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बिना विचारे….जग में होत हंसाय

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शशिकांत गुप्ते

गुलशन को गुलजार करने गए थे।
दुर्भाग्य से निम्न कहावत चरितार्थ हो गई।
चौबेजी छब्बेजी बनने गए थे,दुबे बन के लौट आए
इसी तारतम्य में प्रख्यात कवि,शायर दुष्यन्त कुमार के इस शेर का भी स्मरण होता है।
कौन कहता है आसमाँ में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों

यह शेर आत्मबल की सशक्त बनाने के लिए उपदेशक है।
यदि कोई नादान इसका शब्दशः अर्थ निकाल कर पत्थर उछाल दे,तो पत्थर सिर भी गिर सकता है।इसतरह का प्रयास चमन को महकाने के लिए किया गया।
चमन में अमन लाने बहाने,पहले चमन को वीरान कर दिया।
नतीजा फ़िल्म की इन पंक्तियों के भावार्थ को प्रकट कर रहा है।
सन 1971 में प्रदर्शित फ़िल्म मर्यादा के गीत ये पंक्तियां हैं।इस गीत के गीतकार है, आंनद बक्षी
उदास रात है वीरान दिल की महफ़िल है
न हमसफ़र है कोई और न कोई मंज़िल है
ये ज़िंदगी मुझे लेकर कहाँ चली आई
ज़ुबाँ पे दर्द भरी दास्ताँ चली आई
बहार आने से पहले खिंजा चली आई

सन्नाटा पसार कर चमन में अमन की बात करना मतलब स्वयं के द्वारा स्वयं को ही धोखा देने जैसा है।
सिर्फ शारीरिक (Physically strong) मजबूत होना पर्याप्त नहीं होता है।मानसिक रुप ( Mentally) से भी मजबूत( strong) होना अनिवार्य है।यदि ऐसा नहीं होतो निर्णय ग़लत (Wrong) होने की ही सम्भवना होती है।
अब गुलशन की कलियां और महकते गुल जो मुरझाने लगें हैं।अपनी दास्तां यूँ बयाँ करतें हैं।
किसी शायर ने क्या खूब कहा है:-
मुख्तसर सी दिल्लगी से तो बेरुखी अच्छी थी
कम से कम जिंदा तो एक कश्म के कश के साथ
मुख्तसर=संक्षिप्त कश्म कश=असमजंस।
अब वहाँ के हालातों की खबरें पढ़,सुन,देख कर निम्न पंक्तियों को गुनगुना का मन करता है।
यह पंक्तियां सन 1949 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल्लगी के गीत है।इसे लिखा है प्रख्यात शायर शक़ील बदायूंनी
क्या खबर थी उन का दामन हाथ से छूट जायेगा
ग़म के हाथों ज़िन्दगी का कारवां लुट जायेगा
दिल लगा कर ग़म उठाये क्या अनोखी बात है
चार दिन की चाँदनी थी फिर अँधेरी रात है

मानव का मानसिक भ्रम ही तो अहंकार है।अहंकार के भ्रम में मानव गलतफहमी का शिकार हो जाता है।उसे सावन के अंधे की तरह हरा हरा ही दिखने लगता है।इसी भ्रम से ग्रस्त मानव के निर्णय गलत होने की पूर्ण सम्भवना होती है।
इसी भ्रम को सुधारने के लिए गिरधर कवि रचित निम्न पंक्तियां प्रासंगिक हैं।
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे

भ्रमवश निर्णय लेने वालें को अपने जेहन में खटक रहा है या नहीं यह खोज का विषय है।
घाटी के लिए उक्त निर्णय घाटे ही रहा है।घाटा मतलब नुकसान और हानि।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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