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*सात दशक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में परिपक्वता का अभाव*

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           *-निर्मल सिरोहिया* 

आज़ादी के सात दशक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में परिपक्वता का अभाव झलक रहा है। लोकतंत्र के संरक्षक आमजन के प्रतिनिधि अपने अमर्यादित आचरण से बार-बार यह साबित भी कर रहे हैं। गुरुवार सुबह संसद परिसर में सांसदों के बीच हुई धक्का-मुक्की में दो सांसदों का घायल होना और एक महिला सांसद का नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के व्यवहार पर सवाल उठाना, नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में कटुता का स्तर इतना नीचे गिर गया है, तो यह समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसके नुमाइंदों के लिए बेहद शर्मनाक है।

संसद परिसर में सुबह घटे घटनाक्रम के बाद इस मुद्दे को बातचीत से  सुलझाने की बजाय एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और और संख्या बल के आधार पर शक्ति प्रदर्शन की बात करना और भी चिंतनीय है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि यह मामला विधायिका के प्रमुख की बजाय पुलिस थाने तक पहुंच गया। यह निश्चित ही सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के नेताओं की हठधर्मिता को दर्शाता है

। क्या संभव नहीं था कि घटना के वक्त ही दोनों पक्षों के वरिष्ठ नेता एक-दूसरे से मिलकर संवाद के जरिए इस मुद्दे को वहीं सुलझा लेते अथवा नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी कथित धक्का-मुक्की के शिकार हुए सांसदों, जो कि उम्र में भी उनसे काफी बड़े हैं, से मिलकर क्षमा प्रार्थना कर लेते तो उनका कद छोटा नहीं हो जाता। उन्होंने ऐसा न कर एक बार फिर अपने अहमी होने और राजशाही परिवार के सदस्य होने के आरोपों को पुनर्स्थापित किया। सत्ता पक्ष ने भी राजनीतिक लाभ-हानि के चश्मे का उपयोग कर, इस घटनाक्रम को उसी नजरिये से देखा। कुल मिलाकर संसद परिसर में घटित घटनाक्रम  राजनीति के गिरते स्तर का परिचायक होने के साथ काफी पीड़ादायक है। ऐसे में सभी दलों को इस पर और राजनीति करने की बजाय एक-दूसरे के साथ मिल-बैठकर संवाद के जरिए सर्वप्रिय हल निकालना चाहिए, ताकि संविधान के अमृत महोत्सव की सार्थकता सिद्ध हो सके।

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