शशिकांत गुप्ते
अबला का नाम श्रध्दा। श्रद्धा क्रूरता की शिकार हुई। श्रद्धा के शरीर के अनेक टुकड़े किए गए।
दानवीयता एक प्रवृत्ति है।
दानवीय प्रवृत्ति हर युग में विद्यमान रही है।
रावण स्वयं विप्र कुल में जन्मा था। ज्ञाagnनी भी था। लेकिन प्रवृत्ति असुरी थी। कंस का इतिहास भी सर्वविदित है।
सामंती युग का इतिहास भी क्रूरता से भरा है।
सामंती मानसिकता अंहकार को जन्म देती है। अहंकार का पर्यायवाची शब्द,अक्षमता है।
सवाल है,क्या मानव इतना क्रूर हो सकता है? मानव इतना बेख़ौफ़ कैसे हो जाता है?
यह बहुत ही गम्भीर मुद्दा है।
क्या इतने जंघन्य अपराध पर सिर्फ औपचारिक बहस करना पर्याप्त है?
हिंसक,अत्याचारी,भ्रष्टाचारी,
चोरी,डकैती,और लूटपाट आदि
अपराध करना प्रवृत्ति है,जो हरएक कौम में हो सकती है।
क्या किसी जंघन्य अपराध पर एक दूसरे आरोप-प्रत्यारोप करना उचित है?
क्रूरतम अपराधियों को संस्कारी कहकर उनका स्वागत करना अपराध की रोकथाम है,या अपराध को प्रश्रय देना है?
क्या अपराधियों पर होने वाली कानूनी कार्यवाही पर राजनैतिक हस्तक्षेप से इंकार किया जा सकता है?
क्या किसी रसूखदार व्यक्ति को किसी भी तरह अपराध करने की छूट है?
श्रद्धा और आस्था शब्दों को राजनीति के गिरफ्त से बाहर निकालना जरूरी है।
इन शब्दों का इस्तेमाल जबतक निहित स्वार्थ के लिए किया जाएगा तबतक मानव में
मानवीयता जागृत होना असंभव है।
जबतक सँया कोतवाल होंगे तबतक अपधारियों के हौसले बुलंद होंगे।
स्वयं के देश के प्रति, देश के संविधान के प्रति,देश की कानून व्यवस्था के प्रति देशवासियों में श्रद्धा जागृत होना अनिवार्य है।
प्रत्येक देशवासी को यह एहसास होना जरूरी है कि, मै भी 1/135 करोड़ हूँ।
अन्यथा श्रद्धा,आस्था,अस्मिता,
आदि के टुकड़े होने से रोकना असंभव है।
फिल्मों में हिंसा की पराकाष्ठा की भी रोकथाम होना चाहिए?
फिल्मों में कानून व्यवस्था की अवहेलना भी अप्रत्यक्ष रूप से अपराधिक प्रवृत्ति को प्रश्रय देती है।
एक विचारणीय मुद्दा यह भी है,राजनीति में सक्रिय जनप्रतिनिधियों की भाषा सौहाद्रपूर्ण होनी चाहिए। वाणी की स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करते हुए गरल युक्त शब्दों वमन करना भी सामाजिक सौहाद्र को दूषित करता है।
उपर्युक्त मुद्दों पर गम्भीरता से विचार विमर्श होना चाहिए।
एक महत्वपूर्ण मुद्दा,अपराधिक मामलों पर लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की निष्पक्षता होना भी अनिवार्य है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर