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पतंग?

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शशिकांत गुप्ते

एहतियात बरतने की सलाह मानते हुए घर पर रहना उचित समझा। घर पर टाइमपास करने के लिए टी वी पर पुरानी फ़िल्म देख रहा था।
संक्रांति के पर्व पर स्नेहियों द्वारा शुभकामनाओं के संदेशों में तिल और गुड़ की मिठाई के साथ पतंग की फ़ोटो भी थी। पतंग को याद करते हुए। मैने सन 1960 में प्रदर्शित फ़िल्म पतंग देखी।
पतंग फ़िल्म का गाना सुनकर आज के लिए व्यंग्य का विषय मिल गया। इस गाने के गीतकार हैं, राजेन्द्र कृष्ण जी।
ये राजनीति की पतंग नित बदले ये रंग
सब अपनी उड़ाए ये जान न पाएं
कब किसकी चढ़े किसकी कट जाएं
ये किसको पता कब बदले हवा
और डोर इधर से उधर हट जाए
हो वो डोर या कमान या ज़मीन-आसमान
कोई जानने बनाने वाला कौन है
उड़े अकड़-अकड़ धनवालों की पतंग
सदा देखा है गरीब से ही पेंच लड़े

यह पंक्तियां मौजु है।
है गुरुर का हुजूर सर नीचा सदा
जो भी जितना उठाए इसे उतनी पड़े

निम्न पंक्तियां वर्तमान ‘राज’नीति पर एकदम प्रासंगिक एवं सटीक है।
ये राजनीति की रीत
बने किसी ना मीत
कोई चीज़ भी है प्रीत
नहीं इसको पता
ये झूठ की गुलाम
झूठ सुबह झूठ शाम
कभी भूल से ना करें
ये किसी का भला

आज राजनीति के दौर में महत्त्वपूर्ण संदेश इन पंक्तियों में है।
यहाँ मिलता है नेक
कोई लाखों में एक
पर उसे अपनाने वाला कौन है?
यह व्यंग्य है,कोई मन की बात नहीं है। सुना है जो मन ही मन में बात करता है। वह घुन्ना होता है।
मनुष्य ने खुलकर बातें करनी चाहिए। सच्चे व्यक्ति का चरित्र खुली क़िताब की तरह होना चाहिए।
अंत में प्रस्तुत है।प्रख्यात शायर स्व.राहत इंदौरी के शेर जो प्रांसगिक हैं।
ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

आमजन को स्वावलंबी बनना चाहिए। झूठे आश्वासनों पर अवलंबित नहीं होना चाहिए। कोई भी निर्णय स्वविवेक से लेना चाहिए। यही सबक है राहत इंदौरीजी के निम्न शेर है।
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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