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नज़र हटी दुर्घटना घटी

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी ने मिलते ही बगैर किसी औपचारिकता का निर्वहन किए, एक लोकोक्ति का स्मरण करवाया। चौबे जी गए तो थे,छब्बेजी बनने, दुबेजी बन कर रह गए।
सीतारामजी आज बहुत ही विनोदी मानसिकता में दिखाई दे रहें हैं। कहने लगे,बचपन में सुनते थे कि, उछलकूद का नतीजा होता है आघात और सूजन।
बहुत सी बार अंदरूनी चोट ऐसी होती है जो सिर्फ सहन करना पड़ती है। इसीलिए कहा गया है कि, सीढ़ी-दर-सीढी ही चढ़ना चाहिए। एकदम छलांग मार कर चढ़ने में दुर्घटना होने की पूर्ण संभावना होती है।
मैने कहा आज आप जो कुछ कह रहे हो मेरी समझ में नहीं आता है।
सीतारामजी कहने लगे प्रकृति ने सभी तरह के प्राणियों की समयावधि निश्चित कर रखी है।
इसीतरह मानव निर्मित मशीनों, उपकरणों और औजारों की भी क्षमता अनुसार समयावधि निश्चित होती है।
संत कबीर साहब ने अपने दोहे में स्पष्ट कहा है
“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय

यह सब प्राकृतिक नियम है। एक बात मानव ने अपने जहन में गांठ बांधकर रखना चाहिए कि, जो प्रकृति के विरुध्द आचरण करेगा वह मुँह की खाएगा।
साम-दाम-दण्ड-भेद इन चारों ‘अ’नीतियों का उपयोग कर कोई उपलब्धि प्राप्त करना मतलब तात्काल नाचकुद कर भलेही कोई जश्न मानले लेकिन अनीति से प्राप्त उपलब्धि का परिणाम अंतः बुरा ही होता है।
उक्त चारो अ-नीतियों से प्राप्त सफलता मतलब होता है।
थोथा चना बाजे घना साधारण बोलचाल की भाषा में इस कहावत यूँ भी कह सकतें हैं।
“Empty vessels make the most noise.”
व्यवहारिक भाषा में समझने के लिए यूँ समझना चाहिए उक्त प्रकार की उपलब्धियां मतलब बनावटी उपलब्धियों को विज्ञापनों में दर्शाना जैसे गोरा बनाने की क्रीम का विज्ञापन होता है न।
यदि वाकई किसी क्रीम से त्वचा गोरी हो सकती है तो भारत के दक्षिणी प्रान्तों में कोई शाम वर्ण का होता ही नहीं?
त्वचा को गोरा बनाने की जुगत में रहने के बजाए आत्मिक शुद्धि का प्रयास जरूरी है। आत्मिक शुद्धि होने पर किसी भी प्रकार का कोई भी दिखावा नहीं करना पड़ता है।
हाथ कंगन को आरसी की जरूरत नहीं होती है।
सबसे बड़ी आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे थोथी उपलब्धियों को भी भक्तगण वास्तविक उपलब्धियां समझतें हैं और भक्तगण उनका प्रचार प्रसार भी करने लगतें हैं। इरतरह के भक्त सावन के अंधे होने के लिए अभिषप्त होतें है।
वास्तव में कोई भी भक्त अंधा होता ही नहीं है। सिर्फ दृष्टि भ्रम से पीड़ित होता है। इसी दृष्टिभ्रम से पीड़ित भक्त गणों को महंगाई बेरोजगारी,बापू करें नौकरी बेटा जीवनी में बूढ़ा हो जाए तो कोई मलाल नहीं। चंद लोग मालामाल हो रहें हैं, और तादाद में मुफ्त राशन पर निर्भर लोगों को देख,दृष्टिभ्रम के कारण भक्तगण गौरव का अनुभव करतें हैं।
यही दृष्टिभ्रम विज्ञापनों में दर्शायी,बनावटी उपलब्धियों को सही ठहरता है।
उछल कूद का नतिजा ही ब्रह्म मुहूर्त में ली गई शपथ को चंद घण्टों में समाप्त कर देता है।
दिवास्वप्न टूट जाता है, जब दूसरें नम्बर पर मजबूरन बैठना पड़ता है। मतलब रिक्शा चालक सवारी को जैसे भी बैठाए वैसे बैठना पड़ता है या पड़ेगा?
इसी को कहतें हैं, चौबे जी गए तो थे, छब्बे बनने, दुबेजी बन कर रह गए।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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