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मजदूर हड़ताल का संदेश : एक धक्का और दो

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 राजेंद्र शर्मा

 देश भर में करोड़ों मजदूरों की दो दिन की हड़ताल और उसके साथ-साथ देश के बड़े हिस्से में किसानों तथा खेत मजदूरों के ग्रामीण बंद के प्रति मोदी सरकार के लगभग पूरी तरह से अनदेखा ही करने की मुद्रा अपनाने की वजह समझना जरा भी मुश्किल नहीं है। देश के शहरी और ग्रामीण मेहनतकशों की इस सबसे बड़ी विरोध कार्रवाई के प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों ही तरह के संदेशों से मोदी सरकार, क्रिकेट की भाषा में कहें तो डॅक कर के यानी गैंद के सामने से हटकर, बचना चाहती है। जाहिर है कि इस देशव्यापी कार्रवाई के प्रत्यक्ष संदेश का सबसे प्रमुख पहलू तो इसकी मांगों के रूप में ही सामने आ रहा था। यह गौरतलब है कि मजदूरों तथा कर्मचारियों के सबसे बड़े तथा एकजुट मोर्चे की दो दिन की देशव्यापी हड़ताल में, जिसमें संघ परिवार के मजदूर संगठन केे अलावा देश के लगभग सभी ट्रेड यूनियन केंद्र व संगठन एकजुट थे, मजदूरों की मजदूरी आदि की कोई फौरी मांग केंद्र में नहीं थी। इसके बजाय, यह हड़ताल मुख्य रूप से मोदी सरकार की मजदूरविरोधी तथा जनविरोधी नीतियों के खिलाफ थी और ”देश को बचाने” के नारे इसके केंद्र में थे।
हां! मजदूरों के पहले ही बहुत सीमित अधिकारों को तथा उन्हें हासिल बहुत ही अपर्याप्त सुरक्षाओं को भी छीनने के लिए, बिना किसी वास्तविक चर्चा के ही कोविड आपदा के दौरान संसद से धक्काशाही से पारित कराए गए चार श्रम कोडों के निरस्त किए जाने की मांग, इस कार्रवाई की एक महत्वपूर्ण मांग थी। और ऐसी ही महत्वपूर्ण मांग, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की बिक्री तथा उनके निजीकरण और सार्वजनिक सेवाओं की कीमत पर निजी धनपतियों के मुनाफों को आगे बढ़ाने की मुहिम को रोके जाने की थी। अचरज नहीं कि देश भर में औद्योगिक केंद्रों में लगभग मुकम्मल हड़ताल तथा देश के अनेक हिस्सों में परिवहन से लेकर बाजार, दफ्तर, कारोबारी प्रतिष्ठान बंद होने से बंद की-सी स्थिति बनने के साथ ही साथ, वाइजैग इस्पात संंयंत्र जैसे बिक्री के लिए बाजार में रखे गए कारखानों व उद्यमों के साथ ही साथ, देश के सार्वजनिक वित्त क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी सार्वजनिक बैंकों तथा बीमा संस्थाओं में भी कर्मचारियों ने मुकम्मल हड़ताल की। वे इन संस्थाओं में विभिन्न रूपों में निजी मिल्कियत को बढ़ाए जाने के जरिए, इस सार्वजनिक वित्तीय ढांचे के सार्वजनिक तथा इसलिए राष्ट्रीय चरित्र व भूमिका को ही कमजोर किए जाने के खिलाफ लड़ रहे हैं।
दूसरी ओर, ग्रामीण बंद तथा अन्य विरोध कार्रवाइयों के जरिए, देश के किसान तथा खेत मजदूर, न सिर्फ देश को बचाने की देश के मजदूरों-कर्मचारियों की इस ऐतिहासिक कार्रवाई के साथ अपनी एकजुटता प्रकट कर रहे थे बल्कि खेती-किसानी को बचाने के जरिए, देश को बचाने के देहात के एजेंडा को जोरदार तरीके से रख रहे थे। अचरज की बात नहीं है कि इसके पीछे न सिर्फ एक साल से ज्यादा चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन से उपजा आत्मविश्वास था, जिसने मोदी सरकार को तीन किसान विरोधी, कार्पोरेटपरस्त कृषि कानून वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया था, बल्कि इसके पीछे इसका संकल्प भी था कि चूंकि मोदी सरकार ऐतिहासिक किसान आंदोलन की वापसी के समय किए गए अपने वादे पूरे करने में टाल-मटोल कर रही है, किसान फिर से आंदोलनात्मक कार्रवाइयों के लिए तैयार हैं। सिर्फ अपनी तबकाती फौरी आर्थिक मांगों के लिए नहीं, बल्कि मौजूदा सरकार की मजदूर-किसान विरोधी और देश विरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ने की यह बढ़ती चेतना भी और मजदूर-किसान एकता के रूप में उसकी बढ़ती तैयारी भी, ऐसा बाउंसर है, जिसके संदेश से बचाव में ही मोदी सरकार को बचाव दिखाई दे रहा है। आखिरकार यही वह मोर्चा है, जिसके सामने सांप्रदायिक विभाजन के संघ-भाजपा के हथियार भोंथरे पड़ जाते हैं।
शहरी व ग्रामीण मेहनतकशों की इस जबर्दस्त विरोध कार्रवाई का परोक्ष संदेश भी मोदी सरकार के लिए कम मुश्किल पैदा करने वाला नहीं है। यह संदेश, हाल के पांच राज्यों के विधानसभाई चुनावों में, चार राज्यों में अपनी सरकार बनाए रखने में कामयाबी के सहारे, नये सिरे से तथा बढ़े हुए जोर-शोर से, ‘मोदी की अजेयता’ का आख्यान, बल्कि मिथक गढ़ने की संघ-भाजपा की मुहिम में गंभीरता से खलल डालता है। 10 मार्च को चुनावी नतीजे आते ही और खासतौर पर उतर प्रदेश में भाजपा के दोबारा सत्ता में आने का फैसला होते ही, प्रधानमंत्री मोदी ने खुद इसका ऐलान करने में जरा सी देरी नहीं लगाई कि भाजपा की इस जीत ने, 2024 के चुनाव में उनकी तीसरी जीत पक्की कर दी है! कहने की जरूरत नहीं है कि 2024 के चुनाव में जीत पक्की होने की धारणा बनाने का यह खेल, मीडिया पर अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के सहारे, यही धारणा बनाने के सहारे खेला जाना है कि इस चुनाव में मोदी की भाजपा को आम जनता का और खासतौर पर गरीबों का, जिनमें शहरी व ग्रामीण गरीब दोनों ही शामिल हैं, जबर्दस्त समर्थन मिला है, जो भाजपा से भी बढ़कर मोदी को अजेय बना देता है।
लेकिन, देश में भर में करोड़ों शहरी व ग्रामीण मेहनतकशों का मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरना, खासतौर पर आम जनता व गरीबों के मोदी राज में बहुत संतुष्ट होने के उनके आख्यान पर गंभीर सवाल खड़े कर देता है। ये सवाल इस तथ्य से और भी गंभीर हो जाते हैं कि यह एक बार होकर खत्म हो जाने वाली विरोध कार्रवाई का नहीं, बल्कि सरकार की देश विरोधी नीतियों के खिलाफ मेहनतकशों की बढ़ती लड़ाई का मामला है। मजदूर हड़ताल के बाद, अगले महीने के पहले पखवाड़े में संयुक्त किसान मोर्चा ने हफ्ते भर के अभियान का पहले ही ऐलान भी कर दिया है। यानी यह लड़ाई आगे भी न सिर्फ जारी रहने जा रही है, बल्कि और तेज होने जा रही है। जाहिर है कि ये 2024 के चुनाव में मोदी की जीत पक्की होने के लक्षण तो नहीं ही हैं।
दरअसल, 2022 के चुनाव से 2024 में मोदी की जीत पक्की हो जाने का चौतरफा प्रचार ही, खरीदे हुए चुनाव सर्वेक्षणों की तरह, ऐसा होने के लिए माहौल बनाने का एक बड़ा साधन है। वर्ना 2022 के विधानसभाई चुनाव को भी, मोदी की भाजपा के राज और उसकी नीतियों का जनता द्वारा अनुमोदन कहना, काफी अतिरंजनापूर्ण है। बेशक, इस चुनाव में भाजपा, अपनी चार की चार सरकारें बचाने में कामयाब हुई है, लेकिन उसकी कामयाबी इतनी ही है, न इससे कम न ज्यादा। गोवा तथा मणिपुर में, जहां भाजपा ने पिछले चुनाव में कांग्रेस से साफ तौर पर पिछड़ने के बाद भी, खरीद-फरोख्त कर के सरकारें बनाई थीं, बेशक इस बार भाजपा को कांग्र्रेस से काफी ज्यादा सीटें मिली हैं तथा करीब बहुमत ही मिल गया है।
लेकिन यह इन दोनों राज्यों में भाजपा के विरोधी वोटों के भारी विभाजन का ही नतीजा था। खासतौर पर गोवा में भाजपा की जीत का श्रेय नयी स्थानीय पार्टी गोवा रिवोल्यूशनरी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और आप पार्टी के विपक्षी वोट बांटने को ही जाता है। दूसरी ओर, अगर उत्तराखंड में भाजपा के बहुमत बचाए रखने के बावजूद, उसकी सीटों व मत फीसद में 2017 के मुकाबले भारी कमी हुई है, जिसे कम से कम जनता द्वारा अनुमोदन किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता है, तो उत्तर प्रदेश में तीन दशक से ज्यादा में पहली बार निवर्तमान मुख्यमंत्री के दोबारा पद पर आने की ‘जबर्दस्त जीत’ के पीछे, भाजपा तथा उसके सहयोगियों की सीटों में 50 से ज्यादा की गिरावट भी छुपी हुई है। और यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हो जाता है। इस चुनाव में भाजपा को बेशक, 41.3 फीसद वोट मिले हैं और यह 2017 के उसके वोट में 2 फीसद से कुछ कम की बढ़ोतरी को भी दिखाता है। सहयोगियों के वोट को जोड़ दिया जाए तो इस चुनाव में भाजपा के मोर्चे के वोट 43.8 फीसद हो जाते हैं।
लेकिन, इस सिलसिले में याद रखने की एक बात तो यही है कि 2019 के आम चुनाव में भाजपा तथा सहयोगियों को मिले 51 फीसद के करीब वोट के मुकाबले, यह 7 फीसद से ज्यादा की कमी को भी दिखाता है। दूसरे, सपा के 32.1 फीसद तथा रालोद के 2.85 फीसद के साथ अन्य सहयोगियों का वोट जोड़कर, सपा के मोर्चे का वोट 36.3 फीसद हो जाता है। यानी दोनों मोर्चों में 7.5 फीसद का अंतर रहा है। दूसरी ओर इसी चुनाव में बसपा को 12.9 फीसद और कांग्रेस को 2.33 फीसद वोट मिले हैं।
यानी इस चुनाव में सपा और बसपा का पिछले आम चुनाव की तरह एकजुट होना, आसानी से चुनाव नतीजे को पलट सकता था। वास्तव में प्रणंजय गुहा ठाकुर्ता व अन्य का उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों का सीटवार कुछ विस्तृत अध्ययन यह दिखाता है कि, ‘ऐसी बहुत सारी सीटें हैं जहां भाजपा के विजयी उम्मीदवार और दूसरे नंबर पर रहे सपा गठबंधन के उम्मीदवार के बीच मतों का जो अंतर है, उससे अधिक वोट बसपा के उम्मीदवार या कांग्रेस या आईएमएम के उम्मीदवार को मिले हैं। इससे पता चलता है कि सरकार विरोधी मतों के बिखराव ने भाजपा की एक बार फिर देश के सबसे बड़े प्रदेश में अपनी सरकार बनाने में मदद की।’ 11 सीटें भाजपा ने 500 से कम वोट से जीती हैं। 7 सीटों पर भाजपा की जीत के अंतर से ज्यादा वोट ओवैसी की एआईएमआईएम को मिले हैं।
कुल 53 सीटें भाजपा और उसके सहयोगियों ने 5000 से कम वोट के अंतर से जीती हैं, जहां विपक्षी वोट का एकजुट होना, चुनाव के नतीजे को बदलने के लिए काफी था। मोदी पलटन को इस सच्चाई का बखूबी पता है, इसीलिए अभूतपूर्व जीत और गरीबों के अनुमोदन के भारी प्रचार के तले, इस जीत के रेत के पांवों को छुपाने की अतिरिक्त कोशिश की जा रही है। मजदूरों की दो दिन की देशव्यापी हड़ताल और किसानों-खेत मजदूरों के ग्रामीण बंद ने, मोदी राज की इस हकीकत को एक बार फिर उजागर कर दिया है। हां! यह तो वक्त ही बताएगा कि क्या विपक्ष, संघ-भाजपा की इस कमजोरी को पहचान रहा है और उसे अपने विभाजन से फायदा उठाने से रोकेगा?
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और “लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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