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पौराणिकविश्व : आओ वैकुंठधाम चलें 

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       नीलम ज्योति

वैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है- जहां कुंठा न हो। कुंठा यानी निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता। इसका मतलब यह  हुआ कि वैकुण्ठ धाम ऐसा स्थान है जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है।

     कहते हैं कि मरने के बाद पुण्य कर्म करने वाले लोग स्वर्ग या वैकुंठ जाते हैं। हालांकि वेद यह नहीं कहते हैं कि मरने वे बाद लोग स्वर्ग या वैकुंठ जाते हैं। वेदों में मरने के बाद की गतियों के बारे में उल्लेख मिलता है और मोक्ष क्या होता है इस पर ज्यादा चर्चा है। खैर, हम आपको पुराणों की धारणा अनुसार बताना चाहेंगे कि वैकुंठ धाम कहां है और वह कैसा है।

*वैकुंठ धाम कहां है?*

     अनुसार कैलाश पर महादेव, ब्रह्मलोक में ब्रह्मदेव बसते हैं। उसी तरह भगवान विष्णु का निवास वैकुंठ में बताया गया है। वैकुंठ लोक की स्थिति तीन जगह बताई गई है। धरती पर, समुद्र में और स्वर्ग के ऊपर। वैकुंठ को विष्णुलोक और वैकुंठ सागर भी कहते हैं।

   भगवान श्रीकृष्ण के बाद इसे गोलोक भी कहने लगे। चूंकि श्रीकृष्ण और विष्णु एक ही हैं इसीलिए श्रीकृष्ण के निवास स्थान को भी वैकुंठ कहा जाता है।

*पहला वैकुंठ धाम :*

धरती पर बद्रीनाथ, जगन्नाथ और द्वारिकापुरी को भी वैकुंठ धाम कहा जाता है। चारों धामों में सर्वश्रेष्ठ हिन्दुओं का सबसे पावन तीर्थ बद्रीनाथ, नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा, अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नीलकंठ पर्वत श्रृंखला की पृष्ठभूमि पर स्थित है।

    भारत के उत्तर में स्थित यह मंदिर भगवान विष्णु का दरबार माना जाता है। बद्रीनाथ धाम में सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ आराध्य देव श्री बद्रीनारायण भगवान के 5 स्वरूपों की पूजा-अर्चना होती है।

     विष्णु के इन 5 रूपों को ‘पंच बद्री’ के नाम से जाना जाता है। श्री विशाल बद्री, श्री योगध्यान बद्री, श्री भविष्य बद्री, श्री वृद्ध बद्री और श्री आदि बद्री।

      बद्रीनाथ के अलावा द्वारिका और जगन्नाथपुरी को भी वैकुंठ धाम कहा जाता है। कहते हैं कि सतयुग में बद्रीनाथ धाम की स्थापना नारायण ने की थी। त्रेतायुग में रामेश्वरम्‌ की स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी।

    द्वापर युग में द्वारिकाधाम की स्थापना योगीश्वर श्रीकृष्ण ने की और कलयुग में जगन्नाथ धाम को ही वैकुंठ कहा जाता है। पुराणों में धरती के बैकुंठ के नाम से अंकित जगन्नाथ पुरी का मंदिर समस्त दुनिया में प्रसिद्ध है। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार पुरी में भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था।

*दूसरा वैकुंठ धाम :*

    दूसरे वैकुंठ की स्थिति धरती के बाहर बताई गई है। इसे ब्रह्मांड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर बताया गया है। यह धाम दिखाई देने वाली प्रकृति से 3 गुना बड़ा है। इसकी देखरेख के लिए भगवान के 96 करोड़ पार्षद तैनात हैं।

    हमारी प्रकृति से मुक्त होने वाली हर जीवात्मा इसी परमधाम में शंख, चक्र, गदा और पद्म के साथ प्रविष्ट होती है। वहां से वह जीवात्मा फिर कभी भी वापस नहीं होती। यहां श्रीविष्णु अपनी 4 पटरानियों श्रीदेवी, भूदेवी, नीला और महालक्ष्मी के साथ निवास करते हैं।

     इसी वैकुंठ के बारे में कहा जाता है कि मरने के बाद विष्णु भक्त पुण्यात्मा यहां पहुंच जाती है। पुराणों के अनुसार इस वैकुंठ की स्थिति हमारे ब्रह्मांड के परे है। जीवात्मा जब उस वैकुंठ की यात्रा करती है, तो उसको विदा देने के लिए मार्ग में समय के देवता, प्रहर के देवता, दिवस के देवता, रात्रि के देवता, दिन के देवता, ग्रहों के देवता, नक्षत्रों के देवता, माह के देवता, मौसम के देवता, पक्ष के देवता, उत्तरायण के देवता, दक्षिणायन के देवता सभी तलों (अतल, सुतर, पाताल आदि) के देवता, सभी 33 कोटि के देवता पहले उसे पुन: किसी योनि में धकेलने का प्रयास करते हैं या वैकुंठ जाने देने से रोकते हैं।

     लेकिन जो जीवात्मा प्रभु श्रीविष्णु की शरणागति होता है उसको ये सभी एकपाद विभूति के अंतिम सीमा तक जाते हैं और त्रिपाद विभूति के बाहर प्रवाहित होने वाली विरजा नदी के तट पर छोड़ देते हैं।

     इसी एकपाद विभूति में हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड और सारे लोक अवस्थित हैं। इस एकपाद विभूति की सीमा के बाद शुरू होता है वैकुंठ धाम। पौराणिक मान्यता है कि इसी वैकुंठ धाम और एकपाद विभूति के मध्य विरजा नामक एक नदी बहती है। इस नदी से ही त्रिपाद विभूति शुरू होती है, जो वैकुंठ लोक है।

    मुक्त होने वाली जीवात्मा को जब सभी देवता विरजा नदी तक छोड़कर जाते हैं तब वह जीवात्मा नदी में डुबकी लगाकर उस पार चली जाती है। उस पार से पार्षदगण उसको सीधे श्रीहरि विष्णु के पास ले जाते हैं। वहां वह उनके दर्शन करके परम आनंद को प्राप्त करता है।

    इस प्रकार त्रिपाद विभूति में ही वह जीवात्मा सदा के लिए स्थापित हो जाती है। पुराणों में इस वैकुंठ धाम का बड़ा ही रोचक चित्रण किया गया है।

      ‘हे अर्जुन! अव्यक्त ‘अक्षर’ इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है.

   गीता (अध्याय 8, श्लोक 21)

*तीसरा वैकुंठ धाम :*

    भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका के बाद एक ओर नगर बसाया था जिसे वैकुंठ कहा जाता था। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक अरावली की पहाड़ी श्रृंखला पर कहीं वैकुंठ धाम बसाया गया था, जहां इंसान नहीं, सिर्फ साधक ही रहते थे। भारत की भौगोलिक संरचना में अरावली प्राचीनतम पर्वत है।

    भू-शास्त्र के अनुसार भारत का सबसे प्राचीन पर्वत अरावली का पर्वत है। माना जाता है कि यहीं पर श्रीकृष्ण ने वैकुंठ नगरी बसाई थी। राजस्थान में यह पहाड़ नैऋत्य दिशा से चलता हुआ ईशान दिशा में करीब दिल्ली तक पहुंचा है।

      अरावली या ‘अर्वली’ उत्तर भारतीय पर्वतमाला है। राजस्थान राज्य के पूर्वोत्तर क्षेत्र से गुजरती 560 किलोमीटर लंबी इस पर्वतमाला की कुछ चट्टानी पहाड़ियां दिल्ली के दक्षिण हिस्से तक चली गई हैं।

   अगर गुजरात के किनारे अर्बुद या माउंट आबू का पहाड़ उसका एक सिरा है तो दिल्ली के पास की छोटी-छोटी पहाड़ियां धीरज दूसरा सिरा।

*वैकुंठ और परमधाम में अंतर :*

    1. परमधाम :

 कहते हैं कि परमधाम में जाने के बाद जीवात्मा सदा के लिए जीवन और मरण के चक्र से मुक्त हो जाती है। यह धाम सबसे ऊपर अर्थात सर्वोच्च है। यहां निरंतर अक्षय सुख की अनुभूति होती रहती है।

   यह धाम स्वयं प्रकाशित है। यहां न सुख है और न दुख, यहां बस परम आंद ही है।

 2. वैकुंठ धाम :

 मान्यता है कि इस धाम में जीवात्मा कुछ काल के लिए आनंद और सुख को प्राप्त करती है, लेकिन सुख भोगने के बाद उसे पुन: मृत्युलोक में आना होता है। इस स्थान को स्वर्ग से ऊपर बताया गया है।

     वैकुंठ के ऊपर कैलाश पर्वत है। वैकुंठ को सूर्य और चन्द्र प्रकाशित करते हैँ। यहां गौर करें तो यह विष्णु का बद्रीनाथ धाम हो सकता है।

      श्रीविष्णु के धाम को वैकुंठ धाम कहा जाता है। आपने चार धामों के नाम तो सुने ही होंगे- बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ और रामेश्वरम्। इसमें से बद्रीनाथ धाम भगवान विष्णु का धाम है। मान्यता के अनुसार इसे भी वैकुंठ कहा जाता है।

     यह जगतपालक भगवान विष्णु का वास होकर पुण्य, सुख और शांति का लोक है।

      ‘हे अर्जुन! जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम है।

    ब्रह्मलोक सहित सभी लोक पुनरावर्ती हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूं और ये सब ब्रह्मादि के लोक कालद्वारा सीमित होने से अनित्य हैं। 

 – गीता अध्याय (15, श्लोक 6,7)

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