अग्नि आलोक

*यादों में ज़िंदगी:*जब रजनीश ओशो नहीं थे*

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*कनक तिवारी

1957 का वर्ष मेरे लिए ग्यारहवीं अर्थात मैट्रिक कक्षा स्टेट हाई स्कूल राजनांदगांव से पास करने का रहा है। स्कूल खुलते खुलते इन्फ्लुएंजा की बीमारी फैली थी। उसके कारण काॅलेज में सत्र कुछ दिनों के बाद शुरू हो पाया। मैंने साइंस काॅलेज रायपुर में दाखिला लिया था। वहां पहुंचते ही देखा एक नोटिस सूचना फलक पर लगा था। उसके अनुसार रायपुर के तमाम महाविद्यालयों की एक अंतरमहाविद्यालयीन भाषण प्रतियोगिता होनी थी। वह वर्ष 1857 की महान क्रांति का शताब्दी वर्ष था। उसे ही मनाए जाने का निश्चय मध्यप्रदेश सरकार ने किया था। साइंस काॅलेज में इस तरह की प्रतियोगिताओं के लिए छात्रों और अध्यापकों में कोई विशेष उत्साह नहीं होता था। पूरे छत्तीसगढ़ में सबसे पुराना और रायपुर संभाग में अकेला विज्ञान महाविद्यालय होने से साइंस काॅलेज का दर्जा और रुतबा काफी ऊपर था। वहां का छात्र होना एक तरह से आत्मगौरव का प्रमाणपत्र मिल जाने जैसा होता था। मैं लेकिन जिस स्कूली माहौल से वहां पहुंचा था, उसमें इस तरह की पाठ्येतर गतिविधियों में प्रतिभागिता करने का मेरा अपना अनुभव रहा था। लिहाजा कोई कठिनाई नहीं हुई और मेरा नाम विज्ञान महाविद्यालय के प्रतिनिधि प्रतिभागी के रूप में भेज दिया गया। 

नियत दिनांक पर रायपुर के गवर्नमेंट हायर सेकेण्डरी स्कूल के सभा भवन में भाषण प्रतियोगिता का कार्यक्रम हुआ। यह संयोग और अचरज की बात थी कि मुझे उसमें पुरस्कृत होने की घोषणा भी हुई। यह वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन साइंस काॅलेज की पाठ्येतर प्रतियोगिताओं की बेरुखी के माहौल में प्राचार्य कक्ष में प्राध्यापकों के बीच चर्चा का विषय हुआ। मैं हाॅस्टल में रहता था। वहां प्राचार्य के बंगले से चपरासी ने आकर कहा कि मुझे प्रिसिंपल साहब ने अभी याद किया है। प्रथम वर्ष के एक छात्र को उसके साथियों के सामने अगर प्रिंसिपल साहब का हुक्मनामा वाचाल हुआ, तो घबराहट होनी स्वभाविक थी। साथियों ने बार बार पूछा तुमसे कोई गलती तो नहीं हो गई। ऐसा तो नहीं कि अभी काॅलेज में एडमिशन हुआ और तुरत फुरत तुम्हें कोई सजा मिल जाए। मैं अन्दर ही अन्दर सूख गया। फिर पसीना भी निकला। मैं डरते डरते उनके घर   गया। सामने पोर्टिको से लगे बरामदे में निकर और बनियान पहने, टोप भी लगाए काॅलेज के संस्थापक प्राचार्य उमादास मुखर्जी अपनी पत्नी के साथ बैठे चाय पी रहे थे। उन्होंने मुझे वहीं बुलाया। फस्ट इयर के छात्र को प्राचार्य के साथ बैठकर चाय पीने का जोखिम उठाना पड़ा। पसीना तब भी निकल रहा था। दंपत्ति ने मुझे ढाढस बंधाते हुए कहा कि तुमने तो काॅलेज का नाम रोशन कर दिया। इस तरह का पुरस्कार तो काॅलेज को कभी मिला नहीं। मैं बोल पाने की स्थिति में भी नहीं था।

फिर कुछ दिन बाद पुरस्कार लेने के लिए प्राचार्य मुझे अपनी आॅस्टिन कार में बिठाकर ले गए। रास्ते भर दिल धड़कता रहा। उनका व्यक्तित्व इतना दबंग था कि काॅलेज में अच्छे अच्छे सूरमा उनको आता देखकर अगल बगल हो लेते थे। पुरस्कार के रूप में एक बड़ी सी शील्ड मिली। उसे कार की पिछली सीट पर ड्राइवर ने मजबूती से पकड़ रखा था। आते जाते प्राचार्य ने ज्यादातर अंगरेजी और कुछ हिन्दी में मुझसे कुछ कहा होगा। मैं कबूतर की तरह गुटरगूं करता उन्हें हां नहीं में जवाब देता रहा। इतना साहस भी मेरे लिए बहुत था। वह शील्ड फिर प्राचार्य के कक्ष में जमा ही कर दी गई क्योंकि दुबारा तो 1857 का शताब्दी समारोह होना नहीं था। 

वहां से लौटने के दो चार दिन के अंदर विज्ञान महाविद्यालय के सामने स्थित संस्कृत महाविद्यालय का एक भृत्य हाॅस्टल के मेरे कमरे में आया। मुझसे कहा कि तुमको रजनीश सर बुला रहे हैं। मेरे लिए यह नाम पूरी तौर पर अपरिचित था। संस्कृत महाविद्यालय से वैसे भी साइंस काॅलेज के किसी छात्र का क्या लेना देना हो सकता था। फिर भी जाना तो था। वहां पहुंचा तो एक प्रभावशाली शख्सियत के युवा प्राध्यापक से मुलाकात हुई। मैं अदब के कारण खड़ा रहा। उन्होंने मुझे बैठने कहा। फिर बोले ‘तुम बहुत अच्छा बोलते हो। मुझे तुम्हारी शैली बहुत पसंद आई और तुमको इसी कारण पुरस्कार भी मिला।‘ मैं अंदर ही अंदर फूलने लगा। अचानक उन्होंने तेवर बदला और बोले लेकिन तुम बहुत फालतू बोलते हो। तुम्हारे बोलने में लफ्फाज़ी तो बहुत थी लेकिन कंटेन्ट क्या था। ऐसा लगता है तुमने इस महत्वपूर्ण विषय पर बोलने के लिए जैसी चाहिए, वैसी तैयारी नहीं की। जो कुछ तुम्हें मालूम रहा होगा या यहां वहां से कुछ लिया गया होगा, वह सब तुमने बोल दिया। 

शुरू में अपनी तारीफ सुनकर पुलकित होते मुझे लगा कि मैं अपनी औकात पर ला दिया गया हूं। मैं घबरा सा गया। फिर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया को हल्का करते कहा कि तुम्हें ऐसे अवसरों पर अपना सर्वोत्तम देना चाहिए जिसमें विचार का महत्व होता है। भाषण में लफ्फाजी उसके बाद होती है। उन्होंने मुझे कुछ किताबें दीं और कहा इन्हें पढ़ो। तुम्हें समाज में संभाषण करने में इनमें दी गई सामग्री से काफी मदद मिलेगी। आगे जब कभी बोलने जाओ, तुम निःसंकोच मेरे पास आ सकते हो। मैं तुम्हें बताऊंगा कि तुम्हें क्या और कितना पढ़ना है। शीशे के सामने खड़े हो जाओ और जो कुछ तुम्हें कहना है। वह पूरे का पूरा याद कर लो। एक तरह से रट लो और बोलते वक्त यह देखो कि तुम्हारा चेहरा क्या कह रहा है। कहीं कोई ऐसा विद्रूप तो नहीं रच रहा है जिसे देख सुनकर श्रोताओं को तुम्हारा उपहास करने का मौका मिले। उन्होंने काफी देर तक मेरी सलाहियत की। मैं वहां से घबराकर गंभीर होकर भारी कदमों से लौटा। उन किताबों को उलटा पलटा। कभी कभार कुछ पढ़ा। भाषण की तैयारी भी उसी तरह करने की कोशिश की जो उस्ताद की सीख रही। मंच पर बोलना धीरे धीरे मेरी फितरत में ढलता गया। पूरा जीवन उसी में निकला। 

यह शुरुआती पाठ मैं कभी नहीं भूल पाया। यह मेरे मानस गुरु बाद में ओशो कहलाए। तब उनका रजनीश जैन नाम रायपुर में लोकप्रिय था। वे बमुश्किल रायपुर में साल भर रहे। फिर उनका तबादला उनके गृह नगर जबलपुर हो गया। व्यक्तिगत रूप से मैं उनसे बाद में नहीं मिला। तब ही मुझे उन्होंने बताया था कि वे उस भाषण प्रतियोगिता के एक निर्णायक थे। उनके अतिरिक्त रमाप्रसन्न नायक आईसीएस थे, जो बाद में चलकर मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव बने। तीसरे निर्णायक शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रायगढ़ के प्राचार्य तथा प्रसिद्ध लेखक, आलोचक डा. विनयमोहन शर्मा थे। उस टेनिंग के बारे में सोचने से भुरभुरी सी होती है। बहुत थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन यह संयोग तो मिला कि उन्होंने मुझे कई तरह के ग्रंथ और किताबें पढ़ने के लिए मजबूर किया। मुझे कहां पता था एक दिन वही रजनीश ओशो बनकर पूरी दुनिया पर छा जाएंगे। उन्होंने न जाने कितने छात्रों और लोगों को लिखना, पढ़ना, बोलना और विचार करना सिखाया होगा। 

कई बरस बाद आचार्य रजनीश भिलाई के सेक्टर दो में किसी सार्वजनिक समारोह में व्याख्यान देने आए। उत्सुकतावश और उनके अहसान तले दबे होने के कारण मैं उन्हें सुनने गया। दुर्लभ भाषणकार तो थे ही। लोगों ने लगभग एक घंटे तक शांत रहकर उनका व्याख्यान सुना। मुझसे महाविद्यालय में चार वर्ष सीनियर और बाद में साइंस काॅलेज यूनियन के प्रेसिडेंट बने आनंद मिश्रा ने अचानक उठकर कुछ सवाल पूछने की इजाजत मांगी। आयोजकों ने सद्भावनापूर्वक सहमति दे दी। रजनीश को भी किसी आक्रमण की उम्मीद नहीं रही होगी। आनंद भिलाई विद्यालय में रसायनशास्त्र के व्याख्याता हो गए थे। छात्र जीवन से ही विवेकानन्द भावधारा उनमें अंतस्थ हो गई थी। उनके पिता गणेशशंकर मिश्रा बहुत मशहूर चित्रकार, विचारक और विवेकानन्द भावधारा के अप्रतिम प्रतिनिधि थे। उनकी बड़ी बहन कमला जैन जबलपुर में प्राध्यापक थीं और रजनीश जी से परिचित रहीं। आनन्द के ही घर से रायपुर में विवेकानन्द आश्रम की स्थापना का बीजारोपण किया गया था। आनंद मिश्रा ने रजनीश के बौद्धिक और प्रचारित हो रहे आध्यात्मिक आतंक की परवाह किए बिना उनके भाषण के कई वाक्य सबके सामने दोहरा दिए। कहा ये तो रूस के विचारक पीटर क्रोपाॅटकिन के विचारों का अनुवाद हमको सुनाया गया। बड़ी मुश्किल से उनको मंच से उतारा गया। तब तक जो आनंद चाहते थे, वह तो रजनीश के साथ हो गया था।

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