*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*
हम तो पहले ही कहते थे। मोदी जी की याददाश्त इतनी खराब थोड़े ही है कि हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा करने के बाद भूल गए होंगे। मोदी जी अब अगर नौकरियों की बात नहीं करते हैं और कभी-कभार नौकरी की बात करते भी हैं, तो कुछ हजार नौकरियों के लिए अपोइंटमेंट लेटर वितरण के समारोह आगे भी कराए जाने की ही बात करते हैं, तो जरूर कोई वजह होगी। और छोटी-मोटी नहीं, बड़ी वाली वजह होगी। और बड़ी वाली भी कोई कोविड-वोविड टाइप की नहीं, महान टाइप की, भारत का गौरव बढ़ाने वाली वजह होगी। और सच पूछिए, तो इस वजह के लिए इशारे भी मोदी जी काफी समय से कर रहे थे। कभी पकौड़ा तलना भी रोजगार है, का ज्ञान देकर, तो कभी नौजवानों को नौकरी लेने वाला नहीं, देने वाला बनने के लिए उद्बोधन कर के। और कभी सिंपली नाला गैस के उपयोग का रास्ता दिखाकर। मोदी जी ने क्या बार-बार इसके इशारे नहीं किए थे कि नौकरी लेेने-देने का वक्त अब गया। पर हमारी ही नासमझी थी कि हमने इशारों की बात समझ कर ही नहीं दी। आखिरकार, मोदी जी को ही मुंह खोलकर कहना पड़ा कि उनकी सरकार से अब कोई नौकरी नहीं मांगे। नौकरी जैसी छोटी चीज अब उनकी सरकार न देगी और न दिलाएगी। बहुत घिस लिया नौकरी का सिक्का, अब चवन्नी-अठन्नी की तरह नौकरी का सिक्का भी चलन से बाहर। माने होने को तो दो हजार के नोट की तरह, एलानिया चलन से बाहर नहीं होगा, पर बाजार में चलेगा भी नहीं। हां! जमा करने के शौक के लिए कोई चाहे, तो अपने पास रखे भी रह सकता है; रखने पर कोई केस-वेस नहीं होगा।
वो तो अच्छा हुआ कि दिल्ली विश्वविद्धयालय के शताब्दी समारोहों का पर्दा गिराने का बुलावा मोदी जी ने मंजूर कर दिया और अपनापन साबित करने के लिए, खुलासा कर के सब एक साथ बताने का मन बना लिया, वर्ना न जाने और कब तक युवा अंध-नौकरीपूजा में ही फंसे रहते। और चुनाव के टैम में मोदी जी के लिए नौकरी कहां है, नौकरी कहां है, कर के सिरदर्द खड़ा करते, सो अलग। खैर! अब सब साफ हो चुका है। नौकरी लेने-देने के दिन तो कब के पीछे छूट चुके हैं, अच्छे दिनों से पहले वाले दिनों की तरह। वास्तव में नौकरी-नौकरी कर के इस महान देश को और महान बनने की पटरी से उतारने का खेल अब बंद होना चाहिए। नौकरी की बात ही छोटी सोच से निकली थी। वो नेहरू-गांधी का पुराना भारत था; वो पुराने भारत की एंबीशन थी, छोटी और मामूली। मोदी जी के देश की एंबीशन अब बहुत ऊंची है। इस महान देश का युवा अब नौकरी-वौकरी जैसा छोटा काम करेगा ही क्यों? वो तो स्टार्टअप करेगा। यूनीकॉर्न बनाएगा। पेटेंट लेगा। और अमरीका के साथ मोदी जी ने पिछले ही दिनों जो समझौता किया है, उसके बाद तो अंतरिक्ष से लेकर और न जाने कहां-कहां जाएगा। और न जाने कहां-कहां काम करेगा। नौकरी की पुराने भारत वाली छोटी मांग की याद दिलाकर, नये इंडिया की अमृत-महत्वाकांक्षा को अपमानित करने वालों को, नये इंडिया की युवा पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी!
वैसे यह भारत के युवाओं की खुशकिस्मती है कि मोदी जी दिल्ली विश्वविद्यालय को इतने अपनापे से देखते हैं। विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह शुरू होते ही उन्होंने वचन दे दिया था कि इन समारोहों का पर्दा मैं ही गिराऊंगा। और पर्दा भी किस शान से गिराया। विश्वविद्यालय के आम छात्रों की तरह मैट्रो में सवार होकर विश्वविद्यालय पहुंचे। प्रायोजित ही सही, आम युवाओं से मैट्रो में बतियाए। फिर विश्वविद्यालय पहुंचकर, आम युवाओं से अपनी इस बतियावन के बारे में, अपने भाषण में सब को बतलाए। और अपना भाषण उपस्थित ही नहीं, अनुपस्थित छात्रों-शिक्षकों सब को, मन की बात के सौवें एपीसोड की तरह, कंपल्सरी कर के सुनवाए भी, जिससे किसी से मिस न हो जाए और वही बात बार-बार न दोहरानी पड़े कि नौकरी नहीं, अब स्टार्टअप होगा! बस गिने-चुने कुछ नेता टाइप छात्र कुछ घंटे के लिए घर बंद कराए कि कहीं डिग्री चैक ही नहीं करने लग जाएं। और अशुभ काले रंग के कपड़े एक दिन के लिए बैन कराए। इस तरह, एक ही झटके में सब खुलासा हो गया, नौकरी वगैरह के बारे में। बस बीए वाली डिग्री न किसी ने देखी और न किसी ने दिखाई; राजा के कपड़ों की तरह, दिखाई न जा सकने वाली डिग्री का, जिक्र भी नहीं किया जा सका!
फिर भी हम तो कहेंगे कि मोदी जी ने इशारों में तो ग्रेजुएशन वाली डिग्री दिखा ही दी। वर्ना दिल्ली विश्वविद्यालय उन्हें इतना अपना-सा कैसे लग सकता था। यह अपनापन कितना प्रबल है, मोदी जी का दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंचना खुद ही इसका सबूत है। वर्ना विरोधियों से उन्हें इसके लिए भी क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा है। कहते हैं कि इससे अच्छा तो मणिपुर ही चले जाते? और कुछ नहीं, तो विरोधियों को कम-से-कम यह कहने का मौका तो नहीं मिलता कि दो महीने बीत गए, पर मोदी जी मणिपुर नहीं गए। भूतपूर्व एमपी चले गए, पर पीएम जी नहीं गए। मोहब्बत की दुकान वाले चले गए, पर नफरत के बाजार वाले नहीं आए। पर वाह, दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अपनापन और प्रेम कि दिल्ली से मणिपुर तक, विरोधियों के हर तरह के ताने सुने, पर मोदी जी दिल्ली विश्वविद्यालय ही गए और मणिपुर नहीं गए। आखिर, जहां अपनापन होता है, वहीं बंदा अपने मन की बात भी करता है। और दिल्ली विश्वविद्यालय में खूब की मन की बात। आखिर, मणिपुर जाते भी तो किस के मन की बात करते!
दुष्ट हैं, जो मोदी जी की मैट्रो यात्रा के संगियों के सोशल मीडिया प्रोफाइल दिखा-दिखाकर, उनकी युवाओं से मैट्रो में चर्चा को प्रायोजित बता रहे हैं। दुष्ट हैं जो सत्तर के दशक के अंत में दिल्ली विश्वविद्यालय के आम छात्रों के मोमो प्रेमी होने पर, इतिहास वगैरह के सवाल उठा रहे हैं। दुष्ट हैं, जो ‘आल इज नॉट वैल’ का हैशटैग चला रहे हैं। मोदी जी ने तो सीधे युवाओं से अपने युवा मन की बात कह दी है — नौकरी का मोह छोड़, स्टार्टअप के पीछे दौड़!
*(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*