षों के लिए तैयार किया है ! इन्होने मज़दूर वर्ग को लाल झंडे से ठगकर केवल आर्थिक लड़ाइयों में उलझाए रखा है और एक निष्क्रिय ‘वोट बैंक’ की तरह इस्तेमाल किया है !
ये भांड इस बात को लोगों को क्या बताएँगे कि कोमिन्टर्न से जुड़ी यूरोप की जितनी कम्युनिस्ट पार्टियाँ थीं, वे केवल बुर्जुआ जनवादियों के साथ संयुक्त मोर्चे के भरोसे बैठी नहीं थीं ! उन्होंने ‘फैक्ट्री-100’ जैसे मज़दूरों के लड़ाकू दस्ते संगठित करके सड़कों पर फासिस्टों से मोर्चा लिया था और मज़दूर इलाकों में सघन तैयारी करके फासिज्म-विरोधी व्यापक सर्वहारा जनाधार तैयार किया था !
इतिहास के इन तथ्यों को छिपाकर ये सभी चुनावबाज़ छद्म-वामी जो वैचारिक जालसाजी और ठगी कर रहे हैं, इसके लिए इतिहास इन्हें कभी नहीं माफ़ करेगा ! अपनी कायरता , सुविधा और यथास्थितिवाद की राजनीति को आगे बढाने के लिए ये जोकर जनता को एक छल भरा मिथ्या ‘शार्ट-कट’ बता रहे हैं और उसकी फासिज्म विरोधी चौकसी और तैयारियों को उलटे और अधिक ढीला कर रहे हैं !
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मध्यवर्ग के जितने उदारवादी-सुधारवादी, सुविधाभोगी, अपढ़-कुपढ़ गदहे बौद्धिक और सैद्धांतिक पढाई से दुश्मनी रखने वाले अनुभववादी “वामपंथी” कवि-लेखकादि हैं वे इन संसदीय जड़वामनों पर आज लहालोट हो रहे हैं, ‘मैं वारी जावाँ’ के नारे लगा रहे हैं !
तो अब आइये, देवि कविता कृष्णन के “अंतरराष्ट्रीयतावादी हर्षातिरेक” और उत्साह की “उच्छल तरंगों” के बारे में भी थोड़ी चर्चा कर ली जाए !
देवि के आह्लादोन्माद का कारण यह है कि उनके अनुसार फासिस्ट ट्रम्प को हराने का जो फौरी कार्यभार था, उसे बाइडेन के नेतृत्व और डेमोक्रेटिक पार्टी की अगुवाई में पूरा किया जा रहा है ! यह और अच्छी बात है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के बर्नी सैंडर्स जैसे सभी “प्रगतिशील” लोगों ने बाइडेन को जिताने में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी ! जो लोग इस “ऐतिहासिक जीत” पर खुश नहीं हैं, या इसे कोई बुनियादी बदलाव मानते ही नहीं, उनपर कुपित और उपहासपूर्ण दृष्टि डालते हुए देवि कविता कृष्णन एकदम बिंदास अंदाज़ में कह उठती हैं:”चल हट ! बोर मत कर यार !”
अब चलिए, थोड़ा सीरियस हो जाएँ ! कविता कृष्णन को फासिज्म की मार्क्सवादी समझ की ए-बी-सी-डी भी नहीं पता है ! बेहतर होता कि थोड़ा मार्क्सवाद की पढाई के लिए भी समय निकाल लिया करतीं ! तब शायद इतनी सस्ती-फूहड़ व्याख्याएँ नहीं करतीं ! हे देवि ! हर निरंकुश दमनकारी,और घोर से घोर दक्षिणपंथी शासक भी फासिस्ट नहीं हुआ करता, जैसे कि अपढ़-कुपढ़ लोग राह चलते किसी को फासिस्ट कह दिया करते हैं !
फासिज्म वित्तीय पूँजी की धुर-प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइंदगी करता है (आज के साम्राज्यवाद के समय में समूची वित्तीय पूँजी का चरित्र ही धुर-प्रतिक्रियावादी है), लेकिन फासिज्म की एक बुनियादी अभिलाक्षणिकता यह है कि वह एक कैडर-आधारित संगठन द्वारा तृणमूल स्तर से संगठित निम्न-बुर्जुआ वर्ग का धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है, जिसमें लम्पट सर्वहारा भी शामिल होते हैं !
केवल निरंकुश दमनकारी, या नस्लवादी, या धार्मिक कट्टरपंथी शासक होने या तानाशाह होने मात्र से किसी को फासिस्ट नहीं कहा जा सकता ! इतिहास में बुर्जुआ जनवाद से इतर केवल फासिज्म ही नहीं, बल्कि कई तरह के निरंकुश दमनकारी, और तानाशाही सत्ताओं का अस्तित्व रहा है !
अगर देवीजी ने मार्क्सवाद और इतिहास का अध्ययन किया होता तो उन्हें बोनापार्टवादी निरंकुशता या बिस्मार्कियन निरंकुश बुर्जुआ सत्ता के बारे में भी अवश्य जानकारी होती ! अमेरिकी नव-उपनिवेशों में जो निरंकुश मिलिटरी जुन्ताओं का तानाशाही शासन था, या अफ्रीका के जो जालिम तानाशाह थे, उन्हें फ़ासिस्ट नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके पीछे निम्न-बुर्जुआ वर्ग का कोई संगठित प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन नहीं था !
ऐसे आन्दोलन की ताक़त हिटलर और मुसोलिनी के पीछे थी, तोजो और फ्रांको के पीछे थी ! ख्रुश्चेव-ब्रेझनेव कालीन नकली सोवियत सत्ता के पीछे भी नए निम्न-बुर्जुआ वर्ग के ऐसे ही प्रतिक्रियावादी आन्दोलन की ताक़त थी, इसीलिये उन्हें ‘सोशल फासिस्ट’ कहना सर्वथा उचित था ! यही बात आज के चीन के ‘बाज़ार-समाजवाद’ के ध्वजवाहकों के बारे में भी कही जा सकती हैI
खुमैनी भी इन अर्थों में एक फासिस्ट था ! इसी पैमाने से कू-क्लक्स-क्लान, अल-कायदा, आई एस आई एस आदि को हम फासिस्ट संगठन कहते हैं I आर एस एस भी इसी तरह का एक फासिस्ट क्लासिकी संगठन है जिसने तृणमूल स्तर से निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा किया है जो भाजपा की बुनियादी ताक़त हैI
अब अमेरिका की बात करें ! ट्रम्प निश्चय ही एक घोर दक्षिणपंथी शासक था, नस्लवादी था, एफ्रो-अमेरिकन और आप्रवासी आबादी का घोर विरोधी और अंध-राष्ट्रवादी था, लेकिन उसे फासिस्ट नहीं कहा जा सकताI इसीतरह न तो बाइडेन को और उसकी डेमोक्रेटिक पार्टी को फासिस्ट-विरोधी बुर्जुआ जनवादी कहा जा सकता है.
अमेरिका का एक शताब्दी से भी अधिक लंबा इतिहास गवाह है, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियाँ समान रूप से साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी हैं I यूँ तो हर बुर्जुआ जनवाद के अंतर्गत सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं, लेकिन लेनिन ही नहीं बल्कि मार्क्स के जीवन-काल में भी उनकी यह भूमिका जितनी स्पष्ट और प्रत्यक्ष अमेरिका में रही है, उतनी शायद अन्य किसी भी बुर्जुआ जनवादी देश में नहीं रही हैइ
वहाँ सत्ता किसके हाथों में होगी, यह अमेरिकी थैलीशाह कॉरपोरेट बोर्ड रूम में बैठकर तय कर देते हैं ! समय की ज़रूरत से जब लगाम कुछ ढीली छोड़ने की ज़रूरत होती है तो डेमोक्रैट सत्ता में आते हैं और अर्थतंत्र की ज़रूरतें देश और दुनिया के स्तर पर जब लगाम खींचने की माँग करती हैं तो रिपब्लिकन सत्तासीन होते हैं I हालाँकि बुनियादी नीतियों में कोई फर्क नहीं होता.
डेमोक्रैट कुछ सुधारवादी जुमलेबाजी करते हैं और रिपब्लिकन्स अमेरिकी राष्ट्र के हितों की कुछ अधिक दुहाई देते हुए नव-उदारवादी जुमलेबाजी करते हैं I राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार वहा सिर्फ़ ‘कल्ट फिगर’ होते हैं और चुनावों में इस ‘कल्ट’ का खूब इस्तेमाल किया जाता है I रीगन, बुश और सबसे बढ़कर ट्रम्प ने, बड़बोलापन चाहे जितना किया हो, अपनी सारी गीदड़भभकियों को वे देश के भीतर अमली जामा कभी नहीं पहना सके क्योंकि उससे भारी जन-असंतोष भड़क सकता था.
उन्होंने उसी हद तक किया जिस हद तक अमेरिकी पूँजी की तत्कालीन ज़रूरत थी I जब श्रम-शक्ति को थोड़ी ढील देना और आप्रवासन-नीति को ढीला करने की ज़रूरत होती है तो प्रायः यह काम डेमोक्रैट करते हैंI लेकिन आप द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से लेकर अबतक के आंकड़े उठाकर देख लीजिये, डेमोक्रैट और रिपब्लिकन प्रशासन के अंतर्गत एफ्रो-अमेरिकन आबादी, लातिनी व अन्य आप्रवासियों और मज़दूर वर्ग के ऊपर होने वाले अत्याचारों में आपको ज्यादा अंतर नहीं दिखाई पड़ेगा !
और सबसे बड़ी बात साम्राज्यवादी नीतियों की है क्योंकि कोई कम्युनिस्ट भला इस बात को कैसे भूल सकता है कि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्यवादी देश है I कोरिया युद्ध, वियतनामी मुक्ति संघर्ष, नव-उपनिवेशों में मिलिटरी जुन्ताओं का शासन, ईरान, मध्य-पूर्व, शीतयुद्ध का दौर — इन सभी मामलों के डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों की नीतियाँ एक समान रही हैं !
बल्कि, अगर मात्रात्मक स्तर की बात करें तो यहूदी अमेरिकी पूँजीपति लॉबी के समर्थन-आधार के चलते डेमोक्रेट्स फिलिस्तीन की आज़ादी के ज्यादा कट्टर विरोधी और जायनवाद के ज्यादा कट्टर समर्थक रहे हैं I जो बर्नी सैंडर्स जैसे डेमोक्रेटिक पार्टी के कथित प्रगतिशील चेहरे हैं, इनकी भूमिका और घृणास्पद होती है I ये राष्ट्रपति पद का डेमोक्रैट उम्मीदवार बनने की दौड़ में उतरकर एफ्रो-अमेरिकन और गरीब श्वेत आबादी को आकृष्ट करते हैं और फिर उस दौड़ में पिछड़ जाने के बाद यह सारा वोट बैंक आधिकारिक डेमोक्रैट उम्मीदवार को ट्रान्सफर कर देते हैं !
भारत जैसे किसी पिछड़े गरीब देश में खुद को कम्युनिस्ट कहने वाली कोई पार्टी अगर दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी देश की दो प्रमुख बुर्जुआ पार्टियों में से एक को प्रगतिशील और दूसरे को प्रतिगामी बताती है; या ट्रम्प को फासिस्ट बताते हुए बाइडेन को “फासिस्ट-विरोधी” और बुर्जुआ जनवादी का तमगा दे देती है तो उसका “वामपंथ” न केवल हद दर्जे के बौद्धिक दिवालियेपन का शिकार है, बल्कि यह परले दर्जे का दक्षिणपंथी अवसरवाद है जो सड़े हुए गू की तरह इतना बास मारता है कि नाक फटने लगे !
लेकिन जो लिबरल और बुर्जुआ डेमोक्रैट नाकें होती हैं, उन्हें यह दुर्गन्ध मोगरे, जूही और हरसिंगार की खुशबू जैसी मदमस्त कर देती है ! अब इसका तो कुछ नहीं किया जा सकता ! जो संसदमार्गी वामी तेजस्वी यादव आदि-आदि के साथ चुनावी मोर्चा बनाकर हिन्दुत्ववादी फासिज्म को “धूल चटा” रहे हैं, वे अगर “फासिस्ट” ट्रम्प को मात देने वाले “बुर्जुआ जनवादी” “प्रगतिशील” बाइडेन पर फ़िदा होते हुए लहालोट हो रहे हैं तो इसमें भला आश्चर्य की क्या बात ? अच्छा ही है !
देवि कविता कृष्णन अपने संगठन की लाइन को उसकी तार्किक निष्पत्तियों तक पहुँचा रही हैं ! गजबे प्रतिभा है भाई ! महासचिव दीपांकरजी तो एकदम्मे गदगद हो गए होंगे कि उनकी मन की बात को भी कविता जी ने कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति दे दी !