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साहित्य मनोरंजन और विलासिता की वस्तु या सामान नहीं है ! -उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद

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( मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि 8 अक्टूबर के अवसर पर )

मुनेश त्यागी, मेरठ

8अक्टूबर जनसामान्य के लिए लिखने,जनसाधारण जैसे जीवन जीने और चुपचाप इस दुनिया को अलविदा करनेवाले महान कहानी लेखक उपन्याससम्राट मुंशी प्रेमचंद की आज पुण्यतिथि है,उन्होंने अपने जीवन में 300 से ज्यादा कहानियां और 15 से ज्यादा उपन्यास लिखे। उनका पहला उपन्यास “सोजे वतन ” था जो अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था इसमें देशभक्ति की कहानियां थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने बहुत से दूसरी भाषाओं में लिखे लेखों आदि के अनुवाद किये और नाटकों की भी पटकथा लिखी। उनका आखिरी उपन्यास गोदान था। उन्होंने राजा महाराजाओं की जगह किसानों, मजदूरों और महिलाओं को वाणी दी,उन्हें बोलना सिखाया और अपने कहानी और उपन्यासों में उन्हें ही नायक नायिका बनाई। यही उनका सबसे बड़ा योगदान है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गई प्रेमचंद इसके संस्थापक अध्यक्ष थे।उन्होंने बेजुबानों को जबान दी, उन्हें बोलना सिखाया, उन्हें अन्याय, शोषण, दमन, उत्पीड़न और अत्याचार का दृढतापूर्वक सामना करना सिखाया, उसके खिलाफ लड़ना सिखाया। उनकी रचनाएं ऐसी है जैसे कि वह आज ही लिखी गईं हों, कल ही लिखी गई हों। प्रेमचंद द्वारा उठाए गए मुद्दे आज भी समाज के ज्वलंतशील मुद्दे बने हुए हैं, उनका निदान होना अभी भी बाकी है। जनता को न्याय, समानता, समता और आजादी मिलनी अभी भी बाकी है। उनको इस दुनिया से रूखसत हुए आज 85 साल हो गए, लेकिन उन्होंने अपने जीवनकाल में अपनी कहानियों, उपन्यासों, नाटकों आदि साहित्यिक विधाओं के जरिए तत्कालीन भारतीय समाज और इस देश में जिन बुराइयों पर निर्ममतापूर्वक जिन ज्वलंतशील समस्याओं के विरूद्ध जो अलख जगाईं ! वे समस्याएं, भारतीय समाज में अभी भी विद्यमान हैं,या यूँ कहें और भी भीषणतम् और निकृष्टतम् रूप में मौजूद हैं, तो यह बात अतिशयोक्ति नहीं होगी ! आज भी भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद, धार्मिक वैमनस्यता, छूआछूत, अश्यपृश्यता, शोषण,सूदखोरी, वर्णव्यवस्था, पाखंड, अंधविश्वास, धार्मिक कूपमंडूकता, किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों व आम जनता पर सरकार के भ्रष्ट, फॉसिस्ट, क्रूर,अमानवीय, पूंजीपतियों के पक्षधर सत्ता के कर्णधारों द्वारा अकथनीय अत्याचार व क्रूरता आज अपने चरम पर है।
प्रेमचंद की मशहूर कहानियों में दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, ठाकुर का कुँआ, पूस की रात, कफन, ईदगाह, बड़े घर की बेटी और न जाने कितनी समाजोपयोगी कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनके उपन्यासों में, सोजे वतन, कर्मभूमि, रंगभूमि, गोदान जैसे मशहूर उपन्यास शामिल हैं। प्रेमचंद ने सदियों के बहरों को सुनाया और सुनाने के लिए लिखा। उन्होंने गरीबों, वंचितों, शोषितों और अभावग्रस्तों को वाणी दी, बोलना और विरोध करना सिखाया और राजा रानी की जगह अपने उपन्यासों और कहानियों में उन्हें नायक और नायिका बनाया और और समाज में सम्मान से जीने की वकालत की। प्रेमचंद ने अपने लेखन में सती प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा, बेमेल विवाह का पुरजोर विरोध किया है और विधवा विवाह, योग्य वर वधु की वकालत की और सामंतवाद और पूंजीवाद का घोर विरोध किया। प्रेमचंद अपने को कलम का सिपाही और कलम का मजदूर कहा करते थे और वह कहते थे कि जब तक मैं समाज हित में कुछ लिखना लूं, तब तक मुझे खाने का अधिकार ही नहीं है। उन्होंने समाजवाद और साम्यवाद को सब सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक रोगों और अवरोधों की रामबाण दवा बताया । उन्होंने जलसे, जलूस, प्रदर्शन और प्रतिरोध का समर्थन करने को, जनता के अति आवश्यक हथियार बताया और कहा कि यह सब जिंदा होने की निशानियां हैं और ये बताते हैं कि अभी हम मरे नहीं हैं,जिंदा हैं।उन्होंने कहा कि साम्यवाद का विरोध कोई क्यों करेगा,जो विचार समता,समानता,आजादी, बराबरी और सबके साम्य और बराबरी की बात करता हो उससे उच्च विचार कोई हो ही नहीं सकता और यह कह कर साम्यवाद का पक्ष लिया और इसकी स्थापना की वकालत की। महान साहित्यकार प्रेमचंद ने साहित्य को मशाल बताया और कहा कि साहित्य राजनीति के आगे -आगे चलने वाली मशाल है। यह दुनिया को रोशन करता है और उन्होंने जनता के साहित्य को आगे बढ़ाने की बात की। उन्होंने अपने तमाम लेखन में सबको शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और कानूनी हक देने की मांग की। प्रेमचंद ने समस्त लेखन में अन्याय, शोषण, गैर बराबरी, भेदभाव ,छोटा बड़ा, ऊंच-नीच की मानसिकता का विरोध किया और विरोध करना सिखाया। उन्होंने कहा कि साहित्य मनोरंजन की वस्तु या सामान नहीं है,लेखक का काम महफिले सजाना नहीं है। उन्होंने आह्वान किया कि लेखकों को ऐसा साहित्य रचना चाहिए जो समता, समानता, आजादी, जनतंत्र, सांप्रदायिक सौहार्द , आपकी मेल मिलाप, और समाजवादी समाज की स्थापना की बात करता हो।
प्रेमचंद कहा करते थे की एक पूंजीपति और जमीदार और सामंत को हटाकर उसकी जगह दूसरा पूंजीपति और जमींदार बिठा देने से देश की समस्याओं का हल नहीं हो सकता। देश के करोड़ों किसानों और मजदूरों की समस्याओं को हल करने के लिए किसानों मजदूरों की सरकार बहुत जरूरी है समाज में समाजवाद की स्थापना करना जरूरी है, इसके बिना जनता की समस्याओं का हल नहीं हो सकता और हजारों साल की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकती।
प्रेमचंद का भारतीय साहित्य में वह स्थान है जो गोर्की का सोवियत यूनियन में और लूसुन का चीन में था। उन्हें हम भारत का गोर्की और चीन का लूसुन भी कह सकते हैं। उस उपन्यास सम्राट प्रेमचंद को उनकी पुण्य तिथि पर शत-शत नमन और अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि ।

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