~ डॉ गीता शर्मा
मेरे साथ चलते हुए चलचित्र..बड़ा भयानक है खुद सा होना। निष्पक्ष, निर्भीक होना। त्रासदी का दौर है। जहां संवेदना का हनन होता गया। शारीरिक श्रम से अत्यधिक कष्ट भरा है मन का थकना। हम से तुम होकर संवाद का ख़त्म हो जाना।
मैं दर्द की कविता बनी और रच दिया अदृश्य कविता संग्रह। क्या जानना था मुझे और क्यों? सारे ज़ख़्म धर लिए अपनी छाती की कोमलता पर और पाया इल्जाम : भावुकता की पृष्ठभूमि पर खुद को निगल जाना हुआ।
कटाक्ष विवादित था। उतनी ही विवादित, मैं। हर अल्फ़ाज़ पर कारवाई होंगी और लोग कोसेगे मुझ सा होना। स्वच्छंद मत होना। स्वीकारना कलुषता और गढ़ जाना। यह मार्ग गहरी यात्राओं का संकेत है।
और हां निकल जाऊंगी उसी स्वतंत्र यात्रा पर : तुम प्रतीक्षा मत करना। द्रौपदी के चीरहरण के नंगे नेत्रों के समक्ष स्त्री अभिव्यक्ति को नकार दूंगी। तुम स्त्री बनना मगर विवादित लड़ जाना खुद का मान बचाने।
तब समाज कोमल कहकर लाल नहीं टपकायेगा। स्त्री देह की परिभाषा में, बरसों आता रहा है सौंदर्य का क्षेत्रफल : और निर्दोष देह को निगाह से रौंदा जाना आम मानकर स्वीकार्य रहा। तुम कहते हो, प्रेम योग्य नहीं। मैं या मेरी देह।
शोषण के हर अध्याय पर लटकी हुई, एक और स्त्री। समाज में सेक्स को ऐसा लिया जाता है जैसे : स्त्री का जन्म और मरण वही रहा हो।
एक तन पर कसाव बढ़ता गया है : जन्म होता गया हर बार एक खंडित अध्याय का।
स्त्री ने भी कई बार स्त्री पर कटाक्ष किया और पुरूष तो जैसे तैयार थे, विवाद पर खुद को ख़ारिज करते हुए।
तंग हालात में, निकल गई और सोचने पर विवश थी कि कितना स्त्री विमर्श और क्या होना है ? सबकुछ खर्च था। समाज, जहां खुद स्त्री किराए के मकान सी जी रही और वे बात कर रही थी अधिकारों की।
अनगिनत कॉम्प्लिकेशन के बाद खोल दिया गया : Being Feminist और being Me का अंतर। बड़ा भयानक था।
आप आर्थिक स्वतंत्रता के बाद भी कैसे खुले नभ में खुद को स्वीकार सकते हैं। लोग देख रहे थे और भांप गए आपके फेमिनिज्म का असल अर्थ। यह खुले में लूटना होगा, अस्तित्व का।
पुरुष प्रधान समाज में कई लुटेरे थे जिनको “फेमिनिस्ट कांसेप्ट” की खूब खिल्ली उठाई और सिरे से नकारा। विरोध भी ऐसा जिसमे मां बहन की गाली सजाए जाने लगी।
असल मायने में इस कॉन्सेप्ट को हास्य सम्मेलन की वह कविता समझा गया जिसपर कोई दंभी अट्टहास कर सकता है।
स्त्री पक्ष लेती जा रही.. पुरूष और कुछ महिलाएं विरोध के नारे लगाती। वे देवी देवताओं का उदाहरण देते। जहां स्त्री सम्मान की बातें बहुत कही सुनी।
निष्कर्ष क्या : स्त्री को हो जाने दो विवादित। देह को सुरक्षित करना अधिक जरूरी है। मानसिक तौर से उत्पीड़न का अधिकारी आखिर क्यों हो?
प्रश्न एक और था : क्या कोई आंदोलन करा पाएगा स्त्री की देह मुक्ति?
क्या कोई स्त्री नहीं डरेगी? या स्त्री स्वर के विरूद्ध उठते असंख्य लोग : कह सकते हैं..
तुम महज़ देह नहीं..आकषर्ण का केंद्र बिंदु नहीं..तुम सिर्फ़ पूजी नहीं जाओगी सोशल एजेंडा के हिसाब से बल्कि प्रत्येक पुरुष की निगाह में होंगी : देवी..वासनामुक्त..!