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थार (रेशमा को सुनते हुए)

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थार के सीने में गड़ी कँटीली तारों के पार से
आँधियों के साथ बदहवास उड़ती आती है रेत
उधर की रेत इधर की रेत से गले मिलती है
जैसे मिलती हैं अरसे से बिछड़ीं दुखियारी बहनें
दोनों बहनें जाने किस बात पर ज़ोर से हँसती हैं
फक्कड़ और बेलगाम हँसी
उनकी हँसी में रुदन रहता है
जैसे मिलन में रहता है बिछोह
बारिश की बूँदों में भीगी बावरी रेत
चहकती है, झूमती है, नाचती है
और आख़िर तड़पने लगती है
बारिश की बूँदें आँसू हो जाती हैं
हँसी में छुपा रुदन विलाप हो जाता है
लावा हो गया हो ज्यों नदी में बहता पानी
इस खुरदरे विलाप में ख़ानाबदोशी है
दूर तक पसरी दिल चीरती वीरानगी है
किसी गहरे अभाव का सन्नाटा है
रेत की अबूझ अतृप्त प्यास है
सदियों से भटकती कोई तलाश है
लू के थपेड़ों से बेहाल बबूल, आक और झाड़ियाँ
विलाप करती रेत को फटकारती हैं –
क्या ग़म है तुम्हें कि रोती ही जाती हो
पहले ही क्या कम संताप हैं ज़िंदगी में
उसपर तुम एक पल भी चैन नहीं लेने देतीं?
विलाप टूटकर सिसकियों में बदल जाता है
और फिर इन सिसकियों में आ मिलती हैं
बबूल, आक और झाड़ियों की सिसकियाँ भी

थार की देह में दाख़िल हो गई हैं
ये सिसकियाँ किसी रूह की तरह
थार का हर जीव इन सिसकियों को सुनता है
मुस्कुराते हुए रोता है, फिर-फिर सुनता है
पूरा थार इस रूह के इश्क़ में गिरफ़्तार है
कँटीले तारों के आर भी, पार भी।

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