अग्नि आलोक

आइए आज आपको पिशाचलोक की सुंदरी तक ले चलते हैं 

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      (मेरे साधनाकालीन जीवन पर आधारित यथार्थपरक घटना)

        डॉ. विकास मानव 

पूर्व कथन : आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? सांस मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी.

अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है.  बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें. 

        लोग रहस्यमय दुनिया के चित्र-विचित्र पहलुओं की चर्चा करते हैं. पचास प्रतिशत लोग तो और जिज्ञासु भी हो जाते हैं। शेष ऐसे विषय को अविश्वसनीय मान लेते हैं

वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।

      तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’- ‘ध्यान ‘ और विज्ञान की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इसके प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. 

    जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.

     तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। सुक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है — निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.

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       काशी उस समय बंगाली शाक्त साधकों के गुप्त केंद्र था। बंगाली टोला तो शाक्त कापालिकों का प्रसिद्ध स्थान माना ही जाता था.  वे शाक्त कापालिक अपनी इष्टदेवी को प्रसन्न कर अलौकिक तांत्रिक सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए दीपावली की रात में गुप्त रूप से बलि भी दिया करते थे।

       _इसे पूर्व जन्म का संस्कार ही समझना होगा कि मैं इस प्रकार गुप्त रूप से निवास करने वाले तन्त्र- साधकों की खोज में शुरू से ही उन मुहल्लों की गन्दी, सकरी, धूल से भरी गलियों का बराबर चक्कर लगाया करता था।_

   मैं उन साधकों से मिलकर उनकी गुप्त तांत्रिक क्रियाओं से भली-भांति परिचित होना चाहता था, साथ ही उनकी मति-गति को भी समझना चाहता था।

    _तन्त्र बड़ी ऊंची विद्या है। इसकी साधना भी बड़ी कठिन और गम्भीर है और यह सबके वश की भी नहीं है। सबको उसमें सफलता भी नहीं मिलती। तन्त्र का अपना विज्ञान भी है। जो उसके विज्ञान को भली-भांति समझते हैं, वे ही तांत्रिक साधना कर सकते हैं और उसमें सफलता भी प्राप्त कर सकते हैं।_

      वैसे तो सभी साधनाएं शक्ति की साधनाएं हैं मगर साधक और शक्ति के बीच देवता माध्यम होते हैं। वे शक्ति के वाहक का काम करते हैं। पर तांत्रिक साधना में किसी भी देवता की मध्यस्थता की जरूरत नहीं पड़ती। तांत्रिक साधना एकमात्र शक्ति-साधना है।

     _शक्ति से सीधा सम्बंध है  तंत्र  का, इसलिए तांत्रिक साधना काफी खतरनाक समझी जाती है। जरा-सी भूल या लापरवाही प्राण-घातक सिद्ध होती है। हर पल प्राण संकट में रहता है। सच तो यह है कि तांत्रिक साधना तलवार की तेज धार पर रखी शहद की बून्द के समान है। चाहो तो उसे चाटो मगर जरा- सी असावधानी से जीभ भी चीर सकती है।_

     शहद का स्वाद ले लिया जाये और जीभ न चिरे–यह कौशल होना चाहिए और यह कौशल एकमात्र सिद्ध ट्रेनर ही सिखा सकता है।

  तन्त्र के अन्तर्गत 64 विद्याएं हैं जिनमें एक है–‘डाकिनी विद्या’। यह घोर तामसिक और अत्यंत भयंकर विद्या है। इस विद्या की साधना करने से बड़े-बड़े साधक भी घबराते हैं। यह है भी ऐसी ही प्राण-घातिनी साधना। जरा-सी भी गलती हुई कि प्राण संकट में। पग-पग पर मौत का भय बना रहता है।

  _सन 1995 यानी स्कूली जीवन से ही मैं तन्त्र विद्या पर व्यक्तिगत रूप से शोध व खोज-कार्य कर रहा था, उस समय मुझे इसी डाकिनी विद्या से सम्बंधित एक दुर्लभ पाण्डुलिपि मिली थी।_

     उन दिनों मेरे एक तांत्रिक मित्र थे। नाम था–रामचंद्रा। वह तैलंग ब्राह्मण थे। जब मैने उनसे इस विद्या की चर्चा की तो उन्होंने बतलाया कि हमारी धरती के प्राणियों का सबसे निकट सम्बन्ध जिस लोक से है, वह है–तामसिक लोक।

    _पृथ्वी जिस आकाशगंगा की परिधि में है, उसी में इस लोक का विस्तार है।_

    तामसिक लोक चार भागों में विभक्त है। पहला भाग ब्रह्म राक्षसों और ब्रह्म पिशाचों का है। दूसरा भाग पिशाचों और बेतालों का है। तीसरे भाग में लम्बी आयु वाली प्रेतात्माएँ रहती हैं और चौथे भाग में हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी आदि तामसिक शक्तियां निवास करती हैं।

     _ये अति भयंकर शक्तियां हैं। प्राकृतिक नियमों में विकृति पैदा कर ये धरती पर भारी उत्पात मचाती हैं। भयंकर दुर्घटनाओं, समुद्री तूफानों, प्रलयंकारी झंझावातों की मुख्य कारण ये ही होती हैं। युद्ध और महामारी इनके प्रिय विषय हैं। वे हमेशा रक्त की प्यासी रहती हैं।_

      जहां कहीं सामूहिक रक्त-पात होता है, वहीं वे अपने समाज के साथ पहुंच जाती हैं। इतना ही नहीं, वे किसी भी प्राणी का रूप धारण कर संसार में विचरण कर सकती हैं और किसी भी मृत स्त्री के शरीर में प्रवेश कर उसकी आयु भोग सकती हैं। मगर उन्हें आम लोगों में से न कोई पहचान सकता है और न तो समझ ही सकता है।

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     रामचंद्रा ने मुझे बताया कि बंगाली टोला में एक अधेड़ आयु की एक बंगालिन रहती है जो मुहल्ले भर में मोना बाई के नाम से प्रसिद्ध है। दिन में वह बगल में फटी-पुरानी कथरी दबाये हाथ में टीन का डिब्बा लिये पागलों की तरह घूमती है और भीख मांगकर खाती है।

      लोग उसे एक पागल भिखारिन के सिवाय और कुछ नहीं समझते।

मगर विकास बेटे, जानते हो तुम…! रामचंद्रा जरा गम्भीर स्वर में बोले–

उस भिखारिन की देह औरत की है–यह सत्य है पर उसके भीतर मोना नहीं बल्कि एक डाकिनी निवास करती है।

     आपकी बात को समझा नहीं मैं। क्या कहना चाहते हैं आप ?

आज से चालीस साल पहले इसी बंगाली टोला मुहल्ले में एक तांत्रिक रहा करते थे। नाम था–कालिकानंद अवधूत। वह उच्चकोटि के साधक थे। उनके यहां एक लड़की थी। नाम था–मोना। बड़ी सुन्दर और आकर्षक थी वह। अवधूत महाशय उसे कलकत्ता के किसी अनाथालय से लाये थे।

      मोना उस समय बारह साल की थी। उन्होंने विधिवत उसे तन्त्र-पीठिका की दीक्षा दी। दीक्षा प्राप्त करते ही बारह वर्षीया मोना के चेहरे पर एक दिव्य आभा उतर आयी। रोम-रोम अनिर्वचनीय शक्ति से भर उठा।

फिर वह सहज नहीं रही। उसके बाद अवधूत शाक्त मार्ग से डाकिनी विद्या की साधना करने लगे और माध्यम बनी मोना। मगर अवधूत महाशय असफल रहे। न उनकी साधना सफल रही और न सिद्धि ही मिली।

     साधना के अन्तिम चरण में जिस क्षण मोना के शरीर में मन्त्र से आकर्षित और तांत्रिक क्रियाओं के वशीभूत डाकिनी ने प्रवेश किया, उसी क्षण मोना की मृत्यु हो गयी।

शायद डाकिनी की अदम्य शक्ति मोना की आत्मा सहन न कर सकी। तभी से मोना के शरीर में वह डाकिनी निवास कर रही है। इस रहस्य को केवल कालिकानंद अवधूत ही जानते थे। उन्होंने मुझे बताया।

      इतना कहकर रामचन्द्रा चुप हो गए। उनके चेहरे के भाव से ऐसा लगा कि वह इस सम्बन्ध में मुझको और कुछ नहीं बताना चाहते हैं।

      सहसा विश्वास नहीं हुआ रामचंद्रा की बातों पर। मेरी अपनी दृष्टि है, अपना विचार है, अपना सिद्धांत है। मगर एक रात मैंने जो कुछ देखा, उसने मुझे एकबारगी स्तब्ध कर दिया। फिर तो विश्वास करना ही पड़ा मुझे।

  मोना अहिल्या बाई घाट पर एक छोटी-सी कोठरी में रहती थी।

  कार्तिक का महीना था। हल्की गुलाबी ठंड पड़ने लगी थी। सारा वातावरण अंधकार से ढका हुआ था। जब मैं उस सकरी गली में घुसकर मोना की कोठरी के सामने पहुंचा तो देखा–दरवाजा बन्द था, मगर भीतर रोशनी थी।

    _जब मैंने दरवाजे की दरार से झांककर देखा तो मेरे होश उड़ गए। सारा शरीर कांपने लगा। उस ठंड में भी मैं पसीने से भीग गया।_

      मोना का शरीर दरी पर निश्चेष्ट पड़ा था और उसके निकट एक षोडशी युवती  खड़ी थी।

    _हे भगवान ! एक नारी में इतना सौन्दर्य, इतना लावण्य और इतना आकर्षण–कल्पना नहीं की जा सकती। निश्चय वह मानवेतर सौंदर्य था।_

     एकाएक फटाक से दरवाजा खुला। में तुरन्त वहां से हट गया। युवती बाहर निकली और घाट की सीढ़ियां उतरने लगी जल्दी-जल्दी।

    _इसके बाद मैंने हल्के अंधेरे में जो कुछ देखा, क्या आप उस पर विश्वास करेंगे ? आप जो भी सोचें या समझें मगर सत्य तो सत्य ही है। आत्मपरक सत्ता में निहित सत्य पहले अविश्वसनीय लगता ही है। उसको सिद्ध करने के लिए कोई भौतिक प्रमाण नहीं दिया जा सकता।_

  मैंने देखा–

    नीचे घाट पर पहले से ही कुछ युवतियां खड़ी थीं। वे सब मोना की ही प्रतीक्षा कर रही थीं।

     मोना की कोठरी से निकलने वाली युवती जब उनसे मिली तो वे सब एक साथ खिलखिला कर हंस पड़ीं। बड़ी मधुर, बड़ी कोमल और सरस हंसी थी वह। फिर सभी युवतियां एक साथ थोड़ी दूर तक आकाश में उठीं फिर एक साथ हवा में विलीन हो गईं।

मैं अवाक, स्तब्ध देखता रहा।

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    कौन थीं वे युवतियाँ ? कहाँ गईं वे सब ?

किसी प्रकार अपने अवश चित्त को संभालता हुआ घर पहुँचा। उस समय प्रातःकाल होने वाला था। रामचंद्रा से मिलकर सारी बातें बता दीं।

रामचन्द्रा बोले–

     डाकिनियाँ पिशाच लोक की सुन्दरी होती हैं। मोना के शरीर में जो डाकिनी है, वह उस समय अपने निज लोक के निज शरीर में थी। उसकी वे सहेलियां भी पिशाच लोक की सुंदरियां ही थीं। वे सब आकाश- मार्ग द्वारा पृथ्वी पर विचरण किया करती हैं। उनका शरीर पार्थिव होते हुए भी साधारण दृष्टि-पथ से परे रहता है। इसी कारण आम लोग उन्हें नहीं देख सकते।

      बड़े आश्चर्य की बात थी। सब कुछ रहस्यमय था, अविश्वसनीय था।

अन्त में रामचन्द्रा बोले–

     पृथ्वी उन सुंदरियों का आखेट-स्थल है। प्रकृति में विकृति पैदा करके वे अपना मनोरंजन करती हैं। इसके अलावा स्वस्थ, सुन्दर युवकों के साथ अदृश्य रूप से सहवास कर अपनी वासना की पूर्ति करती हैं। यदि पिशाच लोक की सुंदरियां सिद्ध हो जायें तो मनुष्य उनकी सहायता से असम्भव-से-असम्भव कार्य कर सकता है।

शायद इसी उद्देश्य को लेकर कालिकानंद अवधूत महाशय डाकिनी विद्या की साधना कर रहे थे।

  दो-तीन दिन बाद अचानक मोना मुझे दिखाई पड़ गयी। कथरी लपेटे हाथ में टीन का डिब्बा लिये वह लाई-चूड़ा की दुकान पर खड़ी खी-खी हंस रही थी उस समय।

    मैं करीब जाकर खड़ा हो गया। उसने गहरी नज़रों से मेरी ओर देखा। फिर अचानक वह जोर-जोर से हंसने लगी।  मैंने धीरे से कहा–दारू पीयोगी मोना ?

  यह सुनते ही मोना का हंसना बन्द हो गया। बोली–पिलायेगा ?

  हां चल ! अभी पिलाऊंगा।

  _मैं उसे अपने घर ले आया। उसके सामने शराब की बोतल रख दी। मोना शराब पीने लगी..एक बोतल..दो बोतल..फिर तीसरी बोतल भी उसने एक ही सांस में खाली कर दी।_

  देशी शराब, मगर नशा नाममात्र का भी नहीं। न आंखें लाल हुईं और न जुबान ही लटपटायी मोना की।

  _वास्तविक स्थिति समझ गया मैं। मोना की पार्थिव काया में बैठी उसी डाकिनी ने सारी शराब पी थी। मैं यही चाहता भी था। मोना बोली–काफी दिनों बाद शराब पीने को मिली।_

  और पियोगी ?

  फिर दो बोतल शराब और पी डाली उसने।

  _उसी दिन मोना के पीछे पड़ गया मैं। काश ! पीछे न पड़ा होता तो इतनी दुर्दशा न होती मेरी। मगर कैसे न पड़ता ? डाकिनी-सिद्धि का चक्कर जो था। अपने-आप में अलौकिक शक्तियों को भरने की ऊंची उड़ान जो थी।_

  मैं रोज मिलने लगा मोना से।

उसको खुश करने के लिए कभी शराब, कभी भुना हुआ गोश्त और कभी मिठाई ले जाता साथ।

एक दिन काफी प्रसन्न दिखलायी पड़ी मोना। बोली–तू मेरे पीछे क्यों पड़ा है ? आखिर चाहता क्या है ? बोल।

डाकिनी-सिद्धि चाहता हूँ मैं–मैं हठात कह बैठा।

  डाकिनी-सिद्धि ? कैसी सिद्धि ? समझी नहीं मैं।

    बनो मत मोना। मैं तुम्हारे असली स्वरूप से परिचित हो चुका हूँ। कोई रहस्य मुझसे छुपा नहीं है। तुम कौन हो–यह भी भली-भांति जान चुका हूं मैं।

   मोना का चेहरा विकृत और वीभत्स हो उठा।

तू डाकिनी है। पिछले 40 साल से तू मोना की देह में अधिकार जमाये बैठी है।

मोना एकबारगी चीख उठी। उसकी आंखें लाल हो उठीं।

      उस दिन से मोना से मिलना-जुलना बन्द कर दिया मैंने। डाकिनी विद्या से सम्बंधित पाण्डुलिपि तो थी ही मेरे पास। उसमें बताई गई विधि के अनुसार मैं साधना करने लगा।

    धीरे-धीरे एक महीना बीत गया। अन्त मैं जो सोचा था, वही हुआ।

मोना मन्त्र-शक्ति से बंधी जब सामने आकर खड़ी हुई तो उसका रूप साधारण नहीं था। लगभग चीखकर बोली– तू मुझे क्यों परेशान करता है ? बोल क्या चाहता है ?

     डाकिनी-सिद्धि। मैं तुमको अपने अधिकार में करना चाहता हूं।

नहीं कर सकते।

क्यों ?

     मैं मोना की देह में अभी दस साल और रहूँगी। तब तक तुम किसी शक्ति से मुझे अधिकार में नहीं कर सकते–मोना की आंखें नागमणि की तरह चमक रही थीं उस समय।

      मैं तुमको मोना के शरीर में रहते हुए भी सिद्ध कर लूंगा। जो कालिकानंद अवधूत नहीं कर सके, वह मैं करूंगा।

    हां,यह बात जरूर है कि मुझे उनकी तरह मानवेतर शक्ति की तलाश नहीं है। सिद्धि का व्यापार नहीं करना है. विद्या या शक्ति का दुरूपयोग नहीं करना है. मैं तुम्हारे माध्यम से तामसिक लोक, वहां के प्राणियों का रहस्य और उनकी मति-गति जानने-समझने भर की कामना करता हूँ~ बस.

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       देखो विकास, हठ मत करो. यह सम्भव नहीं है तुम्हारे लिए। तुम मन्त्र-बल और तांत्रिक क्रिया-शक्ति के जरिये अंतरिक्ष की किसी भी अमानवीय आत्मा अपने साथ संयुक्त नहीं कर सकते। अगर कर भी लिया तो उसका बड़ा भयंकर परिणाम होगा।

मुझे इसकी चिन्ता नहीं है मोना। मैं शायद प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को जानने-समझने के लिए ही पैदा हुआ हूँ। इसके लिए बड़े-से-बड़ा खतरा उठाने को तैयार हूँ।

     मेरी बात सुनकर क्रुद्ध नागिन की तरह फुफकारती हुई मोना वापस चली गयी।

     साधना की अन्तिम क्रिया के लिए श्मशान की जरूरत पड़ी मुझे। मेरी दृष्टि में नारायणपुर का श्मशान उपयुक्त लगा। वहां न मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट के श्मशान की तरह कोलाहल था और न भीड़-भाड़। कभी-कदा ही कोई चिता जलने को आती है वहां।

       दिसंबर का महीना। अमावस्या की घनी काली रात। भयानक निस्तब्धता में डूबा हुआ नारायणपुर का श्मशान। शायद एक-दो दिन पहले कोई चिता जली थी वहां। उसकी राख चारों तरफ बिखरी रहती थी। एक ओर कुछ अधजली हड्डियां भी पड़ी थीं। उसी में एक मानव खोपड़ी भी थी।

गंगा की धारा की तरफ थोड़ा झुका हुआ पीपल का पुराना पेड़ हौले-हौले हिल रहा था जिससे उसकी शाखाओं में बंधे यमघण्ट की छड़ें कभी-कदा आपस में टकरा जाती थीं जिनकी आवाज से भय का संचार हो जाता था मन में।

      न जाने कहाँ और किधर से सियारों का झुंड निकल आया वहाँ। उनकी जलती हुई पीली आंखें मेरे चारों ओर घूमने लगीं। सोचा–अब क्या होगा ? तभी गांव की ओर से कुत्तों के भोकने की आवाज आने लगी। सियारों की टोली गायब हो गयी।

      चलो, विघ्न टला। पीपल के नीचे ही आसन बिछाया। शराब की बोतलें और मुर्गे के गोश्त के साथ अन्य जरूरी सामान सामने रखे। पहले जो कुछ करना था, वह किया, फिर आसन पर बैठकर जप करने लगा।

      रात धीरे-धीरे गहरी होती गयी। जप शुरू करने के एक घण्टे बाद ऐसा लगा कि कोई अदृश्य हाथ मेरी कलाई को पकड़ कर जप करने से रोक रहा है मगर मैंने जप बन्द नहीं किया। बराबर मन्त्र जपता रहा।

      एकाएक दूर से सियारों के समवेत स्वर में रोने की आवाज आई और उसके साथ मैंने देखा कि गंगा की ओर से बहुत सारे नर-कंकाल       गिरते-पड़ते-लड़खड़ाते श्मशान में आकर खड़े हो गए।

       दूसरे ही क्षण सारा वातावरण सणान्ध से भर गया। अजीब-सा हो उठा वातावरण। उन नर-कंकालों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। भय-विजड़ित दृष्टि से मैं उन सबको देख रहा था।

     कुछ क्षण बाद सबने मिलकर एक साथ विकट अट्टहास किया, फिर एक गहरा सन्नाटा छा गया वहां। सन्नाटा नहीं, बल्कि मन में खिन्नता और छोभ उत्पन्न करने वाली बेचैनी।

     फिर क्या देखता हूँ कि वे सारे नर-कंकाल एक-एक कर मनुष्य के रूप में बदल गए। उनका रूप ठीक-ठीक मनुष्यों जैसा था ? नहीं। काफी वैषम्य था। शरीर के अनुपात में सिर काफी बड़े थे उनके।

     नाक काफी लम्बी और मोटी थी।कान भी हद से ज्यादा बड़े थे।उनकी आंखों में बिल्ली की आंखों जैसी चमक थी। वे सब एक साथ मेरी ओर घूर रहे थे। उफ ! उनकी दृष्टि को तमाम उम्र नहीं भूल पाऊंगा।

      लगा– जैसे प्रेतपुरी का सारा दावानल सुलग रहा हो वहां। भय और आतंक से बुरी दशा हो रही थी मेरी। मगर मैं अपने-आपको संभाले हुए था और हर तरह से सतर्क था। मैं जानता था कि वह भयंकर पैशाचिक लीला थी।

      एकाएक पीपल का पेड़ जोर-जोर से हिलने लगा मानो वह किसी अदृश्य तूफान में फंस गया हो। लगा–किसी भी क्षण उसकी शाखाएं टूटकर मुझ पर गिर पड़ेंगी।

      उसी के साथ उस उजाड़-वीरान श्मशान में एक विचित्र विमुग्धकारी सृष्टि हो गयी। पहले चारों ओर हल्के गुलाबी रंग का प्रकाश फैला। बड़ा मोहक था वह प्रकाश।

      मैंने देखा–उस प्रकाश के भीतर से एक के बाद एक युवतियां प्रकट हुईं। निश्चय ही वे इस धरती की स्त्रियां नहीं थीं। उनका रूप आकर्षक, कमनीय और सुन्दर अवश्य था मगर साथ-ही-साथ उसमें अमानवीयता भी थी जिससे मन में हल्का-सा भय का संचार हो रहा था।

      उनके बाल काफी घने और सुनहले थे। आंखें मोरनी जैसी थीं। चेहरे गोल थे। बाहें लम्बी थीं। कमर काफी पतली थी। वे गले में किसी चमकदार पत्थर के दानों की मालाएं पहने थीं।

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       अब तक प्रकाश का रंग गुलाबी से सुनहरा हो चुका था। वे युवतियां सामूहिक रूप से उस सुनहरे प्रकाश में इस प्रकार चल-फिर रही थीं मानो पानी में तैर रही हों। बड़ा विचित्र लग रहा था उनका इस प्रकार तैरना।

प्रकाश का रंग फिर बदला। अब वह बिल्कुल सफेद हो गया और उस रंग-परिवर्तन के साथ ही वे तमाम युवतियां भी गायब हो गईं और उनके स्थान पर उस शुभ्र प्रकाश में एक ऐसी नवयुवती प्रकट हुई जिसे देखकर मैं चौंक पड़ा।

       पहचानते देर न लगी मुझे। वह मोना के शरीर में रहने वाली डाकिनी थी। उस दिन अंधेरे के कारण उसका रूप ठीक से नहीं देख सका था मगर प्रकाश में पिशाच लोक की उस सुन्दरी की छवि देखकर मैं स्तब्ध रह गया।

उसका अंग-प्रत्यंग जैसे तराशा हुआ था। उसकी गहरी झील जैसी आंखों में हीरे की कनी की चमक और अजीब-सा सम्मोहन था। वह धीरे-धीरे मेरे करीब आयी और बड़ी-बड़ी आंखों से मेरी ओर अपलक देखने लगी।

मैंने तुरन्त थैले से शराब की बोतल निकाली और उसी मुर्दे की खोपड़ी में उड़ेल कर उसके सामने कर दी। वह खिलखिला कर हंसी और खोपड़ी उठाकर मदिरा पीने लगी।

        वह पीती जाती थी और मैं बार-बार कपाल-पात्र में मदिरा उड़ेलता जा रहा था। फिर एक विकट अट्टहास किया उसने। सारा श्मशान प्रान्त गूंज उठा उसकी हंसी से। मेरे प्राण आतंक से हिम हो गए जैसे उस अभूतपूर्व क्षण में कुछ घटित होने जा रहा था। क्या पिशाच-लीला ?

     लगा–मैं किसी क्षण मूर्छित हो जाऊंगा। पर उसी समय एक कोमल स्वर सुनाई दिया–जप बन्द कर दो।

  वह युवती शराब से लाल हो उठी आंखों से मेरी ओर देखती हुई कह रही थी–तुम्हारे जप से पिशाच लोक में हलचल मच गई है। मुझे भी मोना का शरीर छोड़कर यहां आना पड़ा।

     _मैं जप बन्द कर दूंगा, मगर तुम भी वादा करो कि मोना के शरीर में लौटकर वापस नहीं जाओगी।_

  फिर दस साल कहाँ रहूंगी ? मुझे तो रहना है अभी। कालिकानंद अवधूत की मन्त्र-शक्ति के वशीभूत मेरा अस्तित्व अभी दस साल और बंधा रहेगा पार्थिव काया के बंधन में। तुम्हीं बताओ क्या करूँ मैं ?

      _यदि मैं अवधूत महाशय की मन्त्र-शक्ति तोड़ दूं तो क्या तुम मेरे अधिकार में रहोगी ?_

      मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर तब दूंगी जब तुम वचन दोगे कि तुम शराब पियोगे और मेरी कामना भी पूरी करोगे।

      _तुम्हरी सारी कामनापूर्ति तो कर सकूंगा पर शराब पीने के लिए मत कहो। शराब से मुझे बेहद घृणा है।_

  वह हंस पड़ी। बड़ी रहस्यमयी हंसी थी वह। तब तो तुम अपने अधिकार में न मुझे कर सकोगे और न मुझसे कोई सहायता ही ले सकोगे।

  क्या तुम्हारे लिए शराब पीना जरूरी है ?

       _हाँ, शराब में ऐसी शक्ति है कि साधक के उपचेतन मन के द्वार खोल देती है और हम जैसे प्राणी उसी द्वार से मानव-शक्ति  में प्रवेश करते हैं।_

  न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर मैंने कह दिया–ठीक है, तुम्हारे  लिए मैं कोई भी कीमत चुका सकता हूँ। चलो, मुझे शराब पीना भी स्वीकार है।

  काश ! ऐसा न कहा होता मैंने उस समय।

     _पिशाच लोक की वह अनिंद्य सुन्दरी मेरी बात सुनकर एकबारगी हंस पड़ी। निश्चय ही वह पैशाचिक हंसी थी। उसका अर्थ नहीं समझ सका मैं।_

  लो पियो..मेरे हाथ से पियो–कहते-कहते उस युवती ने अपने कोमल हाथों से मानव खोपड़ी शराब से भरकर मेरे होठों से लगा दी। मगर क्या शराब थी वह ?

     _उसमें शराब जैसी दुर्गंध  व कड़वाहट थी ? नहीं, मुझे तो ऐसा लगा जैसे किसी अलौकिक  रस का पान कर रहा हूँ जिसका स्वाद अवर्णनीय था।_

        मगर दूसरे ही क्षण मुझे ऐसा लगा कि मानो मैं मर रहा हूँ। मन घबराने लगा। सारे शरीर में सनसनाहट होने लगी। दिल डूबने लगा। पता नहीं कब तक मेरी यह स्थिति रही, फिर अचानक मैंने हल्कापन महसूस किया और उसके बाद ही अपने आपको सर्वथा नवीन वातावरण में पाया।

 _मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वह वातावरण इस धरती का नहीं था। वह अलौकिक था।_

        सिर्फ भावना का प्रवाह था वहां। मेरी आत्मा अपने-आप विस्तृत और व्यापक हो उठी थी। मैं समझ गया कि मेरे अस्तित्व का सम्बंध किसी ऐसे पारलौकिक जगत से जुड़ गया है जहां से मनुष्यों की अंतर्चेतना और अंतर्मन का संचालन होता है।

      _इसके अलावा ज्ञान-विज्ञान का विशेष केंद्र भी है यह जगत। मगर अधिक समय तक मैं उस जगत और स्थिति में नहीं रह सका।_

       जब मेरी बहिरप्रज्ञा जागृत हुई तो सवेरा होने वाला था। उस उजाड़ मरघट के वातावरण में चारों ओर सांय-सांय हो रही थी।

     _उसी दिन मालूम हुआ कि मोना पिछली रात अपनी कोठरी में मृत पाई गई। अब मुझे विश्वास हो गया कि डाकिनी हमेशा के लिए मोना का शरीर छोड़कर मेरे अधिकार में हो गयी है।_

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       उस घटना के तीन-चार दिन बाद पिशाच लोक की वह रूपसी डाकिनी स्वयं मेरे पास आई। उसके आते ही वातावरण शराब की दुर्गन्ध से भर गया। फिर रोज सांझ के समय उस सुन्दरी के आने का नियम ही बन गया।

उसकी अगोचर उपस्थिति आनन्ददायक भी लगती और भयप्रद भी। मुझे उसके लिए रोज मदिरा का इंतजाम करना पड़ता। मेरे माध्यम से वह सारी शराब पी जाती।

       धीरे-धीरे मेरी आत्मा सुप्तावस्था में चली जाती और मैं पूर्णतः चेतनाहीन हो जाता। फिर उसी चेतनाशून्य स्थिति में उस पिशाचिनी के साथ न जाने किस-किस लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करता।

      जब मेरी आत्मा जागृत अवस्था में लौटती तो वहां की सिर्फ धुंधली-धुंधली स्मृति भर मेरे मस्तिष्क में रहती। मैंने अनुभव किया कि जिन स्थानों में मैं जाता था, वहां कहीं तो काल यानी समय की गति पृथ्वी की अपेक्षा अत्यधिक मंद है और कहीं अत्यधिक तीव्र।

      एक बार तो मैं ऐसे जगत में चला गया जिसे उच्च कोटि के भक्तों का लोक कहा जा सकता है।

      वहां मुझे विभिन्न संप्रदायों के भक्त दिखाई पड़े। उनके चारों तरफ प्रकाश का वलय था। हर भक्त अपने इष्ट देवता या देवी के साथ भाव के अथाह सागर में डूबा हुआ था। उन सबके शरीर पारदर्शी और चमकीले थे।

       पिशाचिनी ने बताया कि इस स्थान पर इच्छा और विचार का कोई महत्व नहीं है। केवल भाव और भावना का मूल्य है। कहने लगी–ये तमाम लोग अपने इष्टदेव के साथ अद्वैत भाव में हैं। संसार में रहकर इन सभी लोगों ने भक्ति में उच्च अवस्था प्राप्त की थी।

संसार में जो व्यक्ति इनके इष्ट की साधना-उपासना या भक्ति करता है, उसकी याचना के अनुसार और उसकी भावना एवं भक्ति की गहराई देखकर ये उसकी कामना पूर्ण करते हैं। मगर आदमी सोचता है कि उसकी कामना भगवान ने पूर्ण की है। यह बहुत बड़ा भ्रम है।

      ये लोग संसार में व्यक्ति के मन-पसंद रूप में प्रकट होकर दर्शन भी देते हैं। तब भी भक्त यही सोचता है कि भगवान ने उसे दर्शन दिया है। ऐसा सोचना बहुत बड़ी भूल है। देवी-देवताओं और उनकी भक्ति के नाम पर संसार में जो भी चमत्कार होते हैं, वे सब इन्हीं लोगों के जरिये होते हैं।

अपनी कामनाओं की पूर्ति और चमत्कारों का सम्बंध भगवान से जोड़ना भारी भूल है। भगवान का न चमत्कारों से सम्बन्ध है और न भक्तों की भावना-कामना से। उनकी ओर से ये आत्माएं श्रद्धालु भक्तों की इच्छा पूरी करती हैं और समय पर दर्शन देती हैं।

      भगवान या परमेश्वर एक सर्वव्यापक परमतत्व है, परमशक्ति है। शक्ति न किसी की उपेक्षा करती है और न करती है कोई अपेक्षा ही।

इसी प्रकार तामसिक भक्तों की आत्माओं का अपना अलग जगत है। इन्हीं को ‘अपदेवता’ कहते हैं। संसार में रहकर जिन्होंने तामसिक क्रियाओं और उपकरणों के जरिये तामसिक देवता की साधना-उपासना आदि की है, वे अपने जगत में अपने तामसिक इष्ट देवता के नाम से जाने-पहचाने जाते हैं।

      ये अपदेवता भैंसे, बकरे, मुर्गे आदि की बलि दिए जाने और शराब चढ़ाए जाने से प्रसन्न होते हैं और बहुत जल्द मनुष्य की कामना पूरी भी कर देते हैं। कुछ तो अपनी प्रशंसा पाने के लिए और कुछ योग्य वस्तुओं को पाने के लोभ में मनुष्य की सहायता करते हैं।

कुछ अपदेवता ऐसे हैं जो अपना पारश्रमिक पहले ही तय कर लेते हैं। यदि कामना पूरी हो जाने पर उनके पारश्रमिकस्वरूप मांस-मदिरा आदि भोग वस्तुएं नहीं दी गईं तो वे बड़े-बड़े नुकसान पहचाने की कोशिश करते हैं।

उपदेवताओं की पूजा अधिकतर निम्न वर्ग के ही लोग करते हैं। उनसे वे संतुष्ट और प्रसन्न भी रहते हैं।

         एक बार मेरे पूछने पर डाकिनी ने बताया–उसकी गति आकाशगंगा की सीमा तक है। आकाशगंगा का जो तारा पृथ्वी के सबसे नजदीक है, उसका भी प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचने में 126000 मील प्रति सेकेंड की गति से चार-पांच साल लग जाते हैं।

       मैंने पूछा–तुम किस गति से आकाश-संचरण करती हो ?

डाकिनी ने बताया–मन की गति से। मगर मेरे और तुम्हारे मन में काफी अंतर है। मनुष्य का मन शक्ति के सीमित दायरे में घूमता है, जबकि मानवेतर प्राणी के मन में असीम शक्ति होती है और उसका दायरा भी व्यापक होता है।

   तब तुम मुझे अपने साथ कैसे ले जाती हो ?

इसका उत्तर जानने के लिए इंतजार कीजिये…!

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        तब तुम मुझे अपने साथ कैसे ले जाती हो ?

अपने मन से तुम्हारे मन को बांध देती हूँ। उस समय तुम्हारी आत्मा तो हृदय के अंतर्भाव में रहती है, मगर तुम्हारा मन मेरे साथ रहता है। सोचना, समझना और अनुभव करना मन का काम है, उसे स्मृति या संस्कार के रूप में संजोकर रखना आत्मा का काम है। तुम्हारा मन मेरे साथ लोक-लोकान्तरों में जो कुछ अनुभव कर आता है, उसे तुम्हारी आत्मा स्मृति के रूप में स्वीकार कर लेती है।

      एक बार मैं उस पिशाचिनी के साथ ऐसे लोक में चला गया जहां केवल सूक्ष्मतम भावनाओं का तरल प्रवाह और मात्र भावनाओं का ही स्पंदन था। वहां पहुंचकर कमरे में लेटे हुये चेतनाशून्य अपने पार्थिव शरीर को एक दर्शक की तरह बिल्कुल साफ देख रहा था।

      वह बड़ी विलक्षण अनुभूति थी। चारों तरफ हल्का गुलाबी रंग का प्रकाश बिखरा हुआ था। वातावरण में आत्मा की गहराई को छू लेने वाली शान्ति बिखरी हुई थी। शायद भारतीय योगियों ने इसी लोक को ‘वैश्वानर जगत’ कहा है जो आत्मा की चौथी यानी ‘तुरीयावस्था’ है।

       वैश्वानर जगत दो भागों में विभक्त है–पहला भाग ज्ञान का और दूसरा भाग विज्ञान का है। दोनों भागों की आत्माएं ज्ञान-विज्ञान के नये-नये सिद्धांतो को समय-समय पर प्रकट करने के लिए मानव शरीर धारण करती हैं।

      जब वैज्ञानिकों को पार्थिव की मूल इकाई ‘इलेक्ट्रान’ की गतिविधियों में कोई कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने में सफलता नहीं मिली तो उन्हें विवश होकर मानना पड़ा कि भौतिक सत्ता के आगे शायद एक अभौतिक सत्ता है–वह है–वैश्वानर जगत।

आज वैज्ञानिकों को उस वैश्वानर जगत का आभास मिल चुका है। वहां की सूक्ष्मतम भावनाओं के तरल प्रवाह का भी वे हल्का-सा अनुभव कर चुके हैं और अब वे गणितीय रीति से ‘क्वांटम मैकेनिक्स’ द्वारा उस जगत में प्रवेश करने का सफल प्रयास कर रहे हैं।

       ‘क्वांटम मैकेनिक्स’ इस शताब्दी की विलक्षण वैज्ञानिक उपलब्धि है. इसके द्वारा भौतिक विज्ञान ने स्थूल जगत के ‘महतो महीयान’ विश्व को छोड़कर ‘अणोर णीयान’ वाले उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म वैश्वानर लोक में प्रवेश किया है जहां तब तक केवल योगियों का प्रवेश था।

       वैज्ञानिकों ने एक मत से स्वीकार किया है कि वहां उन उच्चतम वैज्ञानिक सत्यों का साक्षात्कार हो सकता है जो भौतिक जगत के स्तर पर सम्भव नहीं है।

      उस डाकिनी से प्राप्त विशेष तांत्रिक और यौगिक क्रिया के जरिये डाकिनी की सहायता से अभौतिक चेतना के स्तर पर मैंने कहाँ-कहाँ और किन-किन लोक-लोकान्तरों में भ्रमण किया, उसका लेखा-जोखा मेरे पास नहीं है।

       स्मृति में भी अब कुछ सुरक्षित नहीं है। मगर इस सिलसिले में दीर्घ अंतराल के बाद मैं आज जहां पहुंचा हूँ और जिस स्थिति में हूँ, वहां सत्य की भूखी-प्यासी मेरी आत्मा एकबारगी हतप्रभ हो गयी है।

       उस समय मुझे लगा की न मैं सहज हूँ और न मेरा जीवन ही सहज रह गया है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि पिशाच लोक की उस सुन्दरी ने मेरे मानस के सामने जीवन और जगत का जो नग्न सत्य खोलकर रख दिया है, वह मेरे लिए भगवान के विराट रूप के समान है जिसे देखकर मैं अर्जुन की तरह और अधिक व्याकुल हो उठा हूँ।

     काफ़ी दिनों तक मैं पाया की : सत्य की अनुभूति भौतिक स्तर पर मन और आत्मा को अशांत और बेचैन कर देती है।

      कहने की आवश्यकता नहीं–एक लम्बे अरसे तक मैं ऐसी ही अशांति और व्याकुलता के क्षणों में जीता रहा। सत्य तो यह है कि उस पिशाचिनी के माध्यम से प्रकृति के तमाम गूढ़ रहस्यों की जानकारी मुझे मिली है मगर उसका कितना भयंकर और दारुण मूल्य मुझे चुकाना पड़ा है–वह सिर्फ मैं ही जानता हूँ। ये मेरे आरम्भिक सफर का एक घटनाक्रम है. आज मैं सभी तरह की तांत्रिक उपलब्धियों से संयुक्त हूँ.

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