संघमित्रा शील आचार्य,
प्रोफेसर, जेएनयू
करीब एक साल पहले 22 मार्च, 2020 को कोरोना वायरस के प्रसार को थामने की पहली कोशिश के रूप में हमने ‘स्वेच्छा से जनता कफ्र्यू’ का पालन किया था। इससे लगभग दो महीने पहले 30 जनवरी को ही अपने यहां इस वायरस का पहला मरीज मिल चुका था। जनता कफ्र्यू के बाद हमने ‘ताली व थाली’ बजाए और ‘दीये’ जलाए। फिर भी, वायरस अपनी गति आगे बढ़ता रहा। नतीजतन, 24 मार्च को केंद्र सरकार ने 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा की। उस वक्त देश में कोविड-19 मरीजों की संख्या 500 के करीब थी। 21 दिनों की उस पूर्ण बंदी का क्या गणित था, यह तो अब भी रहस्य है। मगर वायरस के प्रसार में जो तेजी आई, वह आश्चर्यजनक थी, क्योंकि महज नौ हफ्ते पहले देश में कोरोना के बमुश्किल एकाध मामले थे। परिणामस्वरूप, कोविड-19 प्रभावित इलाकों में कई तरह के प्रतिबंध आयद कर दिए गए।
अप्रैल के पहले सप्ताह में जहां छह दिन में पॉजिटिव मामले दोगुने हो रहे थे, वे तीसरे हफ्ते में बढ़कर आठ दिन हो गए। यह सकारात्मक रुझान था, जिसके कारण विशेषज्ञों ने लॉकडाउन बढ़ाने का सुझाव दिया था। मगर दूसरी तरफ, जिन 16 सबसे अधिक संक्रमित देशों में कम से कम तीन हफ्तों का लॉकडाउन लगाया गया था, उनमें जर्मनी, फ्रांस, इटली जैसे ज्यादातर यूरोपीय देशों के बाद भारत सातवें स्थान पर था।
लॉकडाउन का सबसे ज्यादा फायदा केरल ने उठाया। वहां मरीजों के बढ़ने की रोजाना की दर 6.8 प्रतिशत थी, जबकि तमिलनाडु में 23.1 प्रतिशत। दिल्ली, आंध्र व जम्मू-कश्मीर में भी 20 फीसदी से अधिक की दर से रोज नए मामले सामने आ रहे थे। अत: लॉकडाउन को लगातार बढ़ाया जाता रहा। पहले 14 अप्रैल तक, फिर 3 मई तक, फिर 17 मई तक, फिर 31 मई तक यह बढ़ाया जाता रहा। सरकार ने यह भी कहा कि चरणबद्ध तरीके से इसे हटाया जाएगा, लेकिन कंटेनमेंट जोन में 30 जून तक लॉकडाउन बना रहा। 8 जून से अनलॉक की चरणबद्ध प्रक्रिया शुरू हुई, जो अब भी जारी है।
राज्य मशीनरी बेशक अपनी पीठ थपथपाए कि उन्होंने कोरोना के खिलाफ एक ‘अच्छी योजना’ बनाई थी, मगर सच्चाई कुछ अलग है। लॉकडाउन का जैसे-जैसे विस्तार हुआ, वह और अधिक सख्त होता गया। बाद के महीनों में तो मास्क न पहनने पर 2,000 रुपये तक के जुर्माने की व्यवस्था की गई। इस तरह के जुर्माने ने जाहिर तौर पर राज्य के खजाने को बढ़ाने का काम किया। यह समझना होगा कि यदि देखभाल करने के बजाय सरकारों की नीयत सजा देने की हो, तो संक्रमण के वास्तविक मामलों की जानकारी नहीं मिल पाती। लोग बीमारी को छिपाने का प्रयास करते हैं। यही वजह है कि हॉटस्पॉट पर संक्रमण का प्रसार न होने और नए हॉटस्पॉट न बनने की सूरत में 20 अप्रैल, 2020 से लॉकडाउन में छूट देने का एलान कारगर नहीं रहा। खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उस दिन देश भर में संक्रमित मरीजों की संख्या 17,890 थी, जिनमें से 1,500 मरीज (8.5 प्रतिशत) कोरोना की जंग जीत चुके थे और 587 मरीज (3.3 प्रतिशत) बचाए नहीं जा सके थे, जबकि 14 अप्रैल तक मृत्यु-दर महज 0.3 प्रतिशत थी। आम लोगों में जहां इस बीमारी के ‘सामाजिक कलंक’ को लेकर डर व संशय था, वहीं स्वास्थ्यकर्मियों की अलग चिंता थी। दिल्ली के अस्पतालों में कोविड वार्डों में सेवारत स्वास्थ्यकर्मियों की पिटाई और केरल में एअर इंडिया के पायलटों को मकान मालिकों द्वारा घर खाली करने के लिए मिल रही नोटिस खबरों में रहीं। राज्यसभा में पिछले दिनों बेशक सरकार ने माना कि 22 जनवरी, 2021 तक 162 डॉक्टर सहित 313 स्वास्थ्यकर्मी कोरोना की भेंट चढ़ चुके हैं, लेकिन अक्तूबर, 2020 में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने कहा था कि कम से कम 515 डॉक्टर कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं। परिजनों की सुरक्षा के लिए स्वास्थ्यकर्मी अपने घरों से भी दूर रहे। यहां तक कि नवजात और छोटे बच्चों को छोड़कर भी डॉक्टरों ने देश की सेवा की। इन दिनों मातृ और बाल स्वास्थ्य केंद्रों सहित अन्य आवश्यक सेवाएं कमोबेश बंद रहीं, जिसका प्रतिकूल असर पड़ा और लॉकडाउन के दौरान ‘होम डिलिवरी’ में खासा वृद्धि हुई। माताओं व बच्चों के नियमित टीकाकरण भी छूट गए, जिसके भयावह नतीजे आने वाले दिनों में दिख सकते हैं।
बाद के महीनों में जांच में तेजी आई, तो प्लाज्मा थेरेपी को इलाज के विकल्प के रूप में भी अपनाया गया। इन सबके बीच कई देशों में वैक्सीन का परीक्षण चलता रहा, जिसमें भारत भी शामिल था। सुखद रहा कि 2020 के बीतते-बीतते अपने यहां भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट के टीकों के जरिए महामारी का तोड़ आ गया। अब तो ऐसी वैक्सीन आने की संभावना है, जो स्प्रे के जरिए नाक में दी जाएगी। इसके ज्यादा असरदार होने की संभावना है। वाशिंगटन स्कूल ऑफ मेडिसिन के साथ भारत बायोटेक इस वैक्सीन पर काम कर रहा है, जिसके नतीजों के लिए फिलहाल हमें इंतजार करना होगा। यदि हम घातांक नियम के मुताबिक भारत में 50 पुष्ट संक्रमित मामलों के बाद कोरोना की वृद्धि दर देखें, तो 10 मार्च, 2020 को देश में 58 कोविड मरीज थे, जिसे दोगुने होने में महज चार दिन लगे। 20 मार्च को यह आंकड़ा 258 पर पहुंच गया। फिर अगले दो दिन में ही दोगुना हो गया। तब से कोरोना मरीजों की संख्या दो से आठ दिनों के भीतर दोगुनी होती रही है। पर संक्रमण की यह गति नहीं होती है। जब संक्रमित मरीजों की संख्या बढ़ती है, तो संक्रमण दर में कमी आ जाती है और बीमारी का अंत हो जाता है। कोरोना वायरस को लेकर भी यही अनुमान लगाया गया था कि जब देश की 70 फीसदी आबादी इससे संक्रमित हो जाएगी, तो इसका प्रसार खुद-ब-खुद रुक जाएगा। मगर अब आधे से अधिक भारतीयों ने इसके खिलाफ एंटीबॉडी विकसित कर ली है और टीका 81 फीसदी तक प्रभावशाली है, तो फिर दोबारा लॉकडाउन की जरूरत कैसे आ पड़ी? स्पष्ट है, जो चीज आज भी प्रासंगिक है, वह है भ्रम को दूर करना। यह टीकाकरण अभियान की सफलता के लिए भी जरूरी है और महामारी के अंत के लिए भी।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)