अग्नि आलोक

लोहिया गांधी नहीं थे, वे किसी की अनुकृति हो भी नहीं सकते

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कनक तिवारी,

वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

लोहिया गांधी नहीं थे. वे किसी की अनुकृति हो भी नहीं सकते थे. उन्होंने लिखा भी था  – ‘मैं मानता हूं कि गांधीवादी या मार्क्सवादी होना हास्यास्पद है और उतना ही हास्यास्पद है गांधी-विरोधी, या मार्क्स-विरोधी होना. गांधी और मार्क्स के पास सीखने के लिये बहुमूल्य धरोहर है, किन्तु सीखा तभी जा सकता है जब सीख का ढांचा किसी एक युग, एक व्यक्ति से नहीं पनपा हो ?’ (गणेश मंत्री)

लोहिया के अनुयायी और जीवनीकार ओमप्रक दीपक के अनुसार लोहिया जर्मनी में ही थे तो गांधी जी का प्रसिद्ध दांडी मार्च हुआ. फिर धरसाना का ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह जिसमें बेहोश हो जाने तक बिना पीछे कदम हटाये मार खाने वालों में लोहिया के पिता हीरालाल जी भी थे. सारे देश में असंतोष की लहरें उठ रही थीं.

उन्हीं दिनो जेनेवा में राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) की बैठक हुई तो लोहिया भी वहां पहुंचे, और जब भारतीय प्रतिनिधि के रूप में बीकानेर के माहराजा गंगा सिंह बोलने को खड़े हुए तो लोहिया ने दर्शक दीर्घा से जोर की सीटी बजायी और व्यंग्य भरी आवाजें कसी. कुछ देर भवन में हलचल हुई, फिर पहरेदारों ने लोहिया को वहां से हटा दिया, लेकिन उस घटना के बहाने हिंदुस्तान की आज़ादी का सवाल एक बार फिर यूरोप के अखबारों में उठा.

(अंगरेजी में लिखे अपने एक महत्वपूर्ण लेख में लोहिया के निकटतम सहयोगी रहे मधु लिमये ने संक्षेप में लोहिया और गांधी के वैचारिक रिश्ते के शुरूआती लक्षणों को लेकर लिखा है –

Dr. Rammanohar Lohia’s contribution to the socialism movement was outstanding. He was the first socialist thinker in India who refused to have his mental horizon limited or dominated by the ideas drawn from the West or the Soviet Union. He took into account the special condition prevailing in the two-thirds of the retarded regions of the world, and especially, India and sought to work out his ideas in consonance with these conditions. Although profounding influenced by Gandhiji’s ideals, he was no slavish follower of Mahatma Gandhi. He was a great votary of the principle of decentralization in all the aspects, but he was sensible enough to say that the solution of India’s problems cannot be acheieved at the technological level of Charkha. He was in favour of an innovative technology involving application of power and small machines which would avoid the pitfalls of centralized prohibition such as concentrarion of wealth, pollution, unemployment, income disparities and so on, and, at the same time, lower costs and raise the productivity and income of ordinary workers, whether working in the fields or in small, family workshops.

अपने सैद्धांतिक एका और कभी-कभी मतभेद या अलग-अलग समझ की लाक्षणिकताओं और संदर्भों के बावजूद लोहिया महात्मा गांधी के बहुत अधिक विश्वासपात्रों में थे. उनका रिश्ता बेहद आत्मीय था. उस स्फुरण में लोहिया ने खुद लिखा है –

गांधी जी के सामने कितनी आज़ादी से बात कही जा सकती थी. कोई संकोच नहीं, किसी व्यक्ति का डर नहीं, पूरी आज़ादी. मैं ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जानता जिसका इस विषय में भिन्न अनुभव हो. किसी और से बातें करने में मैं सतर्कतापूर्वक शिष्ट बना रहता था, परंतु गांधी जी से बातें करते समय मैं लापरवाह हो जाता था, क्योंकि वे मेरे भीतर जो कुछ रहता था उसे उगलवा लेते थे, यहां तक कि तीखी और स्पष्ट भाषा थी.

यही मेरी उपलब्धि थी, चाहे अच्छी या बुरी. मेरा ऐसा व्यवहार हर दशा में भयरहित होता, क्योंकि वे भारत के संतरी थे और हमारी हरकत पर नज़र रखते थे. काश कि हर राष्ट्र में एक ऐसा ही संतरी होता, निश्चय ही उस योग्यता का नहीं, क्योंकि ऐसा पुरुष तो कई शताब्दियों में एक होता है, लेकिन एक ऐसा संतरी जिसे सभी आदर दें ताकि वह अपने लोगों के कामों में अंकुश बन सके.

किशन पटनायक के साथ लोहिया के निकट रहे बुद्धिजीवी और अब देश के सबसे बुजुर्ग समाजवादी सच्चिदानंद सिन्हा ने बहुत संक्षिप्त लेकिन सूक्ष्म रूप से भारतीय समाजवादी आंदोलन में लोेहिया की एकमेवो द्वितीयो नास्ति भूमिका के आने का वर्णन करते हुए लिखा है –

जर्मनी में डाॅक्टरेट की तैयारी करते समय लोहिया सोशल डेमोक्रैट बन गए थे. 1933 में भारत आते-आते वे निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन में सक्रिय हो गए. आज़ादी के आंदोलन के दौर में और सोशलिस्ट आंदोलन के गठन की प्रक्रिया के अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने समाजवाद की अपनी परिकल्पना विकसित की। दरअसल अंतिम दौर में वे समाजवादी आंदोलन के एकमात्र नेता बच गए थे.

… जयप्रकाश नारायण, जो प्रारंभ में सबसे प्रभावशाली सोशलिस्ट नेता थे, राजनीति से अलग हो भूदान आंदोलन से जुड़ गए. अच्युत पटवर्धन और रामनंदन मिश्र अध्यात्म की ओर मुड़ गए. महान बौद्धिक व्यक्तित्व आचार्य नरेंद्रदेव का 1955 में निधन हो गया. अशोक मेहता कांग्रेस में चले गए. यह समाजवादी आंदोलन के लिए घोर-नेतृत्व शून्यता का दौर था और लोहिया ने इस शून्य को भरने की कोशिश की. उनका प्रयास ज्यादा मुश्किल इसलिए भी हो गया क्योंकि जवाहरलाल नेहरू देश की संपूर्ण राजनीति पर अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास कर रहे थे.

… नेहरू सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष पर थे, पर साथ ही भीतर-भीतर यह कोशिश कर रहे थे कि विपक्ष भी उनका हिमायती बना रहे. इस चतुराई को निरस्त करने का लोहिया का प्रयास उन्हें अनुपात से कहीं अधिक कटु आलोचक के रूप में प्रस्तुत करता है. इस प्रयास ने समाजवादी आंदोलन को एक बड़ी भूमिका प्रदान की, जो महज सत्ता में दावेदारी से बड़ी थी. उन लोगों की भूमिका आज इसके विपरीत दिखाई देती है जो लोहिया का उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं.’

गांधी से अपनी मुलाकातों का जिक्र करते लोहिया ने एक मर्मस्पर्शी अंतिम संस्मरण दर्ज किया है, जो घटना नहीं घटनी थी. इतिहास में कई बार हुआ है, जब इस तरह कुछ घटनाएं घटी हैं या उनके विलोप हुए हैं. बहुत कोशिश करने पर भी गांधी बेलूर मठ पहुंचकर भी विवेकानन्द से नहीं मिल पाए अन्यथा उनकी मुलाकात के बाद भारतीय राजनीति में कुछ अभिनव अर्थ गांधी की ओर से विस्तारित किया जा सकता. गांधी को लेकर लोहिया की यह मर्मांतक टिप्पणी भारतीय ताजा इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटनाओं में एक है –

’26 जनवरी को गांधी जी ने कहा कि तुमसे आवश्यक बातें करनी हैं. कल-परसों करूंगा. 28 जनवरी को फिर कहा कि समय नहीं बचता और तुमसे बातें विस्तार से करनी हैं. फिर 29 को कहा कि कल तुमसे ज़रूर ही बातें करूंगा. आखिर मुझे तुम्हारी पार्टी और कांग्रेस के बारे में कुछ निश्चय तो करना चाहिए. कल शाम ज़रूर आना पेट भरकर बातें होंगी. गांधी जी समझते थे कि हमारी पार्टी और कांग्रेस की पटरी मौजूदा रवैये में नहीं बैठ सकती. अतः इस संबंध में निर्णय लेने का गांधी का विचार बड़ा ही सामयिक और अनुकूल था.

30 की शाम को मैं एक टैक्सी लेकर गांधी जी से मिलने ‘बिड़ला भवन‘ की ओर चला लेकिन रास्ते में ही गांधी जी की घृणित व नृशंस हत्या की ख़बर मिली.

बिड़ला भवन पहुंचा तो वहां बहुत बड़ी भीड़ थी. केवल गांधी जी न थे. कमरे में उनका मृत शरीर पड़ा था.

उस दिन लगा कि असली अर्थ में पहली बार अनाथ हुआ.

देश का संतरी सामने मरा पड़ा था और देश के राजा बने लोग आंसू बहा रहे थे.

गांधी जी के विश्वस्त चेर्लो-नेहरू व पटेल के गद्दी पर रहते भी गांधी जी की हत्या की गई.

मुझे गांधी जी की ‘ईश्वर का विश्वास‘ वाली कहावत याद आ गई. मैं सोच रहा था कि ईश्वर में अटूट श्रद्धा रखने वाला, जिसने ज़िंदगी-भर अहिंसा का प्रचार किया, आज उसका हिंसा द्वारा हनन हुआ. यह कितनी विपरीत घटना थी.

गांधी जी के मृत शरीर को देखकर मैं बुदबुदा पड़ा था – ‘क्यों आपने मेरे साथ और देशवासियों के साथ ऐसे दगाबाजी की ? क्यों आप इतनी जल्दी चले गए ?’

पर मुझे इसका उत्तर भला कौन देता !

लोहिया गांधी के अन्धभक्त नहीं थे. उन्होंने कई मुद्दों और मौकों पर गांधी विचार को अपने तईं परिभाषित, व्याख्यायित, सांदर्भिक करते विद्रोही तेवर में अमल में लाने प्रयत्न किये. मनुष्य जाति की अखंडता के पक्षधर लोहिया विदेशी जननायकों से भी आकर्षित होते रहे. लोहिया ने भी कई विश्वचिंतकों को आकर्षित किया. आज़ादी के बाद जवाहर लाल नेहरू ने कभी कभार जिम्मेदारियां सौपनी भी चाहीं, लेकिन अपने असमझौतावादी रुख के चलते लोहिया ने उन प्रस्तावों को खारिज किया.

ऐतिहासिक परंपराओं को लेकर लोहिया की वैज्ञानिक समझ समकालीन नया दृष्टिबोध तैयार करती रहती. सबसे ज्यादा लोहिया राजनीति की उथलपुथल में जनजीवन को लगातार स्पंदित करते रहे थे. उन्होंने जयप्रकाश नारायण को पत्र में परेशानी भी बताई कि जे. पी. समाजवादी आंदोलन में मैदानी राजनीति का मोर्चा संभाल लें और लोहिया के लिए विचार और चिंतन का इलाका छोड़ दिया जाए. इससे दोनों मिलकर राजनीति में बेहतर सेवा और योगदान कर सकेंगे.

आखिरकार लोहिया के निधन के सात आठ वर्षों बाद जयप्रकाश नारायण ने खुद को जनयुद्ध में झोंका ही, फिर भी राजनीति का कुतुबनुमा बन गये. तब तक लेकिन देर हो चुकी थी और जयप्रकाश कमज़ोर और बीमार हो चले थे.

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लोहिया, नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण सहित कुछ नामचीन समाजवादियों को संविधान सभा की बैठकों में नामांकित या प्रस्तावित होने पर शामिल होना चाहिए था जिन्हें बाद में चाहने पर भी नहीं लिया गया. संविधान सभा अपनी कुल बहसों के हासिल बतौर जनसांस्कृतिक संविधान का चाहने पर भी चेहरा उकेर नहीं पाई. आईन की इबारतों के अमल को लेकर अवाम के सोच में ऊष्मा, तरलता, चिंता और ज़िद और जिरह करने का संवैधानिक तेवर दिखाई नहीं पड़ता.

संविधान में यह कर्तव्य भी नहीं उपजा कि नागरिक-जीवन को देशज संस्कृति- की नजर से संपन्न बनाने राज्यसत्ता की जिम्मेदारियां तयशुदा हों. यह बांझ समझ बेमतलब है कि संविधान की कोई जन-संस्कृति नीति नहीं हो सकती थी या राज्य सत्ता लोकसांस्कृतिक सरोकारों से खुद को सक्रिय रूप से प्रतिबद्ध नहीं करे. खारिज हो चुकी कई यूरोपीय अवधारणाएं संविधान के पाठ में अंतधर्वनि की तरह पैठकर उसे भरमाती रहती हैं.

इंग्लैंड और अमेरिका जैसे कई देशों में मसलन शासन और जनसंस्कृति की अंतर्भूत पारस्परिकता को लेकर धर्मबहुलता का भारत जैसा राष्ट्रीय अनुभव नहीं है. जनसंस्कृति संबंधी व्यापकताओं का विवेचन करते करते संविधान बमुश्किल अल्पसंख्यकों के अधिकारों तक ही रुक गया. राज्य के नीति निदेशक तत्वों की सूची के भविष्य आचरण के तहत भी राष्ट्रीय सांस्कृतिक अहसास का संकेत उभारा नहीं जा सका.

यह अकेले और सबसे ज्यादा लोहिया हैं जिन्होंने संविधान के मूल कर्तव्यों, बिटिया के दहेज जैसे नीति निदेशक तत्वों और भारत के हम लोग वाले मुखड़े के तेवरों में सांस फूंकी. वह अकेले और सबसे ज्यादा लोहिया ने किया.

भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 और 21 संविधान की आत्मा है. अनुच्छेद 19 तथा 21 इस तरह है 19, वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक अधिकारों का संरक्षण-(1) सभी नागरिकों को-

(क) वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का,
(ख) शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का,
(ग) संगम या संघ {या सहकारी समिति} बनाने का,
(घ) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का,
(ङ) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का, {और}
(च) {’’’}
(छ) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने का, अधिकार होगा.

प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण-किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं.

लोहिया ने 4 जुलाई 1954 को उ0प्र0 स्पेशल पावर्स ऐक्ट, 1932 के प्रावधानोें का कथित उल्लंघन करते हुए किसानों से आग्रह किया था कि वे अवैध रूप से बढ़ाए गए नहर टैक्स को देने से मना कर दें. पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने नागरिक आजादी और अधिकार के लोहिया द्वारा व्याख्यायित आसमान की संभावनाओं से सहमति व्यक्त की.

अदालत ने साफ कहा कि सरकारों के खिलाफ इस तरह के बयान या भाषण देने से अभिव्यक्ति की आज़ादी की स्वायत्ता को सरकारी कानूनों का तैश बताकर नष्ट नहीं किया जा सकता. लोहिया की सहयोगी और स्वतंत्रता संग्राम सैनिक रही उषा मेहता ने यह टिप्पणी की है –

Dr. Lohia was one leader who had occasions to offer satyagraha both against the foreign and the Indian Governments. In free India too, he was perhaps more in prison than out of it. He shared Thoureau’s belief that “any Government that acts unjustly, the only place for a just man is in prison.

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राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अनुच्छेद 51( क) में मूल कर्तव्य का परिच्छेद संविधान में 1977 में शामिल किया गया है. इन कर्तव्यों का समकालीन उल्था यदि लोहिया की दृष्टि में सजगता से किया जा सके तो पूरा संवैधानिक पाठ समाजवादी नस्ल के अभिनव तेवर में आज भी जज्ब किया जा सकता है. लोहिया होते तो मानव अधिकार धर्मिता की कशिश संविधान की केन्द्रीय आवाज में शामिल ज़रूर कहते.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जन्मे संयुक्त राष्ट्र संघ में उद्घोषित मानव अधिकार पहले ही संविधान में सार्थक ढंग से उल्लेखित हो सकते थे. यूरो-अमेरिकी संविधानविद भारतीय सामन्ती शासनतंत्र, जातिप्रथा, मतवाद, कट्टर मजहबपरस्ती, वर्णाश्रम जैसी कई रूढ़ियों और प्रथाओं से प्रताड़ित और अनुभवसिद्ध नहीं रहे हैं इसलिए यूरो-अमेरिकी अवधारणाओं से प्रेरित संविधान में मूल अधिकारों की भाषायी अभिव्यक्ति तक में भारत के लिए सुलभ मानव अधिकारों के तेवर ठीक से नज़र नहीं आते हैं. संविधान में तो मूल अधिकारों के अमल की दुर्गति तथा पंचायती राज और राष्ट्रभाषा की अवधारणा का विलोप भी है.

लोहिया, नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश और अन्य समाजवादियों की संविधान सभा में प्रतिभागिता नहीं होने से संविधान को बोझिल, अकादेमिक किताब के मुकाबिले जनधर्मी पाठ में तब्दील नहीं किया जा सका. हिन्दी भाषा भाषी समर्थक भी संविधान सभा में हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहते उसे राजभाषा भर बना पाने की वकालत कर पाए. पलटवार नहीं किया कि विक्टोरियाई शास्त्रीय शब्द-छल से लकदक अंगरेजी भारत का संवैधानिक संस्कार क्यों और कितना रच पाएगी ?

पंडिताऊ किस्म की बोझिल राजभाषा से भी जीवन-विसंगत उबाऊपन पैदा होता ही होता है. यह तिलिस्म भी लोहिया ने समझाते ब्रिटिश सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को खंगालते जनअभिव्यक्ति के लिए कई नए शब्द गढ़े. मजिस्टर, कलट्टर, उर्वसीयम, रपट जैसे बीसियों शब्द लोहिया की देन हैं. ये केवल चर्चा का विषय नहीं होकर जनता की जुबान पर अपनी जगह सुरक्षित कर चुके हैं.

भारत के संविधान में अनुच्छेद 51-क इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में आपातकाल रहते जोड़ा गया। उसमें भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा वह –

(क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे,
(ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे,
(ग) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे,
(घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे,
(ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं,
(च) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे,
(छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखे,
(ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे,
(झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे,
(´) व्यक्गित और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले।
(ट) यदि माता-पिता या संरक्षक, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे.

दरअसल भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 09.12. 1946 के करीब एक साल पहले गांधी जी के संवैधानिक विचारों को एकजाई करते वर्धा के सेक्सरिया काॅमर्स काॅलेज के प्रिंसिपल श्रीमन्नारायण अग्रवाल ने आज़ाद भारत के लिए गांधीवादी संविधान पुस्तक लिखी थी. यह पुस्तक संविधान सभा के कुछ सदस्यों को उपलब्ध भी रही है. गांधी ने मूल अधिकारों को नागरिकों को दिए जाने के परंतुक की तरह मूल कर्तव्यों के प्रतिबंधों का सुझाव दिया था जिनके बिना मूल अधिकार नहीं दिए जाने का आवहान किया गया था. उक्त पुस्तक के अनुसार ये मूल नागरिक कर्तव्य इस तरह हैं –

  1. All citizens shall be faithful to the State especially in times of national emergencies and foreign aggression.
  2. Every citizen shall promote public welfare by constituting to State funds in cash, kind or labour as required by law.
  3. Every citizen shall avoid, check and if necessary, resist exploitation of man by man.

यही वह बिन्दु है जहां से लोहिया ने संविधान के अनुच्छेद 19 में दी गई नागरिक आजादियों का व्यावहारिक और मैदानी प्रयोग किया कि वे किसी भी मनुष्य का शोषण नहीं होने देंगे और ऐसी नागरिक अवज्ञा सत्याग्रह की परिधि में होने से वह अपराध नहीं है और इसलिए सरकारों को उसे प्रतिबंधित करने का कोई संवैधानिक हक नहीं हो सकता. दरअसल गांधी ने सिविल नाफरमानी, असहयोग और सत्याग्रह वगैरह के नैतिक जनवादी हथियार दिए थे. उनका सफल परीक्षण तो सबसे ज़्यादा लोहिया को ही करना पड़ा.

भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. गांधी उसके दो वर्ष पहले ही चले गए थे इसलिए गांधीवाद के संबंध में प्रामाणिक तौर पर अभिव्यक्ति और कर्म सहित लोहिया को जनता का मोर्चा संभालना पड़ा था. यह इतिहास का सच है. यह भी है कि 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में डाॅ. अंबेडकर ने गांधी का नाम लिए बिना उनके नागरिक अवज्ञा के सिद्धांत खारिज कर दिए थे. यही कहा था कि सरकार के खिलाफ यदि शिकायत है तो लोग निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जा सकते हैं. भारत जैसे विशाल जनसंख्या के देश में मुकदमों के जरिए एक ढीली ढाली, खर्चीली न्याय व्यवस्था में जनअधिकार किस तरह कारगर हो सकते हैं, यह अलग सवाल है.

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लोहिया ने अपने तईं महसूस किया था कि हिन्दुस्तान में पूंजी का समीकरण बुरी तरह उलझ गया है इसलिए व्यक्तिगत और संस्थागत खर्च पर पाबन्दी की साधारण, लेकिन दूरदर्शी, कारगर कूटनीतिक मांग ‘दाम बांधो’ बुलन्द की थी. 27 करोड़ भारतीयों की ‘तीन आना’ प्रतिदिन की औसत आमदनी वाले एक पंक्ति के ऐतिहासिक शोध के जरिये उन्होंने योजनाकारों, अर्थशास्त्रियों, सांख्यिकीवेत्ताओं और आई.सी.एस. अफसरों की फौज के बोझिल, किताबी आंकड़ों को बौना कर दिया.

लोहिया ने पूंजीपतियों और जमींदारों से नफरत करने की सियासी मकसदों के लिए प्रचारित की जा रही प्राथमिकता के बदले वरिष्ठ नौकरशाही के तेवरों से उपजे समाजतोड़क वर्गविभेद का खत्म करना ज़्यादा जरूरी बताया. वर्गरहित समाज की स्थापना का उनका संघर्ष नकलनवीसी में मार्क्सवादी नस्ल का नहीं हो सकता था.

स्वामी और सेवक, मालिक और मजदूर के अमानवीय औद्योगिक रिश्ते से उपजी कड़ुआहट और अधिकारों की मांग का कम्युनिस्ट विवेचन लोहिया की राय में भारत जैसे परम्परा पीड़ित, अर्धविकसित देश के लिए असंगत पश्चिमी परिकल्पना थी. वे कारखानों की प्रौद्योगिक संस्कृति से उपजी वर्ग संघर्ष की भूमिका को (संभावित) राष्ट्रीय क्रांति का सबसे असरदार या अकेला अणु विस्फोट नहीं मानते थे.

कम्युनिस्टों से सीधे संघर्ष से परहेज और किताबी समाजवादियों की भीड़ से बचते लोहिया सम्भावित समाजवादी सन्सार अपने वृहत्तर होते व्यक्तित्व में निखारते रहते थे. ज़रूरी अधोसंरचना के अभाव में राजनीति में राष्ट्रीय समाजवाद का उनका सपना गांधीवाद का संशोधित हो सकता विकल्प नहीं बन सका. यह एक साथ लोहिया और देश की असफलता है.

संसद में इस सिलसिले में लोहिया का मशहूर भाषण और उस पर सरकारी हस्तक्षेप इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, तीन आने बनाम पन्द्रह आने –

डाॅ. राममनोहर लोहिया : अध्यक्ष महोदय, अभी तक इस बहस का नतीजा इतना निकला है कि मैंने 27 करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए तीन आने रोज की आमदनी कही, प्रधानमन्त्री ने 14 आने रोज की और योजनामन्त्री ने साढ़े सात आने अपने रोज की. अब प्रधानमन्त्री और योजनामन्त्री आपस में निबट लेंगे कि दोनों में कौन सही है.

मेरी बहस यह नहीं है कि हिन्दुस्तानियों की और खास तौर से 27 करोड़ की आमदनी तीन आने या साढ़े तीन आने है बल्कि यह देश इतना गरीब है जिसका अन्दाजा इस सरकार को नहीं है, और इस गरीबी को दूर करने के लिए जब तक इस सरकार में भावना नहीं आएगी, तब तक कोई अच्छा नुस्खा तैयार नहीं हो सकता.

पहली बात तो मुझे कहनी है, जो आंकड़े योजना मन्त्री ने यहां रखे उनके बारे में, कि वह कर जांच कमेटी के लिए तैयार किये गये थे। वित्त मन्त्रालय ने पूछा था कि किस तरह से हिन्दुस्तान के लोगों की आमदनी है और खपत है ताकि वह कर अच्छा और ज्यादा लगा सके। इसलिए इस जांच समिति के आंकड़े पहले से ही सन्देशात्मक थे क्योंकि उनका तात्पर्य ही कुछ और था।

श्री मोरारका (झुंझनू)  : अध्यक्ष महोदय, इस बहस की शुरुआत डाॅ. लोहिया के इस कथन से हुई कि देश के 27 करोड़ लोग तीन आने रोज पर ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं. इसका तर्क बहुत साधारण है लेकिन नतीजा गम्भीर है. सदन को यह जानने का अधिकार है कि वह जाने कि डाॅ. लोहिया के तर्क सही हैं, अगर वे सही नहीं हैं तो डाॅ. लोहिया के तर्कों के प्रभाव क्या पड़ेंगे ?

डाॅ. लोहिया की बहस में एक जबरदस्त कमी है जिसके जरिए वे इस नतीजे पर पहुंचे कि 27 करोड़ लोगों की औसत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आमदनी 3 आना है. (अंग्रेज़ी में)

डाॅ. राममनोहर लोहिया : अध्यक्ष महोदय, माननीय सदस्य भाषण तैयार करके लाये थे, मेरे भाषण को सुनने से पहले. सब बतलाया मैंने.

श्री मोरारका : 27 करोड़ व्यक्ति भुखमरी की हालत में नहीं जी सकते. वे हमेशा कर्ज पर भी नहीं जिन्दा रह सकते. नेशनल सेम्युल सर्वे के आंकड़े साढ़े सात आना फी आमदनी प्रतिदिन वाला ज्यादा सही है, डाॅ. लोहिया के आंकड़े भ्रमात्मक हैं. (अंग्रेजी में)

डाॅ. राममनोहर लोहिया : आपने मोर करेक्ट शब्द इस्तेमाल किये हैं, जरा बतला दीजिए कि सही क्या है.

कम्युनिस्टों से अलग हटकर मजदूर और मालिक के संघर्ष को लोहिया बढ़ावा नहीं देना चाहते थे. उनकी राय में यह भी एक पश्चिमी अवधारणा थी क्योंकि वैसे भी भारत में मजदूर वर्ग और संगठित मजदूरों की संख्या असंगठित क्षेत्र के किसानों और खेतिहर मजदूरों के मुकाबले बहुत कम होती है. असंगठित और खेतिहर मजदूरों के साथ ज्यादा अन्याय हो रहा है, और वह भी ज्यादातर जातिभेद के कारण. जबकि संगठित क्षेत्र के मजदूरों के शोषण में जाति भेद का तत्व उतना मुखर नहीं होता है.

लोहिया ने पाया कि निचली और पिछड़ी जातियों के नेताओं और प्रतिनिधियों को पर्याप्त संरक्षण और पद नहीं दिए जाते थे.

लोहिया ने देखा कि कम्युनिस्टों के मन में जमींदारों और मारवाड़ी कुल के व्यापारियों के लिए वर्ग भेद आधारित नस्ल की बेसाख्ता नफरत थी. उनसे अलग हटकर लोहिया ने अपने आक्रमण का मुख्य लक्ष्य इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारियों को बनाया.

उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आईसीएस की नौकरी के कारण समाज दो अलग—अलग खेमों में बट गया है. एक तरफ तो बिना पढ़े लिखे गरीब किसान हैं, मजदूर हैं. दूसरी तरफ बहुत कम संख्या के पश्चिमी नस्ल के ‘एलीट’ क्लास के सत्ताधारी हैं. वे केवल बाहर की नकल करते और भारत के लोगों का बेतरह शोषण करते रहते हैं.

चाणक्य शैली में उनकी जड़ पर हमला करने का उपक्रम करते लोहिया ने अपना प्रसिद्ध आंदोलन शुरू किया जिसका ऐलान था ‘अंग्रेजी हटा.’  ‘जब अंग्रेजी हट जाएगी तो अंग्रेज और अंग्रेजियत अपने आप हटेंगे.’ यही तो गांधी की भी अवधारणा थी.

गांधी ने भी तो आखिर में देश की आजादी के बाद नेताओं के कर्म देखकर झल्ला कर दु:खी होकर कहा था ‘जाओ ! दुनिया से कह दो, गांधी अंग्रेजी भूल गया है. अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजीदां कुछ राजनेताओं और ज़्यादातर नौकरशाही के अफसरों के कारण लोहिया हर तरफ से अंग्रेजियत को भारत से समूल उखाड़ देने के पक्ष में हो गए थे.

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आम आदमी से बड़ी संख्या में महत्वाकांक्षा और जुगत लिए लोहिया दक्षिणपंथी तत्वों के मुकाबले कम्युनिस्टों और समाजवादियों से बेहतर नजदीकी अपनी रणनीति के कारण भी महसूस करते थे. इसके बावजूद वामपंथ के शीर्ष नेता नम्बुदिरिपाद से लोहिया की एक मायने में पटरी नहीं बैठती थी. इसलिए नहीं कि नम्बुुदिरिपाद में और किसी मुद्दे को लेकर उसे मतभेद था. वह चीन के भारत पर आक्रमण के मुद्दे को लेकर तो था ही.

लोहिया कहते थे कि इन वामपंथियों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति की संतुलित, भविष्यमूलक और समयबद्ध समझ नहीं है. अपने समय के कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर लोहिया ने एक बात और देखी थी. ये सब के सब केवल अपने प्रदेश के वोटरों तक सीमित रहते हैं. वे फिर इनकी राष्ट्रीय भूमिका को लेकर किस तरह इनके साथ हमकदम हुआ जा सके.

लोहिया की समझ थी कि कम्युनिस्ट लोग ‘एलीट वर्ग‘ को भी विभाजित करने की जुगत में भी रहते हैं. प्रगतिशील-उद्योगपति या कुछ बेहतर पढ़े-लिखे पश्चिमी समझ और प्रकृति के बौद्धिक मुखौटे धारे लोगों को कम्युनिस्ट अपने साथ रखते हैं तो भी समझते हैं कि एक तरह से उनकी नैतिक या बौद्धिक विजय है.

लोहिया इस तरह का कोई उपवर्ग बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे. उन्होंने प्रेस में भी अलग-अलग तरह के विभाजन देखने के बावजूद उस में से किसी एक का साथ या एक का विरोध करने का कोई इरादा कभी नहीं किया. वे समझते रहे कि देश का अवाम बड़ी संख्या में उनके साथ आएगा तो ‘एलीट’ वर्ग का ढकोसला अपने आप खत्म हो जाएगा.

पत्रकार शिवकुमार मिश्र ने कहा है लोहिया नागरिक स्वतंत्रता की आभा के आलोक में जनतंत्र का कीर्ति स्तम्भ स्थापित करना चाहते थे. वर्ष 1965 में मार्क्सवादियों की जब धरपकड़ हुई थी, तब लोहिया ने अनूठे अन्दाज़ में कम्युनिस्टों की रिहाई के लिए देशव्यापी अभियान चलाया था और दिल्ली के बिड़ला कपड़ा मिल के मजदूरों की सभा को सम्बोधित किया था.

तब लोहिया ने बताया था कि दक्षिण भारत के कम्युनिस्ट विशेषकर सर्वश्री गोपालन, पी. सुन्दरैया, पी. राममूर्ति और नम्बूदिरिपाद ने राजनीति का पाठ ‘कांग्रेस-सोशलिस्ट’ के रूप में पढ़ा था. लोहिया का अपने पूर्व समाजवादी साथियों से भावनात्मक लगाव था क्योंकि इन पूर्व कांग्रेस सोशलिस्टों ने भी लोहिया की तरह ईमानदारी, सादगी और अपरिग्रह के पथ को आलोकित किया था और उनका भी लोहिया की तरह अपरिग्रह पर अटूट भरोसा था. इस बिन्दु पर वे गांधी के करीब थे.

अपने एक निबंध में गिरीश मिश्र और बृजकुमार पांडेय ने लोहिया की आलोचना में लिखा है  –

मार्क्सवाद एवं सोवियत संघ के प्रति लोहिया का विरोध भारत की आजादी के बाद अधिक प्रखर हुआ. 1930 से लेकर 1940 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों के दौरान लोहिया ने शायद ही कभी अपनी कम्युनिज्म और सोवियत विरोधी मान्यताओं को तूल दिया. शायद इसके दो कारण रहे होंगे. पहला कारण रहा होगा जवाहरलाल नेहरू के साथ उनकी कम्युनिस्ट स्वतंत्र भारत में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में अपनी भूमिका के परिणामस्वरूप राष्ट्र की मुख्यधारा से कटकर प्रभावहीन होंगे.

यहां यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि 1930 के दशक के दौरान सोवियत संघ के प्रति लोहिया का रुख बड़ा गरमजोशी का रहा. उन्होंने अपने द्वारा लिखे पैम्फ्लेट ‘इंडियाज फाॅरेन पालिसी’ (1938) जिसका प्रकाशन अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने किया और जिसकी भूमिका नेहरू ने लिखी थी, ने कहा था : ‘’विश्व के राज्यों में सामान्यतया हमें सोवियत रूस का समर्थन करने मे कोई हिचक नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसने राज्य की नीति के आधार के रूप में निश्चय ही साम्राज्यवाद का परित्याग कर दिया है.’

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1946 में आगरा जेल से रिहा होने के बाद स्पष्ट तौर पर लगा कि लोहिया बदल गये हैं. उन्होंने अपने भूतपूर्व पथप्रदर्शक नेहरू और उनके चिन्तन से अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया था और अपने को उनके प्रभाव से मुक्त कर लिया था. जर्मन प्रवास के दिनों में ग्रहण किये गये विचार उन पर हावी हो गये थे. श्रीमती इंदुमति केलकर ने अकारण ही यह नहीं लिखा है कि लोहिया के जीवनकाल में ही जनसाधारण और गरीब लोग उन्हें महात्मा गांधी के बाद अपना सबसे बड़ा मसीहा मानने लगे थे.

उन्होंने न केवल मार्क्सवाद और कम्युनिज्म के प्रति अपना दृष्टिकोण बदला बल्कि सोवियत संघ के प्रति भी अपने विचारों में संशोधन किया. अपने एक लेख ‘ट्वेंटियथ रशियन कांग्रेस एंड इंडियन कम्युनिस्ट्स’ में उन्होंने स्तालिन को ‘विश्व इतिहास के बड़े अपराधियों में से एक’ करार दिया तथा घोषित किया कि ‘रूस के वर्तमान नेतागण स्तालिन के अपराधों में सहभागी रहे हैं. वस्तुतः वे स्तालिन जैसे शेर के सामने बौने सियार सिद्ध हुए हैं. स्तालिन के हर काले कारनामे में शामिल होने के कारण उनके द्वारा स्तालिन की निन्दा एक महज बकवास है.’

लोहिया के निकटतम साथी और प्रसिद्व समाजवादी नेता राजनारायण के अनुसार
‘इकानाॅमिक्स आफ्टर मार्क्स’ डाॅ. लोहिया की एक छोटी-सी पुस्तक है जिसे उन्होंने 1942 के तूफानी वक्त के दौरान लिखा था. इस किताब को यूसुफ मेहरअली ने प्रकाशित किया था. उसमें उन्होंने मार्क्स की ‘सरप्लस थ्योरी आफ वैल्यू’ पर अपनी उंगली उठाते हुये इंगित किया था कि श्रमिकों का शोषण उनके अतिरिक्त वक्त की कीमत न चुका कर ही केवल नहीं होता बल्कि उसके अन्य तरीके भी हैं.

उन्होंने बताया कि अमेरिका का मजदूर जो उत्पादन तीन मिनट में करता है, उसी को रूस का मजदूर 6 मिनट में, चीन का 40 मिनट में और भारत का मजदूर 60 मिनट में करता है. इस तरह अमेरिका और रूस का मजदूर की मजदूरी क्रमश: 3 और 6 मिनट के लिये पाता है. उतनी ही मजदूरी भारत का श्रमिक 60 मिनट काम करने के बाद पाता है. विदेशी व्यापार और आयात निर्यात के जरिये विकसित राष्ट्र पिछड़े राष्ट्रों का इसी प्रकार शोषण करते हैं और इसे दृष्टि में रखते हुये मार्क्स का यह नारा कि ‘वर्कर्स आफ द वर्ल्र्ड यूनाइट’ बेमानी हो जाता है, क्योंकि विकसित राष्ट्रों का मजदूर विकासशील राष्ट्रों के श्रमिकों के शोषण में भागीदार हो जाता है.

लेखक शिवप्रसाद सिंह कहते हैं लोहिया ने संस्कृति के नाम पर भारत में जिस वातावरण को देखा और भोगा, उसे उन्होंने एक शब्द में नाम दिया ‘कीचड़.’ ऊंची जातियां सुसंस्कृत पर कपटी हैं, छोटी जातियां थमी हुई और बेजान हैं. देश में जिसे विद्वता के नाम से पुकारा जाता है, वह ज्ञान के सार की अपेक्षा सिर्फ बोली और व्याकरण की एक शैली है. शारीरिक काम करना भीख मांगने से ज्यादा लज्जास्पद समझा जाता है.

हिन्दुस्तान को इस सांस्कृतिक जकड़बन्दी से मुक्ति दिलाने के उनके अभिमान के दो मोर्चे हैं – शूद्र और नारी. इसी को वे प्रतीक रूप से ‘सीता शंबूक धुरी’ भी कहते हैं. शूद्र हमारी सामाजिक स्थिति का बैरोमीटर हैं और सारी सम्पूर्ण अंतर्वेयक्तिक सम्बन्धों का केन्द्र. शूद्र की मुक्ति जाति प्रथा के ध्वंस में ही निहित है. लोहिया ने जाति प्रथा पर जैसा प्रहार किया, जैसी बौद्धिक चिन्तन की लहर जगायी, वह भारत के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है.

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संस्कृति एक व्यापक अभिव्यक्ति है. उसकी सांसों में सामाजिक जीवन की सभी गतिविधियां, घटनाएं और भविष्य संभावनाएं तक धड़कती होती हैं. राजनीति, धर्म, नैतिकता, साहित्य, कलाओं और सामाजिक जीवन की बहुविध छटाओं का समुच्चय और उत्कर्ष तथा उनका समवेत स्थायी भाव संस्कृति की परिधि के बाहर नहीं होता. हर भौगोलिक समाज के व्यावहारिक लक्षण उसके युग-बोध पर निर्भर होते हैं. समाज के मकसद, चुनौतियां और वास्तविकताएं भी नागरिक बर्ताव पर असर डालती हैं.

संस्कृति का अक्स इन्सानी-व्यवहार के इतर अवयवों से निर्मित नहीं होता. संस्कृति इसलिए आखिरकार और अन्ततः सामूहिक सामाजिक अहसास है. संस्कृति खुशबू या हवा की तरह होती है. उसे भाषा या शब्दों में बांधने की कोशिश करना मुट्ठी में धुंआ पकड़ना जैसा असफल अनुभव होता है. संस्कृति एक साथ वैश्विक, देशज और स्थानीय भी होती है. उसे संकीर्ण परिभाषाओं में कैद कर समझाया नहीं जा सकता. वह एक साथ लाक्षणिक, तात्विक और अनुभवसिद्ध भी होती है.

संस्कृति की बनावट में इतनी विशेषताएं होने के बावजूद वह निरक्षर और औसत समझ के व्यक्तियों को भी अबूझी नहीं होती. हर व्यक्ति और नागरिक उससे सीधे साक्षात्कार, सहकार और सरोकार रख सकता है. संस्कृति से एकात्म होने में किसी मानवीय घटना या व्यक्ति चरित्र को बूझने की कोशिश में शब्दों में रेखांकन करना कठिन हो सकता है, लेकिन उसे परम्परा बोध में आसानी से महसूस किया ही जाता रहता है.

ऐसी थ्योरी के प्रतिपादक लोहिया वैश्विक मानव संस्कृति के भी इन्सानी संस्करण थे. राजनीति उनके लिए संयोग, ऐच्छिक मजबूरी या प्रतिबद्धता हो गई होगी. सभी संभावित मनुष्य आयामों में किसी एक के सहारे भी जी लेना जीवन जीना तो होता है. लोहिया लेकिन अपने एक निबंध के शीर्षक की परिभाषा में एक साथ ‘मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित’ व्यक्तित्व लिए जीते रहे. उन्हें जीवन ने अपनी कई मर्यादाओं से रचा था. जीवन ने ही उनमें उन्मुक्ति की चाह पैदा की और असीमित भी बनाया.

‘संस्कृति हरदम बहुआयामी होती है इसलिए संस्कतिपुरुष अपने आप में पूरे जीवन का रोज नया बनता गतिशील इतिहास होता है. लोहिया का सच्चा परिचय उनका सांस्कृतिक परिचय है, यह दुर्योग है कि उन्हें राजनीति में निर्वासित कर दिया गया. उनके बहुआयामी, संवेदनशील, भावुक स्वप्नदृष्टा सौंदर्य उपासक, कोमल और करुण पक्षों को अनदेखा किया गया यद्यपि यही उनकी नियति रही होगी.’ – महादेवी वर्मा.

‘लोहिया की करुणा केवल मनुष्य नहीं पशु पक्षियों के लिए भी रही है. कलकत्ते में जीवित कछुए को काट-काटकर बेचते देखकर वे बहुत उत्तेजित हो गए थे मानो यह निष्ठुरता मनुष्यों के साथ हो रही है. एक बार घोंसले से दो तोते के बच्चे गिर पड़े उन्हें जिंदा और सुरक्षित रखने के लिए लोहिया ने उन्हें अपने बिस्तर पर मसहरी लगाकर लिटा दिया और रात भर बाहर घास पर लेटे रहे. सुबह उन्हें घोंसले में रखकर लोहिया बच्चों की तरह प्रसन्न हो उठे. घोड़े को पीटने वाले कोचवान और पत्नी को पीटने पाले किसी मजदूर पति को उन्होंने दंडित तक करने की बात तक कही,’

लोहिया तमाम मजहबों के पारपरिक या सामासिक जुड़ाव और श्रद्धा भरी आस्तिकता के प्रचारक से अलग आध्यात्मिकता के गहरे समझ घर और अधुनातन लाइट हाउस भी थे. मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरहद पर बसा चित्रकूट उनमें अनोखा स्फुरणशील सांस्कृतिक प्रेरणाएं आंतरिक कर गया.

रामायण मेला आयोजन का अभिनव वैचारिक खाका खींचते पौराणिक चरित्रों कृष्ण और शिव के समानान्तर राम को भी सांस्कृतिक धड़कन का उन्होंने मजहबी अन्धभक्ति के बनिस्बत जन प्रयोजन बनाकर अवतारवाद की परिकल्पना का सामाजिक अर्थ समझाया कि देवता को आसमान में मत खोजो, उसे धरती पर मनुष्यों के बीच ढूंढ़ो. मिट्टीसना देवता लोगों के साथ खाता, पीता, रहता है.

धरतीपुत्र राम को समाज के यादघर का स्थायी हिस्सा बनाने की परिकल्पना कर लोहिया ने धार्मिक ढकोसलों और कुरीतियों से परे रामायण मेले को देश की सांस्कृतिक धड़कन समझाया. उन्होंने आग्रह किया कि ‘राम नाम सत्य है’ नारे तर्क का यही अर्थ है कि लोकतंत्र को राम की मर्यादा से रचें. सीता के निर्वासन और शूर्पणखा के साथ हुए दुव्यवहार के किस्से को लोहिया ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में अनुचित भी कहा.

रामायणकालीन पात्रों और आदर्शों की नये सिरे से व्याख्या करते राम कथानक और काव्य पर जनमानस का प्राथमिक अधिकार बताया. लोहिया में इतिहास के असाधारण शोध छात्र की जिज्ञासाएं कुरेदती रहती थी. उनके बताने पर कई बार बुद्धिजीवियों को भी लगता इतनी साधारण बात पहले उन्हें क्यों नहीं सूझी ? उनकी पैनी नज़र तमाम ऐतिहासिक संदर्भों में लगातार मौलिक जिरह ढूंढ़ लेती थी. जनमानस भौंचक होता कि यह उसे क्यों नहीं दिखाई दिया ?

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प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा को लोहिया अपनी बड़ी बहन की तरह मानते थे. लोहिया की धर्म दृष्टि को लेकर महादेवी कहती हैं –

‘धर्म के सम्बन्ध में उनका कथन है कि धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म. धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है. यह कथन धर्म और राजनीति को परस्पर पूरक बना देने के साथ साथ धर्म को रूढ़ियों और अन्य विश्वासों से मुक्त करने की प्रेरणा देता है और राजनीति को अधिकार मद तथा स्वार्थपरता से दूर रखने की दृष्टि देकर दोनों काल खण्डों को जोड़ देता है.

उनकी वशिष्ठ, वाल्मीकि, रामायण आदि पर कही गई मौलिक व्याख्याएं पाठक को ऐसे व्याख्याता का परिचय देती हैं जो आज के वैज्ञानिक युग के संदर्भ में सर्वथा प्रासंगिक निष्कर्ष देने में समर्थ भी हैं और भारतीय मनीषा के साथ भी हैं. भारतीय रहकर बदलते हुए विश्व मूल्यों का बोध रखना और उन्हें अपनी युगान्तर बोधिनी दृष्टि के आलोक में देखना तथा दिखाना सर्वदा कठिन रहा है.

ऐसे व्यक्ति या तो विश्व नागरिक होने की महत्वाकांक्षा में भारत के शाश्वत् मूल्यों को खो देते हैं या कुछ तत्कालीन परिस्थितियों के भ्रम से भारतीय जीवन के मूल्य मानकर कूपमंडूक रह जाते हैं. लोहिया किसी प्रकार के भ्रम से ग्रस्त नहीं थे. अतः उनकी भारतीयता नवीन युग के आलोक में भी अपनी दीप्ति तथा अपनी पहचान रखती थी.’

मजहबों के आदर्शों को किस तरह आमफहम भाषा में अवाम के लिए सार्थक समझाया जा सकता है, यह महारत भी भारतीय राजनीति के दिग्गजों में गांधी के अतिरिक्त लोहिया की रही है. हैदराबाद के आर्यसमाजियों के सामने एक सभा में उन्होंने कहा था –

मुझे ऐसा लगता है कि धर्म, सम्प्रदाय के अर्थ में मतलब हिन्दू धर्म, इसलाम धर्म, ईसाई धर्म और फिर हिन्दू धर्म के अंदर भी वैष्णव धर्म, शैव धर्म वगैरह जो कुछ भी हो, उसका अर्थ सबके लिए व्यापक होना चाहिए, और वह है दरिद्र नारायण वाला कि जो सब लोगों के हित का हो. इसीलिए, मैं समझता हूं, गांधी जी ने भी धर्म को या ईश्वर को या सत्य को दरिद्रनारायण में देखा था और विशेष करके दरिद्रनारायण की रोटी में, क्योंकि दरिद्रनारायण का हित और अहित जो है, उसे ही यदि किसी अर्थ में आप धर्म समझो तो फिर करोड़ों लोगों के फ़ायदे और नुकसान की जो बातें हैं वह हमेशा दिमाग पर टकराती रहती हैं। वरना, हम लोग एक अलग-सी, इकाई दुनिया बना लिया करते हैं, चाहे धर्म की, चाहे भोग की, चाहे काम की, चाहे मोक्ष की.’

धर्म को देश का प्राण बताते साधु संत कहलाता जमावड़ा कुंभ स्नान पर्व सहित अन्य अवसरों पर प्रवचनों की घुट्टियां पिलाकर पुनर्जन्म और पाप पुण्य के चोचलों में जनता को उलझाता रहा है. उन्हें भी स्तब्ध करते लोहिया ने अपने प्रसिद्ध भाषण दिये थे कि धार्मिक समागम को चाहिए कि गंगा और यमुना सहित नदियों को साफ करे क्योंकि इससे ज्यादा और परिणामधर्मी कोई धर्म नहीं हो सकता.

उन्होंने कहा था औद्योगिक कचरा तथा कारखानों और अस्पतालों का प्रदूषित द्रव नदियों में ज़हर घोल रहा है. सांस्कृतिक इतिहास की कोशिकाएं बनीं ये नदियां मृत्यु के बाद भले ही वैतरणी बनकर मोक्ष दिलाने की सहायिकाएं बताई जाएं, फिलहाल ये खुद लाचारी के नाबदानों में तब्दील की जा रही हैं. अचरज है धार्मिक संतों के जमावड़े के अलावा राजनीतिक गलियारों में भी इस राष्ट्रीय कर्तव्य की तब तक अधिनियम रचने की कौंध नहीं थी. संसद में भी इस तरह का कर्तव्य बोध नहीं गूंजा था.

उसे तो लोहिया के जेहन की गतिशीलता, उर्वरता, मौलिकता से निकलना था. समाजोन्मुखी वैज्ञानिक सोच की बुनियाद पर लोहिया ने मजहबी पाखंड, आडंबरों, चोचलों और बांझ पारंपरिक नस्ल के होते जा रहे धर्म सम्मेलनों को अपने अग्रगामी सोच के जरिए झिंझोड़ दिया था.

इन सामाजिक जिम्मेदारियों को संवैधानिक अभिव्यक्ति में बूझने पर संसद ने जल प्रदूषण (नियंत्रण) अधिनियम, 1974, वायु प्रदूषण (नियंत्रण) अधिनियम, 1981, और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 सहित कई सुधारात्मक कानून रचे. उसके वर्षों पहले लोहिया चले गए थे. अन्य कई अभिव्यक्तियों में भी लोहिया ने धर्म और संस्कृति के गहरे सामासिक संबंधों की उदात्तता से उत्पन्न सबसे मुखर महत्वपूर्ण संवैधानिक कर्तव्यबोध जीवित किया. वे जीवित रहते तो पर्यावरण संरक्षण को लेकर उनकी सोच के कई नए मानक इतिहास को दिखाई देते.

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लोहिया की भाषा अर्थभरी, साहसी, वाचाल, उर्वर, भविष्यमूलक और स्वप्नशील होकर भी आमजन की चेतना और समझ से जुड़ी रही. उन्होंने पौराणिक मिथकों, किवंदंतियों, अफवाहों और किस्से कहानियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते उनसे सामाजिक यथार्थ के अपने सिद्धांत मौलिक सूझबूझ से सूत्रबद्ध किए. ‌ कृष्ण के अस्तित्व का विवेचन उन्होंने एक अनोखे मनोवैज्ञानिक आयाम में किया. उस मीमांसा के सामने शास्त्रीय नस्ल की टीकाएं बौनी और अपूर्ण लगती हैं.

लोहिया का तर्क था कि कृष्ण की सभी वस्तुएं दो हैं. दो मां, दो बाप, दो बल्कि कई प्रेमिकाएं, दो नगर वगैरह. फिर कहा कि गौरतलब है कृष्ण के लिए पराई अपनी से ज़्यादा महत्वपूर्ण और दिल के करीब है. अपनी गढ़ी अनोखी भाषा की रोशन फुलझड़ी जलाते लोहिया ज्ञानोदित करते हैं कि ‘पराई’ का ‘अपने’ रक्त संबंध से श्रेष्ठ या ऊपर हो जाना ही तो कृष्ण हो जाना है. उनमें विवेकशास्त्र की ऐसी कई बानगियां रही हैं. लोहिया ज्यादा वर्षों तक जीवित रहते तो मानवीय समझ का भंडार लगातार विकसित और समृद्ध करते.

राम, कृष्ण और शिव जैसे पौराणिक प्रतीक-चरित्रों की निजता और समाज पारस्परिकता की कथाओं से निकले युग-सत्यों को जनवादी बनाकर अवाम की समझ में उतार देना इतिहास ने लोहिया से सीखा. त्रेता और द्वापर युगों की राजनीतिक परिस्थितियों, कूटनीति, दुर्बलताओं और नीतिशास्त्र के आदर्शों और आडंबरों के भी विरोधाभास को समझने के वातायन बने त्रिदेव वह सांस्कृतिक इतिहास भारत को दिखाते हैं, जो लोहिया के बाइस्कोप के कारण देखना सुलभ हुआ. विश्वामित्र हों या वशिष्ठ, उन्होंने गुरुओं को भी प्रतीकों, प्रवक्ताओं या सिद्धांतों के प्रथम पुरुषों की तरह इस्तेमाल करते तत्कालीन नैतिक व्याख्याओं की सार्थक भूमिकाएं सौंपीं. इतिहास ने अन्यथा तब तक बहुप्रचारित चरित आख्यानों पर ही विश्वास किया रहा होगा.

हिन्दू, मुसलमान, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, बेरोजगारों और पिछड़े वर्गों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जद्दोजहद के भारत बोध को पौराणिक मिथकों के इस्तेमाल के जरिए साधारणजन के जेहन में उतार देना लोहिया ने कर दिखाया. समाजशास्त्र की ठर्र भाषा में गुर्राती यूरोपीय अवधारणाएं भारत के अंतरिक्ष में उछाल दी गई थीं. उनको भारतीय स्वाभिमान-सन्दर्भ में परोसते समय शायद साहसिक लोहिया की प्रतीक्षा कर रहा था.

भारत के लिए अगाध निष्ठा के साथ साथ पश्चिमी संस्कृति के उदार तत्वों के प्रति आदर की भावना भी लोहिया में थी. अधकचरे सांस्कृतिक सहवास की उपज एंग्लो-इंडियन संस्कृति को लेकिन वे तिरस्कृत करते रहे. उनकी राय में वह अंग्रेजी राज और अमेरिकी पूंजीवाद की बौद्धिक विजय का कूड़ाघर है इसलिए कई (शिक्षित) हिन्दुस्तानियों द्वारा (भी) अंग्रेजी बोलने के (कृत्रिम, भोंडे और गलत) प्रयोग के प्रति वह अपनी नापसन्दगी जाहिर करते रहते थे.

रेस्तराओं और होटलों में शगल करने की आदत को समाजसेवा के जतन के प्रचार में बंधे कस्बाई बुद्धिजीवियों को अंग्रेजी हावभाव की गलत नकल करते देख उन्हें कोफ्त होती थी. वे ऐसे लोगों को ‘फोनी वेस्टर्नर्स‘ कहते. लोहिया एक ओर मुफलिसों, निरक्षरों और किसानों तथा दूसरी पश्चिमपरस्त शासक वर्ग और उद्योगपतियों के दरम्यान लगातार चौड़ी होती जा रही भयानक घाटी से देश को नहीं गुजरने देना चाहते थे. ऐतिहासिक कालबोध लिए उन्हें अगली पीढ़ियों की दहशतजदा जिन्दगी का त्रासद इलहाम भी हो गया था.

‘अंग्रेजी हटाओ आंदोलन’ ऐसी ही वजह से उनके जीवन का मकसद बन गया. लोहिया पहला जननेता था, जिसने गांधी से भी ज़्यादा कर्मगत होकर भाषा के सवाल को भूख से जोड़कर ऊंघते इतिहास को जाग लेने की बांग दी. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते खुद को गंभीर दिखते समाज से अलग-थलग रहते, लेकिन अपने को महत्वपूर्ण समझते अहंकारी कलाकारों के लिए लोहिया में किसी तरह का झुकाव या संवेदन नहीं था. उनकी रुचि बेहद कुलीन और अभिजात लगते लोग समझ नहीं सकते थे.

लोहिया विश्व के महान संगीतकारों, बाख, और पाॅल राॅब्सन और कुंदनलाल सहगल आदि के मुरीद रहे हैं. लोहिया को प्रसिद्ध नाटककार जाॅर्ज बर्नर्ड शॉ के प्रसिद्ध नाटक ‘पिग्मैलियन’ की कथा पर आधारित फिल्म ‘माय फेयर लेडी’ इतनी पसंद थी कि उसे पता नहीं कितनी बार देखा होगा.

लोहिया को भारत से असाधारण प्रेम था और पश्चिम की तमाम अच्छाइयों के भी वह बहुत बड़े प्रशंसक थे. भारत में पनप चुकी श्रेष्ठि वर्ग की इंडो एंग्लियन संस्कृति से बेसाख्ता नफरत करते थे. उनको लगता था वह वल्गर याने कुलविहीन संस्कृति है. अंग्रेजियत की फूहड़ नकल करते लोगों पर लोहिया प्रहार करते थे. वे समझते थे अधकचरी बुद्धि के ये लोग भारत की मूल संस्कृति किस तरह नष्ट कर रहे हैं. इन्हें ठीक से पश्चिमी भी बनना तो नहीं आता है.

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प्रौढ़ता आने पर खान-पान की आदतों में लोहिया बहुत सरलता से मिल जाती वस्तुओं से पेट भरने लग गए थे. यह नकली प्रतिबन्ध नहीं था. एक बार किसी पाश्चात्य भोजन वाले रेस्तरां में जाकर उन्होंने मिठाई की हिन्दी में फरमाइश कर दी. वेटर अपनी नौकरी के लिए अंग्रेजीदां बनाया गया था. उसने अंग्रेजी में ही कहा यहां मिठाई नहीं मिलती. यह पश्चिमी भोजन का रेस्तरां है. उसके चेहरे पर हिंदी या हिंदुस्तानियत के लिए वितृष्णा-सी झिलमिलाते देखकर लोहिया ने अंगेरजी में पूछा ‘क्या यहां ‘स्कोन्स (केक) मिलते हैं ?’ वेटर बेचारा भौंचक हो गया. उसने यह शब्द ही नहीं सुना था. वह हिंदी जुबान में लौट आया और बोला ‘आप जो कह रहे हैं, वह तो शायद नहीं है, लेकिन आपको पेस्ट्री मिल सकती है.’ लोहिया भी हिंदी में लौट आए और कहा ‘भूल जाओ. तुम लोग सब फोनी वेस्टर्नर्स हो.’

लोहिया अंगेरजी गद्य और वक्तृता में महारत रखते थे लेकिन फिर भी उन्होंने हिन्दी में अभिव्यक्ति का अपना एक नया संसार रचा. गांधी ने भी आज़ादी के बाद बहुत दु:ख में कहा था कि ‘जमाने से कहो गांधी अंगरेजी भूल गया है.’ लोेहिया का हिन्दी भाषा का प्रेम उस राष्ट्रीयता से लकदक था जो उन्हें तात्विकता में 56 इंच की छाती का बना देती थी. उनकी देशभक्ति कोई भावुक जोश नहीं, उनके विश्वास का हलफनामा था जिसके बिना लोहिया के व्यक्तित्व की परिभाषा अधूरी रहेगी. उन्होंने मुल्क को कभी मां के फ्रेम में न देखकर अवाम के संकुल में देखा था. यही उनके लिए देश होने का अर्थ था. ठीक यही तो विवेकानन्द भी कहते थे कि देश का मतलब नदी, पहाड़, आसमान, वनस्पति और पशु पक्षी तक नहीं मुख्यतः मनुष्य हैं.

कसैले व्यंग्य भरे फतवे लेाहिया पर कसे जाते रहे कि कुआंरा रहने के कारण स्त्री को लेकर उनके नज़रिए में खास तरह का अबूझा रोमांटिसिज़्म गहरा गया है. स्त्री पुरुष के पारम्परिक और बांझ बना दिए गए रिश्तों के खिलाफ लोहिया में विरोध करता मौलिक किस्म का खुलापन था. कन्नौज के होने के कारण कहते थे मैं रामायण के इलाके अर्थात अयोध्या का हूं. उनमें लेकिन कृष्णकालीन सर्वज्ञात नायिकाओं द्रौपदी और राधा को लेकर जीवन ज़्यादा खदबदाता रहता था. लोहिया ने बेलाग कहा द्रौपदी ही भारतीय नारी का आदर्श हैं.

वे स्त्री को अबला या पुरुष पर निर्भर संपत्ति या देह मात्र नहीं मानते थे. उनकी स्थापना थी कि स्त्री स्वायत्त है, परिपूर्ण है और उसमें क्षितिज तक पहुंचने की अनदेखी लेकिन अपूर्व संभावनाएं हैं. नारी शुचिता की वकालत करते लोहिया ने स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार दिया जाये वाला पारंपरिक जुमला ठीकरे की तरह नहीं फोड़ा.

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स्त्री को अपनी मंज़िल तक पहुंचने के सभी आयाम उन्होंने अपने चिंतन में उकेर दिए थे. उनके लिए स्त्री होने का अर्थ एक ऐसी सर्वसंभावना संपन्न औरत से था जो ज़रूरत पड़ने पर पुरुषों को मात देते इतिहास का बोझ अपने कंधों पर उठा ले. रंगभेद की दुनिया के सौंदर्यात्मक अत्याचारों और गोरों के व्यभिचारों से पीड़ित सांवली बल्कि काली स्त्री को लोहिया ने आदर देने जेहाद छेड़ा. उन्होंने जोर देकर कहा गोरी के मुकाबले सांवली स्त्री में कुदरती लावण्य, यौन शुचिता और असीम प्रेम करने की अपूर्व गुंजाइशें होती हैं.

नृतत्व शास्त्र के किसी सिद्धांत का उल्लेख किए बिना लेकिन उन्हें जानते हुए लोहिया ने मनुष्य की अभिव्यक्ति की प्रेम व्याख्याओं में ऐसी समझ विकसित की कि स्त्री विरोधी सौंदर्यशास्त्र की प्रचलित पुरुष अवधारणाओं को खामोश होकर हथियार डालने पड़े.

आज भी नारी अधिकारों को लेकर जो सार्वजनिक बहसें चल रही हैं. लोहिया ने ही उनकी शुरुआत सुरंग में बारूद रखकर कर दी थी. अब उसका दुहराव भर हो रहा है, लेकिन फिर भी ढीला ढाला, फीका और लगभग बेमन से. इतिहास की लेकिन वह मजबूरी हो चुकी है. लोहिया ने अद्भुत वाक्य कहा था कि इतिहास में नारी अगर नर के बराबर हुई है, तो केवल ब्रज में और वह भी कान्हा के पास.

कृष्ण को केन्द्र में रखकर उनके सामने अपना संपूर्ण नारीत्व उघाड़ती द्रौपदी और वृन्दावन में अपराध बोध रहित होकर, राधा-ये दोनों किरदार पारम्परिक समझ के प्रचलित यौन-समीकरणों के परे हो गई थी. लोहिया ने कहा पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक जिसे ‘अवरुद्ध रसिकता’ के नाम से जानते हैं. वह ग्रंथि तक महाभारत काल की इन महान नायिकाओं के जेहन में नहीं थी. स्त्री पुरुष के ऐसे संबंधों का कोई छोर या अंत नहीं होता. वह अनंत हो चुका ही प्रजनित होता है.

नारी के लिए लोहिया के मन में आदर देने की ललक थी. वे पूरी दुनिया लेकिन भारत में ज़्यादा नर नारी की गैरबराबरी को लेकर परेशान थे. उनकी तयशुदा मान्यता थी कि नारी शारीरिक ताकत में तो पुरुष से कमज़ोर होती है इसलिए उसे विशेष अधिकार और सुविधाएं समाज में मिलनी ही चाहिए. भारतीय नारियों की पश्चिमी वेशभूषा और फैशन तथा खूबसूरत दिखने के ठनगन और जतन के कई असंगत तौर तरीकों के प्रति लगाव से लोहिया नाखुश भी होते थे.

उनकी सपाट राय थी कि समाज के संतुलित विकास के लिये नारी को संगठनात्मक, तालीमी और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को लेकर ज्यादा जगहें और अधिकार दिए जाएं. मधु लिमये ने स्वीकार किया है कि ‘लोेहिया स्त्री-पुरुष समानता के बड़े समर्थक थे किन्तु उनके जीवन में समाजवादी कभी एक स्त्री कार्यकर्ता को लोकसभा तक नहीं पहुंचा सके.’

समझना मुश्किल होता कि स्त्री के प्रति भद्रता उनमें अंतर्निहित हो गई थी अथवा उसके लिए अनजाने में मनोवैज्ञानिक प्रयत्न होते थे. लोहिया में तहजीब का सम्मिश्रण बनारस और बर्लिन की पढ़ाई से संयुक्त रूप से उपजा. वह परंपरा में आधुनिकता और आधुनिकता में परंपरा की खोज करने जैसे मानव विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की तरह समझा और पढ़ा जा सकता था.

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जातिवाद की समस्या पर लोहिया

जातिवाद की समस्या से लोहिया को सबसे अधिक परहेज था, बल्कि नफरत थी. वह राज्य शक्ति के अहंकार को भी जातीय हिंसा से जोड़ने के अनोखे अन्वेषक थे. ऐसा नहीं है कि लोहिया और उनकी वैचारिकता को सत्ताशीनता की अनुकूलता से प्रतिरोध, विसंगति, विषमता या अनिच्छा रही हो. गांधी की तरह के बड़े नेता बनने की दमित महत्वाकांक्षा भी यदि उनमें रही हो या पनपना चाहती रही हो तब भी लोहिया की प्रकृति में कोई बनावटीपन नहीं था. उनमें एक साथ देश के कई बड़े नेताओं का उभयनिष्ठ सोच गहरा गया था. ज्या़दा से ज्या़दा लोगों को ज्या़दा से ज्या़दा वैचारिक कार्यक्रम और मुद्दों पर एक साथ लोहिया संबोधित करना चाहते थे. एक तरह से उन्हें बहुत व्यग्रता और बहुत जल्दी भी थी. जाति प्रथा के लोहिया जानी दुश्मन थे. भाषणों, लेखों, चिंतन और कर्म के जरिए उन्होंने धर्म, इतिहास, संस्कृति, समाज, राजनीति सभी कसौटियों पर कसकर उसे एक खोखली, जंगली और वहशी प्रथा घोषित किया.

लोहिया के निकटतम सहयोगी राजनारायण ने भारतीय जातिवादी समस्या और वर्गविहीन समाज की मार्क्सवादी रचना के आदर्शों को लोहिया की दृष्टि से खंगालते हुए कहा है ‘समता को साकार और सगुण करने के तर्क को वे आगे ले जाते थे और भारतीय समाज में जो जातीय आधार पर एक बहुत बड़ा हिस्सा पिछड़ा और अछूत जातियों का है, उसे हर दृष्टि से उठाने के हेतु विशेष अवसर देने के वे प्रबल समर्थक थे. वे न केवल विधायिका और कार्यपालिका में सठ प्रतिशत स्थान उनके लिए सुरक्षित करने के पक्षधर थे, बल्कि पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में भी वे इस सिद्धान्त का अनुपालन करने का आग्रह रखते थे.

जिन वर्गविहीन समाज की रचना का आदर्श कार्ल माक्स ने अपने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में स्थापित किया था, उसे डाॅ. लोहिया ने भारतीय समाज के सन्दर्भ में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की संज्ञा से अभिहित किया था. वे जाति को वर्ग का गतिहीन रूप और वर्ग को जाति का गतिशील रूप मानते थे. उनका कहना था कि वर्ग ही कालांतर में रूढ़ होकर जाति बन जाता है. अतः समता स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि जातियों को तोड़ा जाये. ‘इस कार्यक्रम को चलाने के लिए उन्होंने अलग से ‘जाति तोड़ो सम्बोधन’ का संगठनात्मक ढांचा खड़ा किया था.’

रंगभेद के कट्टर विरोधी लोहिया

लोहिया रंगभेद के कट्टर विरोधी थे. उन्होंने मनुष्य विरोधी इस वहशी प्रथा पर आर्थिक, राजकीय, श्रृंगार शास्त्र तथा सौन्दर्य शास्त्र के नजरिए से भी विचार किया था. उन्हें इस पर गहरा एतराज था कि गोरी जातियों को गैरमानवीय आधारों पर सुन्दर और कुलीन मान लिया गया है.

उनका सीधा तर्क है कि प्राचीन सभ्यताओं वाले मिश्र और भारत आखिर सांवली जातियों के ही देश हैं. कवियों और चित्रकारों के उदाहरण देकर तर्क किया कि विशुद्ध कलात्मक स्तर पर तो जातीय सीमाएं खत्म हो जाती हैं. आर्थिक गैरबराबरी के खिलाफ लोहिया ने अकेले जितना संघर्ष किया, उतना कई नामधारी संस्थाएं नहीं कर सकीं. उन्होंने शोषक गैरबराबरी की फकत जबानी आलोचना ही नहीं की, बल्कि उसके समाधान के लिए रचनात्मक समाजवादी आर्थिक सिद्धांतों और कर्म करते रहने का ऐलान दुनियावी ज्ञान के हवाले किया.

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सन् 1936 में डाॅ. लोहिया ने ‘नागरिक स्वाधीनता का संघर्ष‘ पुस्तिका की रचना की थी. भूमिका पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखी. आज़ादी के बाद आंतरिक आपातकाल में दिनेश दासगुप्ता ने इसे छपवाया और उसके तीन दशक बाद नागपुर के श्री हरीश अडयालकर ने.

‘नागरिक स्वाधीनता क्या है’ और ‘भारत में नागरिक स्वाधीनता की अवस्था’ 1936 में प्रकाशित ‘द स्ट्रगल फाॅर सिविल लिबर्टीज़.’ डाॅ. लोहिया ने अखिल भारतीय कांग्रेस के विदेश-विभाग के सचिव रहते लिखी थी. कांग्रेस के विदेश-विभाग ने इसे जवाहरलाल नेहरू की भूमिका सहित प्रकाशित किया था.

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध नागरिक अधिकारों और आज़ादी की लड़ाई में शहीदों की कुर्बानी के बाद विभाजित देश के संविधान में नागरिक और व्यक्ति स्वाधीनता के अधिकारों तथा अन्य अधिकारों को लिपिबद्ध किया गया. अपनी इस असाधारण, मौलिक और धारदार पुस्तक में लगभग पहले भारतीय की तरह लोहिया लिखते हैं –

‘नागरिक स्वाधीनता की रक्षा के लिये सभी प्रकार की खाइयां खोदनी चाहिये और किले बनाने चाहिये. नागरिक स्वाधीनता के लिये किया जाने वाला आंदोलन ऐसी ही एक खाई है और एक किला है. हो सकता है कि आंदोलन से सिर्फ जनमत ही मजबूत हो लेकिन यह भी संभव है कि राज्य को झुकना पड़े. इस तरह की काफी घटनाएं हुई हैं जब जनता की अनवरत मांग के आगे प्रशासन या उसके अफसरों के पहले के आदेश रद्द किये गये हैं और राजनीतिक बंदियों की रिहाई हुई है.

ऐसी बात नहीं कि नागरिक स्वाधीनता का सिर्फ हमारे देश या किसी अन्य देश में ही उल्लंघन हो रहा है, दुनिया का बड़ा हिस्सा कमोबेश आज एक जेलखाना बन गया है। विश्व का जनमत आज नागरिक स्वाधीनता के हनन का पहले से कहीं ज्यादा प्रतिवाद करता है। कहीं भी जब नागरिक स्वाधीनता का उल्लंघन होता है तो विश्व जनमत तुरन्त उसके विरोध में संगठित रूप से आवाज उठाता है। राष्ट्रीय नागरिक स्वाधीनता यूनियनों को आपस में सूचनाओं और प्रचारात्मक साहित्य का आदान-प्रदान करना चाहिये.’

सरकारी और मठी गांधीवादियों की अहिंसा को लोहिया ने कमजोर हिंसा और अहिंसा का मिश्रण कहा. इसका अर्थ था सेवाएं भी रखो लेकिन युद्ध में उनका ठीक से इस्तेमाल मत करो. (अपनी जनता के दमन के लिये भले ही इन्हें बहादुरी के पुरस्कार दो), इकतरफा निःशस्त्रीकरण की बात करो, मध्यस्थता, पंच-फैसला, द्विपक्षी बातचीत, प्रतिरक्षा की तैयारी के बहाने युद्ध की चुनौती को टालो आदि-आदि. ये सब प्रतिरोध से बचने के तरीके हैं.

लोहिया ने इसे कमजोर हिंसा और अहिंसा का मिश्रण इसलिए कहा कि उनके अनुसार ‘अहिंसा के दो गुण हैं निहत्थापन और प्रतिरोध. इनमें से किसी एक को छोटा करना बड़ी भारी गलती होगी. अगर प्रतिरोध में कमी आई तो निहत्थापन कायरता और अन्याय के आगे सिर झुकाना होगा. यह आगे चलकर हथियारों और युद्ध को बढ़ावा देगा.’ (लोहिया रचानावली खंड एक : पृष्ठ 147-149).

एक बार लोहिया ने गांधी के संस्मरण सुनाते हुए गांधी जी की एक महत्वपूर्ण बात बताई  – ‘1916 में गांधी जी ने कहा था कि मेरा देश कायरता और पौरुषहीनता के कारण मार्शल लाॅ के सामने झुकने के बजाए अगर कोई वाइसराय की हत्या करता है तो मैं उसे पसंद करूंगा.’

लोहिया ने अहिंसा को एक और आयाम भी दिया. यह है करुणा-मिश्रत क्रोध की अहिंसा. इसे भी बापू की देन ही कहा जा सकता है, जिसके वशीभूत होकर कभी बापू ने कहा था कि जिस वाइसराय पर असंख्य लोगों को भूखा-नंगा रखकर अधिक खर्च किया जाता है, उसका तो मर जाना ही अच्छा है. लोहिया ने इसे खूबसूरत उपमा दी एक आंख में करुणा के आंसू एक में क्रोध की लाली.

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उनके जीवनीकार ओमप्रकाश दीपक के अनुसार लोहिया गांधी जी के भक्त थे, लेकिन गांधीवादियों के प्रशंसक नहीं. बाद में उन्होंने नेताओं की इस पीढ़ी के लगभग सभी लोगों के बारे में अपनी राय दोहरायी लेकिन उस समय देश के अधिकांश शिक्षित नवयुवकों के समान अठारह-बीस साल के राममनोहर लोहिया को भी जवाहरलाल नेहरू के चुंबकीय व्यक्तित्व ने मुग्ध कर लिया था.

उन दिनों का एक किस्सा लोहिया ने सुनाया, ‘जवाहरलाल नेहरू ने एक सभा में भाषण करते हुए कहा –  किंग्डम आफ हेवन इज फार पुअर‘ (स्वर्ग का साम्राज्य गरीबों का है). उस बात को जब श्रोताओं के साथ सुना मैं भी चमत्कृत हो गया. फिर एक खट्टी-सी मुस्कान, ‘यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि यह वाक्य उन्होंने कहां से चुराया था.’ (वाक्य इंजील का है).’

सुभाष बोस का व्यक्तित्व भी उन्नत था., आकर्षण था लेकिन इसके अलावा कि उनकी गांधी जी के साथ कभी नहीं बनी, लोहिया को उन्होंने शायद इसलिए भी अधिक आकर्षित नहीं किया कि उनमें सभ्यता और इतिहास संबंधी यह व्यापक दृष्टि नहीं थी जो नेहरू में थी. विश्व क्रांति और विश्व बंधुत्व का जो सपना उन दिनों खोजा जा रहा था, और भारतीय नेताओं में जिसका स्वर जवाहरलाल नेहरू में सबसे अधिक मुखर था, उसमें लोहिया जैसे नौजवानों के लिए एक सहज आकर्षण था.

ठोस सामाजिक परिवर्तनों के प्रति लोहिया की स्थापना

मधु लिमये के अनुसार लोहिया समाजवादी थे और वे ठोस सामाजिक परिवर्तनों के प्रति समर्पित थे. देश के स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के बाद जो मुख्य बात लोहिया को उकसाती थी वह थी भारत व पाकिस्तान के बीच एकता और उनका फिर आपस में मिल जाना. उनकी आकांक्षा सिर्फ यह देखने की नहीं थी कि ऐसे समाज की स्थापना हो जो उनके अनुसार आर्थिक एकता, जो कि हासिल की जा सकती है, पर आधारित हो, उनकी तीव्र इच्छा सामाजिक समानता की स्थापना देखनी थी.

वह अपने सात सूत्रीय प्रस्ताव के अंग के रूप में स्त्री व पुरुष के बीच सामंजस्य भी चाहते थे. लोहिया ने इन वैश्विक प्रस्तावों की विवेचना निम्नलिखित रूप से की  –

  1. स्त्री-पुरुष समानता के लिए
  2. रंग भेद पर आधारित असमानता के विरुद्ध
  3. सामाजिक व जातिगत असमानता के विरुद्ध तथा विशिष्ट अवसरों के समर्थन में
  4. उपनिवेशवाद तथा विदेशी शासन के विरुद्ध
  5. अधिकतम प्राप्त की जाने वाली आर्थिक समानता
  6. व्यक्तिगत गोपनीयता तथा लोकतान्त्रिक अधिकार के लिए तथा
  7. हथियारों के विरुद्ध तथा आतंक के विरुद्ध नागरिक अवज्ञा के पक्ष में

यह लोहिया के समाजवाद का सार था, उन समस्याओं के सन्दर्भ में, जो भारत तथा विश्व के समक्ष थी.

डाॅ. सदा शिव कारंत के अनुसार इस संबंध में लोहिया ने दो नीतियां सुझाईं. एक नीति पाकिस्तान के प्रति और दूसरी देश के भीतर लागू करने के लिए. पाकिस्तान के प्रति उन्होंने महासंघ बनाने की नीति की हिदायत की. उनका कहना था कि भारत को पाकिस्तान के साथ महासंघ बनाना चाहिए.

चूंकि पाकिस्तान के सत्तारूढ़ वर्ग द्वारा इसके अस्वीकार किये जाने की संभावना थी इसलिए डाॅ. लोहिया ने सुझाव दिया कि इस विचार को दोनों देशों की जनता के संबंध बढ़ाकर पाकिस्तान की जनता तक पहुंचाया जाना चाहिये. दोनों देशों की जनता के बीच यह संबंध विरोधी दलों को, विशेष रूप से समाजवादी शक्तियों को स्थापित करना चाहिए.

डाॅ. लोहिया का विचार था कि महासंघ बनाने की यह नीति तभी सफल हो सकती है जबकि उससे संबद्ध आंतरिक नीतियां अपनायी जायें और उनको क्रियान्वित किया जाये. इसके लिए उन्होंने उन दो मुद्दों पर अधिक जोर दिया – 1) मुसलमानों सहित सभी भारतीय जन के लिए समान नागरिक आचार संहिता, 2) आर्थिक विकास औैर आर्थिक तथा सामाजिक समानता के लिए एक सशस्त्र नीति समान आचार संहिता.

हिंदू और मुसलमान के बीच के अवरोधों को दूर करके मुसलमानों को भारतीय सामाजिक जीवन की मुख्य धारा में मिलायेगी. इसमें मुसलमान स्वयं को भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग समझेंगे और उनकी अलगाववादी भावना दूर होगी. वे स्वयं को सुरक्षित भी समझेंगे. एक समाजवादी समाज स्वतः ही भारत के पहले वाले मुस्लिम समुदाय के स्तर को ऊंचा उठा देगा.

भारत में ऐसा समाज बन जाने के बाद पाकिस्तान के मुसमलानों को यह अहसास होगा कि भारत और पाकिस्तान का महासंघ उनके लिए लाभप्रद है और तब पाकिस्तान में महासंघ के पक्ष में जनांदोलन होगा.

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गणेश मंत्री की समझ में लोहिया की उनकी विचार-प्रणाली के मूल में तीन तत्व प्रमुख थे. पहला तत्व था समता को, सत्य और सौंदर्य की तरह एक सार्वभौम मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करने की अदम्य आकांक्षा. इस आकांक्षा से प्रेरित होकर लोहिया ने निर्गुण और सगुण सभ्यता, पूर्ण और संभव बराबरी में तालमेल बिठाने और समता के आंतरिक तथा बाह्य के साथ-साथ मौलिक आध्यात्मिक अर्थों को समझने-समज्ञाने की लगातार कोशिश की.

आर्थिक व्यवस्थाओं में परिवर्तनों के लिए लोहिया ने चौखंभा राज, छोटी मशीन की उत्पादन प्रणाली, न्यूनतम और अधिकतम आमदनी खर्च में और 10 के अनुपात खर्च पर सीमा जैसे जो अनेक कार्यक्रम दिये, उनके पीछे भी समता के निर्गुण सिद्धान्त को सगुण कार्यक्रम का रूप देने की ही इच्छा थी.

लोहिया की विचार-दृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व का अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने की मनुष्य की क्षमता और उसकी उन्नति में सीमा सम्बन्ध. जिस राष्ट्र या समुदाय में यह क्षमता नहीं है, उसकी पराजय या पतन निश्चित है. इसीलिए लोहिया ने आंतरिक अत्याचारियों के विरुद्ध व्रिद्रोह करने की जनता की क्षमता के साथ देश की स्वतंत्रता का भी सम्बन्ध जोड़ा था.

इसी के साथ जुड़ा हुआ लोहिया की विचार दृष्टि का तीसरा महत्वपूर्ण तत्व : परिवर्तन की शक्ति के रूप में जन-साधारण में प्रबल आस्था. लोहिया की राजनीति मूलतः साधारण जन की राजनीति थी, छोटे आदमी की राजनीति. उनको देश के बड़े लोगों, विशिष्ट वर्गों में अपने समर्थक बनाने की कभी कोई विशेष चिंता नहीं रही.

इन विशिष्ट वर्गों को जब वे ‘खानदानी-गुलाम’ या ‘दो नम्बर के राजा’ जैसे नामों से सम्बोधित करते थे, तो उसके पीछे की मान्यता यही थी कि ये वर्ग समाज को बदलने वाली, या उसका नव-निर्माण करने वाली शक्ति के सर्जक ही नहीं हैं, ये तो शक्ति के पुजारी हैं, शक्ति के निर्माता और सर्जक तो साधारणजन हैं, जो किसी युगान्तरकारी विचार से प्रेरित होकर खेतों-कारखानों, सड़कों-चौराहों, पर संगठित होते हैं और उस विचार के लिये सब कुछ करने, मरने-मारने के लिये तैयार होते हैं.

मधु लिमये का यह सार संक्षेपित कथन है कि लोहिया ने कांग्रेस को अन्यायी यथास्थितिवाद के स्तम्भ की भांति देखा. इसका अन्त करना उनका प्राथमिक लक्षण था. इसकी पराजय तथा समाजवादी पार्टी की स्थापना से उन्हें चरम आनन्द मिलता किन्तु सन् 1963 में अशोक मेहता तथा जे. पी. की राजनीति तथा उनके कार्यों ने उस आशा को ध्वस्त कर दिया था. पलटकर परिदृष्य को देखने पर सदैव ऐसा महसूस हुआ.

उन्होंने अपने स्तर से कार्य करने की चेष्टा की किन्तु वह जिस पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे, यह कार्य उसकी क्षमता के परे था. लोहिया तुच्छ महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति नहीं थे, उनकी महत्वाकांक्षा ऊंची थी और उसमें स्वार्थ का एक कण भी न था. इसी कारण से उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का आविष्कार किया ताकि गतिरोध को तोड़ा जा सके और एक प्रगतिशील आन्दोलन प्रारम्भ हो गया तथा निराशा के बादल छटें. उनकी दृष्टि से यह मात्र परिवर्तन का कारक था, न कि सत्ता का मार्ग.

लोहिया के नेहरू विरोध

लोहिया का नेहरू विरोध को लेकर शीर्ष कवि रामधारी सिंह दिनकर ने संतुलित मूल्याकंन किया है –

जिस लोहिया से मेरी मुलाकात सन् 1934 ई. में पटना में हुई थी और जो लोहिया संसद में आये, उन दोनों के बीच भेद था. सन् चौंतीस वाला लोहिया युवक होता हुआ भी विनयी और सुशील था, किन्तु संसद में आने वाले प्रौढ़ लोहिया के भीतर मुझे क्रान्ति के स्फुलिंग दिखाई देते थे. राजनीतिक जीवन के अनुभवों ने उन्हें कठोर बना दिया था और बुढ़ापे के समीप पहुंचकर वे उग्रवादी बन गये थे. उनका विचार बन गया था कि जवाहरलाल जी से बढ़कर इस देश का अहित किसी ने नहीं किया है तथा जब तक देश में कांग्रेस का राज है, तब तक देश की हालत बिगड़ती ही जायेगी. अतएव उन्होंने अपनी राह बड़ी निर्दयता से तैयार कर ली थी और वह सीधी राह यह थी कि जवाहरलाल जी का जितना ही विरोध किया जाय, वह कम है और कांग्रेस को उखाड़ने के लिए जो भी रास्ते दिखाई पड़ैं, उन्हें जरूर आजमाना चाहिए.

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फर्रुखाबाद से उनके नहीं चाहने पर भी लोकसभा सदस्य चुने गए डाॅ. लोहिया को संसद में बहुत धारदार बोलते देखकर जवाहरलाल नेहरू ने अपनी झल्लाहट में जवाब में कहा था ‘यह तो सड़क छाप, बाजार छाप भाषा बोलने के महारथी हैं.’ लोहिया ने नेहरू मंत्रिमंडल के खिलाफ रखे अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में इतनी दमदार तकरीरें की थीं कि उनकी वक्तृता का लोहा मान लिया गया था.

इस लोकसभा सदस्य ने नेहरू के जवाब देने के वक्त संसद में हाजिर रहना मुनासिब नहीं समझा. वे गैरहाज़िरी के जरिए नेहरू के लिए नफरत और दूरी का इस तरह इजहार करने का सांकेतिक प्रयत्न करते समझे गए थे.

लोहिया को आजा़दी के बाद सरकार ने 16 बार जेल की हवा खिलाई थी. यह अलग बात है कि विरोधाभास में नेहरू ने अपने सबसे कटु आलोचक की निंदा करते भी एक तरह का सम्मान दे दिया था. लोहिया अकेले सबसे बड़े राजनेता थे जिन्होंने लगातार कोशिश की थी कि राजनीति की वाचालता में शाइस्तगी, शास्त्रीयता और शुचिता के भाषायी जंगल को साफ कर उसे बोलचाल की जनभाषा में परोसने का काम लोकतंत्र और संविधान के इरादों को मजबूत करने के लिए ज़रूर किया जाए.

आजा़दी के बाद उन्होंने मतलबपरस्त राजनीतिज्ञों को अपनी बेहतरी में दत्तचित्त देखा, उससे लोहिया में ऐसे सियासतदां हुजूम के लिए नफरत का बगूला उठता गया. उन्होंने नए उत्साह और आक्रोश के साथ उपेक्षित, शोषित, पीड़ित जनता की आवाज बनकर विद्रोह तक की भाषा में खुद को दीक्षित किया.

इस बात को भी बहुत सूक्ष्मता से समझना होगा कि लोहिया नेहरू से व्यक्तिगत तौर पर नफरत नहीं करते थे, जैसा बहुतों का ख्याल है। इसी तरह लोहिया का चेहरा बिगाड़ दिया गया. दरअसल नेहरू द्वारा अपनाए जा रहे कार्यक्रमों और प्रयोगों से लोहिया इस कारण नाराज थे क्योंकि वह एक तरह से किसी एलीट वर्ग के बड़े नेता, किसी अभिजात कुल के बड़े नेता, या विचारधारा या सरकार के द्वारा एक नकली किस्म का लोकतांत्रिकीकरण करने की कोशिश या शिगूफा से ज्यादा गंभीर कुछ नहीं था/

लोहिया में इतिहास की पाठ्यक्रमित समझ

लोहिया में जबरदस्त खोजी इतिहास बोध था. मौत के पहले अर्ध निद्रा में भी लोहिया ‘राजा ने रानी को मारा‘ और ‘रज़िया बेगम‘ जैसे अर्थमय शब्द बुदबुदा रहे थे. निन्दक आलोचकों ने उनमें तत्कालीन अनावश्यक संदर्भ भी ढूंढ़े. दरअसल लोहिया के जेहन में इतिहास के कई अनछुए, अनसुलझे, अनदिखे पेचीदे सवाल बीजगणित के समीकरण के पायदानों की तरह व्यक्त होेने के लिए डूबते उतराते थे.

उनके पहले तार्किकता के जरिए हल करने के बदले इन सवालों को अमूमन फार्मूलाबद्ध घुट्टियां बनाकर पिलाया जाता रहा था. आधुनिक ही नहीं, प्राचीन इतिहास के शासनतंत्र के सन्दर्भ में जनता की भूमिका तलाशते लोहिया ने ऐसे कई उपेक्षित और गुम हो गए सवाल पहली बार खड़े किए. कुदरत ने उन्हें मुनासिब वक्त नहीं दिया कि इतिहास की फाॅर्मूलाबद्ध सलवटों पर अपने मौलिक नायाब तर्कों की इस्तरी और करते.

इतिहास की पाठ्यक्रमित समझ की गंदगी धो पोंछकर साफ करने के कई जतन फिर भी लोहिया की खोजी बुद्धि में थे. ऐतिहासिक चरित्रों जैसे अशोक और अकबर वगैरह की असरदार हैसियत पारंपरिक इतिहासकारों ने बना ही दी है. लोहिया अपनी मौलिक सांस्कृतिक जेहनियत से कबीर, तुलसीदास, चैतन्य, मीराबाई, नानक और गालिब वगैरह को उनके मुकाबले में रखते करुणामय मनुष्य-संवेदन के अभाव में शासकों को फीका चित्रित करते हैं.

इतिहास और संस्कृति को टुकड़ों, कालखंड या विभक्ति में देखना लोहिया का नज़रिया नहीं रहा. उनमें अबूझ, अदृश्य, अगम्य संस्कृति की समझ सरिता की तरह बहती रही है. यही आर्द्रता लोहिया के पूरे चिंतन में है. उस वक्त भी जब वे राजनीति के सिरफुटौव्वल कठोर दीखते सवालों से जूझते सियासी हमले और बचाव कर रहे हों.

गांधी के अलावा हिन्दुस्तानी अवाम के लिए बाकी बड़े नेताओं के मुकाबले लीक से हटकर लोहिया ने अपनी समझ का जनवादी चिन्तन किया था. पूरे भारतीय वांग्मय को नए सिरे से देखने की उनकी कोशिश होती थी. नवजागरण काल के हस्ताक्षरों राममोहन राय, महर्षि दयानंद विवेकानन्द, अरविन्द, केशवचंद्र सेन, तिलक वगैरह के अवदानों को अच्छी तरह आकलित करते लोहिया सरल, सर्वसुलभ और जनआत्मीय लोकसंस्कृति का नजरिया विकसित करते हैं. उनकी कशिश इतिहास में वह संकेत सूत्र बिखराती है कि उसे शब्दों में समेट लेने का उपक्रम करना इतिहास की नई बानगी बनाना है.

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डाॅ. लोहिया की पुस्तक में लोहिया की मौलिकता

डाॅ. लोहिया की पुस्तक ‘इतिहास चक्र’ में छोटे पैमाने पर इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र से सम्बन्धित विचार उपस्थित किये गये हैं, इनमें चार मुख्य हैं –

  1. इतिहास के अनुसार मनुष्य के जीवन का ध्येय,
  2. ऐतिहासिक परिवर्तनों के कारण एवं क्रम,
  3. आधुनिक सभ्यता की परिभाषा, उसके मूल तत्व और उसकी सभ्भावनायें, और
  4. भविष्य की सभ्यता की रूपरेखा और उसकी अनिवार्यताएं.

इन विषयों पर लोहिया की मौलिकता स्पष्ट दिखलाई पड़ती है. उन्होंने ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जो बिल्कुल नवीन हैं और भविष्य का मार्ग-निर्देशन भी करते हैं.

समाजशास्त्री सत्यमित्र दुबे ने अपनी सटीक दृष्टि से लोहिया कि इतिहास दृष्टि, सैद्धांतिकी और नई विश्व व्यवस्था को लेकर सारगर्भित टिप्पणी की है. उनके अनुसार डाॅ. लोहिया चार स्थापनाओं पर आधारित अपनी ‘इतिहास-दृष्टि’ को भारतीय इतिहास और समाज के संदर्भ में जांचने-परखने की चेष्टा करते हैं. वर्ग, वर्ण और जाति के पारम्परिक संबंध का विश्लेषण उनके ‘क्लास ऐंड कास्ट‘ और ‘जाति प्रथा‘ में मिलता है.

भारतीय इतिहास-लेखन की दृष्टि और सीमाओं पर उनका अध्ययन ‘विश्वविद्यालयों में खोज कार्य, भारतीय इतिहास लेखन और लोकसभा में उनके द्वारा उठाये गये विमर्श’ ‘भारतीय इतिहास’ की आलोचना में दिखाई पड़ता है. लोहिया का कहना है कि हिन्दुस्तान की वर्ण-व्यवस्था-इतिहास की आलोचना में दिखाई पड़ता है. लोहिया का कहना है कि हिन्दुस्तान की वर्ण-व्यवस्था अपने रहस्यों का पता तो शायद किसी खोजी को कभी लगाने न दे, लेकिन जन्म आधारित असमानता के विरुद्ध बौद्ध एवं जैन सामाजिक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन के बाद, पूर्ण सत्य और सांसारिक सत्य में अंतर कर, शंकराचार्य ने आध्यात्मिक और सामाजिक व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की एक अत्यंत महत्वपूर्ण चेष्टा की.

भारतीय इतिहास के लंबे काल में, लोहिया के अनुसार प्रजाति, भाषा, धर्म, रंग के व्यवधानों को पार करते हुए जाति ने धार्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर अतुलनीय सामंजस्य और एकीकरण की भूमिका निभाई है लेकिन सामाजिक स्तर पर हाल के दिनों में, इसके कारण असामंजस्य में वृद्धि हुई और अन्याय का गुणनफल बढ़ता गया. आज तक का संपूर्ण मानव इतिहास वर्गों का ठोस, अप्रगतिशील जातियों में बदलने और जाति की जकड़न को ढीला होकर वर्ग में बदल जाने का इतिहास रहा है.

वर्ग और जाति को जो लोग समाप्त करना चाहते हैं, उन्हें मानव इतिहास को संचालित करने वाली इस प्रक्रिया को समझना और तदनुरूप उन प्रयत्नों की पद्धति विकसित करनी होगी, जो दोनों को समाप्त कर सके. इतिहास इस काम को स्वयं नहीं करेगा, भारत की नई जीवन शक्ति जाति की जड़ता को कमजोर कर वर्गीय गतिशीलता को बढ़ावा दे रही है. ‌ आंतरिक असमानता की समाप्ति का संघर्ष आरंभ हो चुका है. यूरोपीय संरचना से जुड़ा पूंजीवादी अथवा साम्यवादी विचार इस प्रक्रिया को बंदी बना देगा.

संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से, यूनेस्को ने मनुष्य का इतिहास लिखने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग बनाया था. लोहिया ने यूनेस्को द्वारा प्रकाशित पुस्तक की भूलों को लेकर मार्च, 1966 में भारतीय लोकसभा में बहस चलाई थी. अपने भाषण का उपसंहार करते हुए उन्होंने कहा था कि इतिहास और गणित के मामले में शिक्षा मंत्री और सरकार कुछ करें. हमारे बच्चों को अपने अतीत के सही बोध के लिए इतिहास और विज्ञान की नई खोज के लिए गणित का ज्ञान आवश्यक है; इन्हीं दो के ऊपर आज का भारत बनेगा या बिगड़ेगा.

लोहिया का विरोधाभासी व्यक्तित्व

विश्व की उच्चस्तरीय राजनीति में बहुत कम नेता हुए हैं, जिनका निजी चेहरा उनके सार्वजनिक चेहरे से असावधानी, रहस्यमयता या जानकारी के बावजूद अबूझा रह गया हो. लोहिया की मानसिक बनावट यूरोप की काॅफी हाउस गप्पघर की संस्कृति के जागरूक और वाचाल बुद्धिजीवी नस्ल के तंतुओं से भी बनी समझी जाती रही है. लोगों को लगता यह व्यक्ति दिल्ली, लखनऊ या पटना के काॅफी हाउस में बैठने वाला बड़बोला वाचाल चरित्र है, इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए.

लोहिया की अन्दरूनी और असली बनावट मुफलिसों, रिक्शेवालों, खोमचेवालों, दफ्तरी बाबूओं, मजदूरों, विद्यार्थियों, पत्रकारों, शायरों और समाज से बहिष्कृृत लोगों के साथ अंतरंगता में बैठकर संवेदनशीलता से उनकी बातें सुनते, सलाह देते, जिरह करते, झिड़की देते, खाते आमतौर पर रही है. बुरी से बुरी और कड़वी से कड़वी बात सुनकर उसे जज्ब कर लेना भी लोहिया के कौल में रहा है, जैसे जहर पीने से किसी का नाम नीलकंठ हो जाता है. लोहिया मूलतः एकाकी व्यक्ति थे. उन्हें अपनी एकांतिकता से भी बहुत प्यार था, लेकिन भीड़ द्वारा अपनाए जाने को बहुत व्यग्र और बेचैन रहते थे. यह अजीब तरह का रोमांटिक विरोधाभास था. वह उनकी शख्सियत को नई तरह से पड़ताल करने की चुनौती और दावत देता है.

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लोहिया के व्यक्तित्व में विरोधाभास है. ऊपरी तौर पर उनका व्यक्तित्व जटिल, पेचीदा और अनिश्चित-सा लगता रहा. अपनी युवावस्था में अलबत्ता लोहिया विनम्र, मितभाषी और जिदरहित दिखाई देते हैं. बाद में खासतौर पर आजा़दी के संघर्ष में कड़ी यातना झेलते, अंगरेजों की जेलों में यातनाएं सहते और आजादी के बाद निजाम का अवाम के साथ गैरजिम्मेदार बल्कि असंवैधानिक रुख देखकर लोहिया के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, आक्रोश और कठोरता के साथ विरोध करने का सैलाब उमड़ने लगता था. वे इन दिनों बेचैन और अधीर होने के साथ तुनकमिजाज भी हो चले थे.

किसी व्यक्ति के चरित्र को बताने के लिए अमूमन व्यक्तित्व के तयशुदा फ्रेम होते हैं. उनमें किसी चौखटे में लोहिया की तस्वीर नहीं डाली जा सकती. ऐसे कई वक्त आए हैं जब वे उदास, अवसाद भरे, एकाकी और निराश भी दीखते रहे. तब भी उन्होंने ‘निराशा के कर्तव्य’ जैसा बहुमूल्य निबंध आस्था की रोशनाई से लिखा. कई तरह के सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक बंधनों के मद्देनजर आजाद ख्याल के लोहिया किसी पिंजड़े में बंद किए जाने जैसा आत्मबोध उजागर करते रहे. वैसे क्षण भी लेकिन उनकी निर्मिति के ताजातरीन आयामों को उद्घाटित करते थे.

लोहिया व्यावहारिक राजनीति के खिलाड़ी होने के बावजूद आदर्शवादी राजनीतिज्ञ ही थे. उनके जीवित रहते ही बीसवीं सदी में राजनीति व्यवसायवादी होती गई. इससे भी लोहियाई आदर्श राजनीतिक जीवन के आचरण में वांछित उम्मीद में अमल में नहीं आ सके. लोहिया में मुफलिसों के लिए संवेदना और सहानुभूति और तल्खी घनीभूत होती गई थी. तेजी से इन्कलाबी बदलाव लाये जाने की अपनी नाकामियों के अहसास ने भी उन्हें परले दर्जे का जिद्दी, सनकी और अड़ियल भी प्रचारित कर दिया था.

लोहिया में दरअसल करुणा का झरना प्रवाहित होता रहता था लेकिन उनमें आक्रोश जाहिर करने की भी जबरदस्त क्षमता थी. अतीत को बूझकर अपने सोच में आत्मसात करने उनमें नायाब इतिहास-दृष्टि और बौद्धिक ऊंचाई को नये आयाम देने वाला प्रखर आधुनिक भावबोध भी था. रोज ब रोज के सामाजिक व्यवहार के सिलसिले में उनकी अतिबौद्धिकता और विद्रोही स्वभाव उन्हें कभी कभी बहुत असंतुलित भी कर देते रहे. उनसे बड़ा विवादग्रस्त तथा विवादास्पद लोकधर्मी व्यक्ति भी बीसवीं सदी के राजनीतिक भारत में आसानी से ढूंढ़ा नहीं जा सकता.

देश प्रेम, वंचितों से हमदर्दी, समाजवाद के लिए प्रतिबद्धता और सत्ता-विद्रोह के प्रति स्वैच्छिक आचरण उनके जीवन के समीकरण थे. उनमें हर व्यक्ति से तत्काल घुल मिल जाने की जबरदस्त कूबत थी. यही कारण था कि देश की मिट्टी की ताजगी और महक से गढ़े हुए इस ‘खास’ हो गए आदमी का ‘आम’ आदमियों से जानदार स्नेह का वास्ता था. लोहिया महज व्यक्ति नहीं, मानवीय चेतना के प्रतिनिधि अंश भी हो रहे थे. संवेदनाएं भविष्य की सिसकियों में पूछती रहेंगी  – ‘डाॅ. लोहिया, तुम कहां हो ?’

राजनीति को लोहिया का अवदान महत्वपूर्ण होने पर भी तुलनात्मक लाक्षणिकताओं और परिणामों में असरकारक नहीं हो पाया. कई ज्ञात अज्ञात कारणों की पेचीदगियों की वजह से वह हो भी नहीं सकता था. लोहिया सोच की व्यावहारिक फितरत में यूटोपियाई नस्ल की वाचालता के लक्षण झिलमिलाने लगते थे. इस जननेता को यथार्थ की कड़ियल धरती पर जद्दोजहद करते देखने के बाद भी लोग उसे किसी स्वप्न महल का नियंता समझने लगते थे. जनधारणा में राजनीति तो ठर्र किस्म की इन्सानी फितरत ही समझी जाती है.

राजनीतिज्ञों का खुदगर्ज मकसद सत्ता पर बैठकर ऐंठना, इतराना और दौलतपरस्ती की अजीर्ण होने तक लूटखसोट करना भी होता है. उत्तर-गांधी युग में लगातार यही हो ही रहा है. कई बड़े नेता इस भूलभुलैया में आज भी नीयतन आत्ममुग्ध हैं. बर्तानवी नस्ल के सिस्टम के कोल्हू के बैलों को लगता है वे मंजिल तक पहुंच रहे हैं. दरअसल वे सिस्टम द्वारा खींची गई परिधि में चकरघिन्नी की तरह घूमते वायदों की जिन्सों से तेल तो उद्योगपतियों के लिए पेर रहे हैं.

जिन्सों से बची वायदाखिलाफी की खली, भूसी, चूनी, चारा वगैरह आंखों पर पट्टी बंधी जनता को कीड़े और इल्लियां भी खिला रहे हैं. जनता मिलकर नेताओं को रोक भी नहीं पाती. वह पांच पांच साल में प्रतिनिधियों को चुन लेने भर को लोकतंत्र का अधिकार क्या हथियार समझे गफलत में जी रही है. राजनेताओं के भद्र सामंती दिखाऊ आचरण में बाजारू खरीद फरोख्त की फितरतें अकड़ती भी रहती हैं. उनमें मानवीय, शैक्षिक, कलात्मक और सांस्कृतिक बोध की भ्रूण हत्या भी हो चुकी होती है. अन्यथा उन जीवन्त तत्वों के कारण ही कोई देश अपने मुकाम तक पहुंचने की जुगत करता है.

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लोकतंत्र में नागरिकों की भीड़ को कई बार वोट बैंक में तब्दील करने की कोशिश को ही लोकतंत्र का सच्चा मायने लोग समझते हैं. लोहिया को भी इसी तरह बहुत से अनुयायियों की भी इसी तरह के तंत्र में जरूरत थी. उनमें सत्ताविमुखता नहीं थी लेकिन सत्तापरकता की वाचाल चाहत भी नहीं थी. वह सत्तापरस्ती को नागरिक जनशक्ति की आवाज के सामने संयत कर देने की भी जुगत बिठाते रहते थे.

लोहिया की रणनीति तो वैसे ठीक ही थी. उन्होंने अपनी बिसात भी ठीक से बिछाई थी. उनके जो दावेदार थे या उनकेे जो प्रयोग या व्यावहारिक कदम थे, वे ठीक से उठा नहीं पाते थे. उनकी रणनीति में इसे एक तरह की कमी या खोट के रूप में समझा जा सकता है. धीरे-धीरे उनमें जम्हूरियत को समझकर विकसित करने के नैतिक अहंकार या आत्मसम्मान पर चोट के कारण भी कांग्रेस का विकल्प मुखर हो रहा था. उन्हें देखकर लगता था राजनीति का कोई विज्ञानवेत्ता अपनी ही थ्योरी का प्रैक्टिकल किसी प्रयोगशाला में बैठकर कर रहा है – उस प्रयोगशाला का नाम हिंदुस्तान है.

मसलन एक ओर गांधी ने खादी, दांडी मार्च, चरखा और चंपारण सत्याग्रह वगैरह की युक्तियों की वजह से अपने आपको योद्धा संत राजनीतिज्ञ की श्रेणी में ऊध्र्व गति से लाकर खड़ा कर दिया था. उसके बरस लोहिया ब्रिटिश मूर्तियों को तोड़ो या अंगरेजी हटाओ या दाम बांधो में तरह तरह के कई राजनीतिक नारों को देते स्थायित्व हासिल नहीं कर पाए. लोगों को उनके आह्वान में भी कुछ न कुछ शगल, मनोरंजन या विध्वंस भी नजर आता रहा.

फिर भी लोहिया पढ़े लिखे शीर्ष राजनीतिज्ञ से कहीं ऊपर मौलिकता के मनुष्य प्रतिष्ठान की तरह थे. उनसे मिलने से अखबारों को अगले दिन की सुबह के लिए हेडलाइन मिल जाती थी, क्योंकि लोहिया हर बार अनोखा, नया, अप्रत्याशित और मौलिक कह सकने की रणनीति बनाने की रचना की क्षमता और विश्वास रखते थे.

उनकी असफलता का एक कारण और भी था. भारत जैसे बड़े देश में ढीले-ढाले लोकतंत्र में मायूस और पस्तहिम्मत फितरत के लोगों का बहुमत है. वहां मौखिक रूप से अहिंसक कहलाती क्रांति को लोहिया कुछ ऐसे उग्र तरीकों से लाना चाहते थे जो ऊपरी तौर पर लोगों को हिंसक दिखाई देते थे. छात्रों को सीधी मुठभेड़ के लिए कहना, चुनाव के समय शक्ति प्रदर्शन करना और कई मुद्दों पर पिकेटिंग करना वगैरह झटपट गतिविधियों, हरकतों या लाक्षणिकताओं के चलते लोहिया कोई सुव्यवस्थित तरीके या ऑर्गेनिक विकास के जरिए परिणामयुक्त रणनीति का प्रदर्शन नहीं कर सके. अपने जीवनकाल में पूरे विपक्षी दलों में लोहिया ही सबसे मुख्य और आकर्षक चेहरा थे जिनसे भविष्य के इतिहास को उम्मीदें बंधती थी.

लोहिया लोकप्रचारित समझ के अर्थ में धार्मिक नहीं थे. खुद को नास्तिक घोषित करते, हालांकि व्यापक इन्सानी संवेदनशीलता के आधार पर सच्चे अर्थों में साधु पुरुष थे. सामाजिक जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि में रहकर भी लेकिन एकान्तिकता या एकाकीपन लोहिया की नियति बन गया था. उन्हें दरिद्रनारायण की पीड़ा से बेसाख्ता मोहब्बत और सरोकार था. अपनी सारी विनोदप्रियता के बावजूद लोहिया का जीवन संवेदना से सराबोर रहा. मजबूत कूटनीतिक व्यूहरचना के बावजूद लोहिया हथकंडों की राजनीति कारगर नहीं कर पाये.

अपनी असफलताओं के बावजूद वे संभावनाओं के जननायक रहे हैं. यदि और जीते रहते तो परिस्थितियों के बदलाव ने उनके लिए इतिहास में बेहतर जगह मुकर्रर की होती. उसका आभास लोकसभा में उनके प्रवेश से हो चला था. आखिरी दिनों में वे उपेक्षित और अनुद्घाटित सवालों के अनाथालय बन जाने से मजाक या चुटकुले का पर्याय नहीं समझे गये. अपने ‘क्राॅनिक‘ कुंवारेपन से उपजे तीखेपन के बावजूद लोहिया गंभीरता से कुबूल हो चले थे. मरणासन्न और मरणोत्तर लोहिया में ही भारत की पीढ़ियां अपना भविष्य धुंधलाता देख सकी. यही देश का दुर्भाग्य हुआ.

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