कनक तिवारी
आखिर इंद्रनाथ चौधरी भी चले गए। उनकी मृत्यु न तो अचानक हुई और न ही किसी कच्ची उम्र में। मौत तो मौत होती है। वह दुख और टीस ही तो देती है। उसके कारण ज्यादा जो आत्मीय आधार पर बहुत जुड़ा हुआ हो। जैसे इंद्रनाथ चौधरी मेरे लिए रहे हैं। मैं 1994 से 1999 के बीच भोपाल में कुछ पदों पर था। तभी मैंने मध्यप्रदेश महात्मा गांधी 125 वां जन्म वर्ष समारेाह समिति के राज्य समन्वयक के रूप में गांधी विचार और आनुषंगिक विषयों को लेकर धुआंधार कार्यक्रम और प्रकाशन किए थे। वह मेरे जीवन की उपलब्धि भले नहीं हो, लेकिन वे 5 वर्ष मेरे जीवन में सर्वाधिक बौद्धिक-सांस्कृतिक सक्रियता के रहे हैं। मैं देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों, गांधीवादियों और शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के काफी करीब होता गया था। उन्हीं दिनों महत्वाकांक्षाओं ने कहा कि एक कार्यक्रम दिल्ली में होना चाहिए। साहित्य अकादमी के साथ जुड़कर। उस वक्त अकादमी के अध्यक्ष कन्नड़ और अंगरेजी के विख्यात लेखक अनंतमूर्ति थे। एक नामचीन लेखक होने के साथ साथ उनमें सात्विक अहंकार भी व्यवहार में रहा है जो कृत्रिम नहीं था।
मैं अनंतमूर्ति से मिलने गया। शुरू में ही उस संस्थान के सचिव रहे इंद्रनाथ चैधरी ने मुझे इशारा कर दिया था कि जब कभी बात न बने तो आप अपनी उस छिपी हुई ताकत को सामने लाइएगा। वह उनके और आपके बीच में सेतुबंध का काम करेगी। वह यह कि आप दो टूक कहिएगा मैं तो लोहिया का अनुयायी हूं। यही सोचकर आया था कि शायद आप मेरी भाषा और एप्रोच को समझ पाएंगे। लेकिन ऐसा लगता है डा0 लोहिया मेरी मदद नहीं कर पा रहे हैं। यह इशारा मत करिएगा कि आपको मालूम है पहले से कि अनंतमूर्ति लोहिया के कट्टर अनुयायी हैं। इतनी सावधानी मुझे बरतनी पड़ी थी। जब अनंतमूर्ति ने शुरू में ही कह दिया कि मुझे समय कहां है? अब समस्त कार्यक्रमों को इस तरह जानने का। मैं नहीं आ पाऊंगा।
तब मैंने तुरुप का इक्का चला और अपने चेहरे पर चिंता की लकीरें खींचता हुआ कहा। मुझे उम्मीद थी कि आप गांधी को समझने में मेरी बात को जरूर समझेंगे क्योंकि मैं गांधी से ज्या़दा लोहिया के रास्ते का एक पैदल सैनिक हूं। मुझे क्या पता अब तक मैंने लोहिया को भी ठीक से नहीं समझा है। तीर निशाने पर लगा। अनंतमूर्ति पिलपिला गए किसी पके आम की तरह। बोले आप लोहियाइट हैं। मैंने कहा हूं। साथ ही आप इसे तय करेंगे लेकिन मुझे लगता है, मैं हो नहीं सका। उन्होंने कहा नहीं नहीं। आपकी बात से लग रहा था कि आप सरकारी, मठी या अन्य तरह के गांधीवादी नहीं हैं। आप अंदर ही अंदर प्रामाणिकता से कुछ कह रहे हैं। मैं आपके कार्यक्रम में ज़रूर आऊंगा। तत्काल उन्होंने इंद्रनाथ चौधरी से कहा जिन्होंने मेरा अनंमूर्ति से परिचय कराया था। कहा चौधरी जी इन्हें बहुत बढ़िया चाय या काॅफी पिलाई जाए। इन्होंने आज लोहिया जी की याद को जिस तरह रेखांकित किया है। वह तो लोहिया का ही कोई अनुयायी कर सकता है। मुझे यह पकड़ने में देर हो गई। लेकिन तिवारी जी तो साफ कह रहे थे कि यदि मैं आपको अपना दृष्टिकोण समझा नहीं सका। तो मेरा डा0 लोहिया का अनुयायी होना फेल हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है। तय किया जाए इनके कार्यक्रम में चलेंगे।
इंद्रनाथ चौधरी ने मुझे एक ताले की चाबी दी थी। जो चाबी बनाने वाला मनुष्य ही कठिन से कठिन ताले को खोलने के लिए दे सकता है। वे चले गए। अनंतमूर्ति पहले ही चले गए थे। लोहिया और पहले चले गए। जिनसे मुझे प्रेरणा और जीवन की सीख मिलती है वे सब चले ही जा रहे हैं। तो मेरे लिए भी कहीं न कहीं नसीब ने कोई तारीख लिख रखी होगी। तब तक तो अपने आत्मीयों के एक के बाद एक जाने की टीस फांस की तरह छाती में कच्चा घाव बनाएगी। जो कभी सूखेगा नहीं। हरा भरा रहेगा। वह दुख किस काम का जो हर वक्त हरा भरा नहीं रहे। इंद्रनाथ चौधरी हमारे कई कार्यक्रमों में आए। उन्होंने बहुत कुछ लिखकर मुझे भेजा। अपनी थीसिस तक मुझे भेजी। हालांकि मैं उसका पाठक होने के अलावा और कुछ क्या कर सकता था। उनकी क्षमता का मैं कायल भी रहा हूं। वह काफी गहरे तक रहे हैं। हम जैसे लोग जो सतह पर रहकर समझते हैं कि हम कुछ शोध कर रहे हैं। वह हमारे बस का रोग तो नहीं है लेकिन भ्रम पालते हैं। भ्रम में बहुत ताकत होती है। वह मनुष्य को उन विचारों और याददाश्तों के सहारे जिंदा रखती है। अन्यथा जीवन तो एक शोध या अनुभव ही है।
इंद्रनाथ चौधरी सस्ता साहित्य मंडल में पहले मंत्री पद पर रहे थे।फिर अध्यक्ष थे। तब उन्होंने बैरिस्टर मोहनदास गांधी की क्लासिक ‘हिंद स्वराज‘ (1909) के सौ वर्ष होने पर मेरी एक पुस्तक ‘हिन्द स्वराज का सच‘ अपनी संक्षिप्त भूमिका के साथ छापी थी। मेरी किताब बहुत खराब नहीं है। उससे मैं कई लोगों तक पहुंचा जिनमें महात्मा गांधी को समझने में इंद्रनाथ चौधरी के बौद्धिक आग्रह भी थे। इसी किताब को लेकर जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने मुझे लिख भेजा था कि मैंने आपकी किताब देखी है। आपने बड़ा काम किया है। इसलिए मैं आपको गांधी विचार पर एक अन्य किताब भेज रहा हूं। उसकी आप समीक्षा कर दीजिए। इसका भी श्रेय तो इंद्रनाथ चौधरी को ही है। उन्होंने ‘हिन्द स्वराज का सच (2010)‘ की भूमिका मैं कहा जो इस तरह है। ‘‘महात्मा गांधी बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े कुछ नायकों में से एक हैं और उनकी पुस्तक ‘हिंद स्वराज‘ गांधीवाद का घोषणा-पत्र है। यह पुस्तक 1909 ई. में गुजराती में लिखी गई थी जिसे अंग्रेजों ने तत्काल प्रतिबंधित कर दिया था। इस पुस्तक के प्रकाशित होने के सौ वर्ष पूरे होने पर जिस प्रकार से बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और संस्कृतिकर्मियों में बहस की शुरूआत हुई है उससे स्पष्ट है कि आज भी यह पुस्तक उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सौ वर्ष पहले थी। और ऐसा इसलिए भी क्योंकि भारत में गरीबी और अमीरी की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। हमारा विकास शहर केंद्रित रहा, विकास के क्षेत्र में गांव लगातार हाशिए पर रहा। इसका परिणाम शहर की ओर पलायन, अव्यवस्था, भुखमरी सब हमारे सामने है। निस्संदेह यह पुस्तक भारत के मूलभूत चिंतन और विकास की धारा को भविष्य की ओर ले जाने वाली है, जिस पर चर्चा होना एक सार्थक संकेत है।
कनक तिवारी की यह पुस्तक गहराई में जाकर ‘हिंद स्वराज के सच‘ को हमारे सामने रखती है। कनक तिवारी बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ एक राजनीतिकर्मी भी हैं, यही कारण है कि बड़ी शिद्दत से इन्होंने ‘हिंद स्वराज‘ की मूल संवेदना को पकड़ा है जो इसे अन्य पुस्तकों से अलग करती है।
कनक तिवारी