रिजर्व बैंक के गवर्नर रेड्डी का कार्यकाल संभवतः सबसे अच्छा रहा, जिसमें आखिर तक वृद्धि दर ऊंची रही और मुद्रास्फीति कम रही। अपने पूरे कार्यकाल में रेड्डी नीतिगत दरें बढ़ाते रहे मगर ऋण की मांग में या आर्थिक वृद्धि में कोई कमी नहीं आई। इसे अर्थशास्त्री भी नहीं समझ पाए। बहुत से लोग इसे जालान की विरासत का फल मानते हैं। भारत में नियम-कायदे पहले ही काफी सख्त थे मगर रेड्डी उन्हें और भी सख्त बनाते रहे। अर्थव्यवस्था को महफूज रखने के लिए उन्होंने कई कदम भी उठाए, जो 2008 की मंदी के दौरान सुब्बाराव के बहुत काम आए। मुझे पूरा भरोसा है कि पिछले गवर्नरों की तरह आप भी कामयाब रहेंगे।
। दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अध्यवस्था के केंद्रीय ब बैंक के शीर्ष पद पर आपका स्वागत है। आप इस ओहदे के लिए होड़ में बिल्कुल नहीं उत्तरे थे। भारतीय रिजर्व बैंक में आपके पूर्ववर्ती शक्तिकांत दास को शायद वैसा ही लगा होगा, जैसा विमल जालान ने वाईवी रेड्डी को अपना उत्तराधिकारी चुने जाने पर महसूस किया था निरंतरता और बदलाव का संकेत। निरंतरता इसलिए क्योंकि रेड्डी डिप्टी गवर्नर थे और बदलाव इसलिए क्योंकि गवर्नर के तौर पर वह कई नए काम कर सकते थे। आपके मामले में निरंतरता इसलिए है क्योंकि एक राजस्व सचिव की जगह दूसरा राजस्व सचिव आ रहा है। बदलाव इसलिए क्योंकि आप नए विचार लाएंगे
और आजमाएंगे। दास रिजर्व बैंक में आने से पहले ही राजस्व सचिव का पद छोड़ चुके थे मगर आप राजस्व सचिव थे और रायसीना हिल से सीधे मिंटो रोड चले आए हैं। मगर इसमें हैरत की बात नहीं है। सितंबर 2008 में डी सुब्बाराव को भी सीधे नई दिल्ली से लाकर रिजर्व बैंक में बिठाया गया था। सुब्बाराव की तरह आप भी भारतीय प्रशासनिक सेवा के टॉपर रहे हैं। आप दोनों ने ही आईआईटी कानपुर से पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए। आप प्रिंसटन यूनिवर्सिटी गए और सुब्बाराव मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी गए थे।
समानताएं यहीं खत्म हो जाती हैं। आपको जो काम करना है वह सुब्बाराव के काम से बहुत अलग है। सुब्बाराव ने अमेरिकी निवेश बैंक लीमन ब्रदर्स होल्डिंग्स के डूबने से हफ्ते भर पहले ही केंद्रीय बैंक की बागडोर संभाली थी। लीमन के डूबने से समूचे अटलांटिक के आर-पार वित्तीय संकट पैदा हो गया था। आपके सामने अलग तरह की चुनौतियां हैं। आप रिजर्व बैंक में तब आए हैं जब वृद्धि और मुद्रास्फीति का समीकरण बदल रहा है और रुपया गिर रहा है।
मुड़कर देखें तो उदारीकरण के बाद हर गवर्नर को अलग तरह की जिम्मेदारी मिली थी। दास को बहुत कठिन जिम्मेदारी सौंपी गई थी। पांच ट्रिलियन डॉलर के पार जाने का ख्वाब बुन रही अर्थव्यवस्था कोविड-19 महामारी के कारण अई तकनीकी मंदी के गर्त में फंस गई। इससे निपटने के लिए दास ने ब्याज दरें इतनी कम कर दीं, जितनी देश में कभी नहीं रही थी, बैंकिंग तंत्र में जमकर रकम झोंकी और ऐसे कदम उठाए, जिनमें से कुछ तो किसी ने देखे या सोचे भी नहीं थे। बतौर गवर्नर एस बैंकिटरमणन, जालान, रघुराम राजन और सुब्बाराव को भी इम्तहानों से गुजरना पड़ा था। जालान उस समय रिजर्व बैंक पहुंचे थे, जब पूर्वी एशिया संकट अपने चरम पर थाऔर रुपया दिनोंदिन गिरता जा रहा था। राजन का सामना अमेरिकीबॉन्ड की लगातार चढ़ती यौल्ड से हुआ क्योंकि अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने राहत का अपना कार्यक्रम रोकना शुरू कर दिया था। साथ ही उन्हें लुढ़कते रुपये, चालू खाते के बढ़ते घाटे और बढ़ती महंगाई से भी जूझना पड़ रहा था। वेंकिटरमणन के गवर्नर रहते हुए ही 1991 में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण शुरू हुआ। शुरुआती दिनों में इसे रंगराजन ने आगे बढ़ाया। तकरीचन चौथाई सदी बाद ऊर्जित पटेल का कार्यकाल अग्नि परीक्षा सरीखा रहा, जब नवंबर 2016 में भारत ने बड़े नोट बंद कर दिए।
रेड्डी का कार्यकाल संभवतः सबसे अच्छा रहा, जिसमें आखिर तक वृद्धि दर ऊंची रही और मुद्रास्फीति कम रही। अपने पूरे कार्यकाल में रेड्डी नीतिगत दरें बढ़ाते रहे मगर ऋण की मांग में या आर्थिक वृद्धि में कोई कमी नहीं आई। इसे अर्थशास्त्री भी नहीं समझ पाए। बहुत से लोग इसे जालान की विरासत का फल मानते हैं। भारत में नियम-कायदे पहले ही काफी सख्त थे मगर रेड्डी उन्हें और भी सख्त बनाते रहे। अध्यवस्था को महफूज रखने के लिए उन्होंने कई कदम भी उठाए, जी 2008 की मंदी के दौरान सुब्बाराव के बहुत काम आए। मुझे पूरा भरोसा है कि पिछले गवर्नरों की तरह आप भी कामयाब रहेंगे।
मैं आपको सलाह देने की गुस्ताखी तो नहीं करूंगा मगर केंद्रीय बैंक के कामकाज को करीब से देखने वाले शख्स की हैसियत से में इस खुली चिट्ठी के जरिये कुछ समस्याएं सामने रख रहा हूं और बिन मांगी सलाह भी दे रहा हूं। सितंबर 2024 में समाप्त तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 5.4 फीसदी बढ़ा, जो 6.5 फीसदी के सभी के अनुमान से काफी कम है। यह सात तिमाहियों की सबसे कम दर
रही और पिछली तिमाही के 6.7 फीसदी वृद्धि से बहुत नीचे भी है। इसके बाद रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति समिति की दिसंबर बैठक में वास्तविक जीडीपी वृद्धि का अनुमान 7.2 फीसदी से घटाकर 6.6 फीसदी कर दिया।
इसने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति का अनुमान भी 4.5 फीसदी से बढ़ाकर 4.8 फीसदी कर दिया क्योंकि सीपीआई महंगाई अक्टूबर में 6.21 फीसदी तक चढ़ गई, जो पिछले 14 महीनों में इसका सबसे ऊंचा आंकड़ा था। सितंबर में यह 5.49 फीसदी ही थी। यह बात अलग है कि नवंबर में मुद्रास्फीति थोड़ी नरम होकर 5.48 फीसदी रह गई। वृद्धि घट रही है तो उपभोक्ता मांग बढ़ाने के लिए केंद्रीय बैंक को
दरें घटानी चाहिए। महंगाई बढ़ रही है तो मांग को काबू में करने के लिए दरें बढ़ानी चाहिए। किताबों में तो यही लिखा है। मगर यह इतना आसान भी नहीं होता। वक्त और हालात के हिसाब से फैसले लेने पड़ते हैं। अक्टूबर में रिजर्व बैंक ने अपना रुख सख्त से बदलकर तटस्थ कर लिया। इसके बाद दिसंबर में इसने नकद आरक्षी अनुपात घटा दिया तो क्या महंगाई ऊंची रहने पर भी फरवरी में यह दर कटौती शुरू कर देगा? कर सकता है बशर्ते इसे यकीन हो कि मुद्रास्फीति घटना तय है और वृद्धि लड़खड़ा रही है।
मुद्रा की चाल भी चिंता का विषय है। डॉलर के मुकाबले रुपया गिर रहा है। विदेशी मुद्रा बाजार में उठापटक रोकने के लिए रिजर्व बैंक डॉलर बेचता आया है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 27 सितंबर को 704.9 अरब डॉलर पर पहुंच गया था मगर 6 दिसंबर को घटकर 654.9 अरब डॉलर रह गया। रिजर्व बैंक को कितना उतार-चढ़ाव होने देना चाहिए? कभी-कभी लगता है कि रिजर्व बैंक अभिमन्यु है, जो विदेशी मुद्रा बाजार के चक्रव्यूह में घुस तो गया है मगर वहां से निकलने का रास्ता नहीं जानता। क्या उसे उठापटक रोकने के लिए डॉलर का भंडार खर्च करने के बजाय रुपये को कुछ कमजोर होने देना चाहिए? आप इस पर कुछ सोच सकते हैं।
वृद्धि, रुपये की चाल और मुद्रास्फीति से परे नियामकीय क्षेत्र में भी कुछ मसले आपका इंतजार कर रहे हैं। इनमें एक संभावित ऋण घाटे से जुड़े नियम हैं, जिन पर बैंकों को आपत्ति है क्योंकि उन्हें संभावित ऋण घाटे के लिए कुछ रकम अलग रखनी पड़ेगी, जिससे उनके मुनाफे पर असर पड़ेगा। मगर उनकी बैलेंस शीट की जोखिम सहने की क्षमता बढ़ाने के लिए यह जरूरी भी है। आखिर में कई लोग केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर चर्चा कर रहे हैं और जब भी वित्त मंत्रालय का कोई आला अफसर रिजर्व बैंक चलाने आता है तो ऐसी चर्चा होती ही है।