(प्रेम इम्पॉसिबल, तो ध्यान चुनें)
~ डॉ. विकास मानव
प्रेम न दो पैसे का होता है, न दो लाख का होता है, बस होता है।
चरम कोई अवस्था नहीं होती, प्रेम चरम ही होता है। इसके रूप-रंग, कद-काठी और उम्र का कोई अर्थ नहीं होता.
प्रेम जो है वह “क्लाइमेक्स’ ही है। वह हमेशा सौ डिग्री पर ही होता है. जैसे कि पानी गरम होता है तो ऐसा नहीं होता है कि नब्बे डिग्री पर थोड़ा-सा भाप हो, फिर, और पंचान्नबे डिग्री पर थोड़ा ज्यादा भाप हो जाए। नहीं, सौ डिग्री पर ही भाप होता है। सौ डिग्री पर बस एकदम भाप होने लगता है। तो अगर कोई पूछे कि भाप बनने का चरम बिंदु क्या है? तो हम कहेंगे, जो प्रथम बिंदु है, वही चरम भी है। जो पहला बिंदु है, वही आखिरी भी। सौ डिग्री पहला है और सौ डिग्री आखिरी है। प्रेम भी प्रथम और अंतिम एक ही है, “द फर्स्ट एंड द लास्ट’।
प्रेम में कोई अंतर नहीं है। प्रेम चरम ही है। उसका पहला कदम ही आखिरी कदम है। उसकी मंजिल की पहली सीढ़ी ही मंदिर की आखिरी सीढ़ी है। मगर हमें पता ही नहीं है, इसलिए हम अजीब सवाल पूछते हैं।
प्रेम की कोई कसौटी नहीं होती।
प्रेम हो तो काफी है, कसौटी की क्यों फिकिर करते हैं। प्रेम नहीं होता तो आदमी कसौटी की फिकिर करता है। आप प्रेम की फिकिर करें। कसौटी की क्या जरूरत है? प्रेम नहीं है, इसलिए सोचते हैं कि कसौटी मिल जाए तो जांच कर लें। लेकिन नहीं है तो जांच करने की जरूरत क्या है? पता है कि नहीं है।
प्रेम है, इसकी फिकिर करें। और जब प्रेम होता है तो सच्चा ही होता है, झूठा कोई प्रेम होता नहीं। झूठा प्रेम गलत शब्द है। या तो होता है, या नहीं होता है। इसलिए कसौटी की कोई जरूरत नहीं है। सच्चे प्रेम को कसौटी की जरुरत नहीं होती।
प्रेम या ध्यान. आपके लिए मंज़िल का तीसरा कोई मार्ग नहीं है. प्रेम परमात्मा है और प्रेमपूर्ण स्वस्थ संभोग परमात्मा के अनुभव का बेस है. ऐसा इसलिए की स्वस्थ संभोग परमानंद देता है. हालांकि यह दसियों हज़ार में से किसी एक कपल में साकार होता है क्योंकि 99 फीसदी पुरुष इस फैक्टर पर दुराचारी और नामर्द हैं. इसलिए संभोग नहीं तो योग. प्रेम इम्पॉसिबल है तो ध्यान चुनें, लेकिन जवानी में. बुढ़ापे में नहीं. बुढ़ापे में यह भी असंभव हो जायेगा.
*स्वयं की सिद्धि बुढ़ापे से पहले का सब्जेक्ट*
महावीर कहते हैं : ‘जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां नहीं सताती, जब तक इंद्रियां अशक्त नहीं होतीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। बाद में कुछ भी नहीं होगा।’
हमारी परम्परा में बड़े मजे की बात है कि अधर्म जवानी के लिए है, और धर्म बुढ़ापे के लिए. भोग जवानी के लिए, और योग बुढापे के लिए।
क्यों? क्या योग के लिए किसी शक्ति की जरूरत नहीं है? जब भोग तक के लिए शक्ति की जरूरत है, तो योग के लिए शक्ति की जरूरत नहीं है?
इस सोच का कारण है. वह कारण यह है कि हम भलीभांति जानते हैं, कि भोग तो बुढ़ापे में किया नहीं जा सकता, योग देखेंगे। हो गया तो ठीक है, न हुआ तो क्या हर्ज है। भोग छोड़ा नहीं जा सकता, योग छोडा जा सकता है। तो भोग तो अभी कर लें और योग को स्थगित रखें। जब भोग करने योग्य न रह जायें, तब योग कर लेंगे।
ध्यान रखना : वही शक्ति, जो भोग करती है, वही शक्ति योग करती है। दूसरी कोई शक्ति आपके पास है नहीं। आदमी के पास शक्ति तो एक ही है; उसी से वह भोग करता है, उसी से वह योग करता है। जिस शक्ति से भोग किया जाता है, उसी से तो योग किया जाता है।
यह जो पुरुष- वीर्य और स्त्री- रज है, सबसे अहम है. जो ऊर्जा संभोग बनती है, वही समाधि बनती है। जो मन भोग का चिंतन करता है, वही मन तो ध्यान करता है। उसमें फर्क नहीं है. शक्ति वही है। शक्ति हमेशा तटस्थ है, न्यूट्रल है। आप क्या करते हैं, इस पर निर्भर करता है।
हमारी उलटी परम्परा का मतलब यह हुआ की जैसे कोई कहे कि धन मेरे पास है, इसका उपयोग मैं भोग के लिए करूंगा. जब धन मेरे पास नहीं होगा तब जो बचेगा, उसका उपयोग दान के लिए करूंगा।
एक ने वसीयत में वकील से लिखवाया कि मेरी आधी संपत्ति मेरी पत्नी के लिए, नियमानुसार। मेरी बाकी आधी संपत्ति मेरे पांच पुत्रों में बांट दी जाये; और बाद में जो कुछ बचे गरीबों को दान कर दिया जाये।
वकील ने पूछा, कुल संपत्ति कितनी है? उस ने कहा, यह तो कानूनी बात है, संपत्ति तो बिलकुल नहीं है। संपत्ति तो मैं खतम कर चुका हूं। लेकिन वसीयत रहे, तो मन को थोड़ी शांति रहती है; कि कुछ करके आये, कुछ छोड़ कर आये।
करीब-करीब जीवन ऊर्जा के साथ हमारा यही व्यवहार है।
भोग के जब क्षण हैं, तभी योग के भी क्षण हैं’। भोग जब पकड़ रहा है, तभी योग भी पकड़ सकता है। इसलिए जब बुढापा सताने लगे, जब व्याधियां बढ जायें, और जब इंद्रियां अशक्त हो जायें, तब धर्म का आचरण नहीं हो सकता है; तब सिर्फ धर्म की आशा हो सकती है; आचरण नहीं।
आचरण शक्ति मलता है। इसलिए जिस विचारधारा में, बुढापे को धर्म के आचरण की बात मान लिया गया, उस विचारधारा में बुढ़ापे में सिवाय भगवान से प्रार्थना करने के फिर कोई और उपाय बचता नहीं। इसलिए लोग फिर राम नाम लेते हैं आखिर में। फिर और तो कुछ कर नहीं सकते, कुछ और तो हो ही नहीं सकता है। जो हो सकता था, वह सारी शक्ति गवां दी; जिससे हो सकता था, वह सारा समय खो दिया। जब शक्ति प्रवाह में थी और ऊर्जा जब शिखर पर थी, तब हम कचरा-कुड़ा बीनते रहे।
जब हाथ से सारी शक्ति खो गयी, तब हम आकाश के तारे छूने की सोचते हैं। तब सिर्फ हम आंख बांध कर, बंद करके राम नाम ले सकते हैं।
*राम नाम धोखा है :*
धोखे का मतलब? राम नाम में धोखा है, ऐसा नहीं, राम नाम लेनेवाले में धोखा है। धोखा इसलिए है कि अब कुछ नहीं कर सकते, अब तो राम नाम ही सहारा है।
कथित साधु संन्यासी बिलकुल समझाते रहते है कि यह कलियुग है, अब कुछ कर तो सकते नहीं। अब तो बस राम नाम ही एक सहारा है। लेकिन मतलब इसका वही होता है जो आमतौर से होता है।
किसी बात को आप नहीं जानते तो आप कहते हैं, सिर्फ भगवान ही जानता है। उसका मतलब, कोई नहीं जानता। राम नाम ही सहारा है। उसका ठीक मतलब कि अब कोई सहारा नहीं है।
मित्रों, इसके पहले की आपकी शक्तियां खो जायें, उन्हें रूपांतरित कर लेना। ध्यान रहे, इसके पहले…!
_अभी इलाहबाद मूल की, दिल्ली में ऐक्टिव मेरी स्टूडेंट अनामिका ने यह साहस दिखाया है. किसी आभाव, दुःख, पीड़ा से त्रस्त होकर उसने यह पथ नहीं चुना है. मैरिड भी नहीं है की सच्चे प्रेम और कम्प्लीट सेक्स-सुख से महरूम रहने के कारण उसने यह पथ चुना है. हारे को हरिनाम, मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी : ये बातें उसपे लागू नहीं होती. उसमे इतना डिवाइन-नेश है की, उसे खुद नहीं पता. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं की उसकी संतुष्टि के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ. वह सबकुछ, जो भी वह चाहे. यानी अनु मेरी फर्स्ट प्रयोरिटी है.
तो स्वयं की उपलब्धि, अनुभूति, परमानन्द, मोक्ष यानी मंज़िल, जवानी में. और बड़े मजे की बात यह है कि जो यूँ शक्ति को रूपांतरित कर लेता है खोने के पहले, उसे बुढ़ापा कभी नहीं सताता। बुढ़ापा वस्तुत: शारीरिक घटना कम और मानसिक घटना ज्यादा है। तब आप तो शरीर से बूढ़े हो जायेंगे, लेकिन मन से जवानी कभी नहीं खोती। मन ही तन को चलाता है. यानी तब आप तन से भी सक्षम रहेंगे.
ऐसे इंसान भीतर से सदा जवान बने रहेगे. बुढ़ापा वासनाओं में खोई गयी शक्तियों का भीतरी परिणाम है। बाहर तो शरीर पर बुढ़ापा दिखेगा, वह समय की धारा में अपने आप घटित हो जायेगा, लेकिन भीतर नहीं. जब शरीर की शक्तियां वासना में गवांयी जाती हैं, अधर्म में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर, जब धुरी टूट जाती है, तब भीतर भी बुढ़ापा आता है, एक दीनता। वह सब उसमें नहीं रहेगा.
भौतिकता में बिताये हुए आदमी का जीवन सबसे ज्यादा दुखद बुढ़ापे में हो जाता है। और बहुत कुरूप हो जाता है। क्योंकि धुरी टूट चुकी होती है और हाथ में सिवाय राख के कुछ भी नहीं होता, सिर्फ पापों की थोड़ी सी स्मृतियां होती हैं और वह भी सालती हैं। और समय व्यर्थ गया, उसकी भी पीड़ा कचोटती है।
होना नहीं चाहिए। क्योंकि बुढ़ापा तो शिखर है जीवन का, आखिरी। सर्वाधिक सुंदर होना चाहिए। जब कभी कोई बूढ़ा आदमी जिंदगी में गलत रास्तों पर न चलकर सीधे सरल रास्तों से चला होता है, तो बुढ़ापा बच्चों जैसा निर्दोष, पुन: हो जाता है। और बच्चे इतने निर्दोष नहीं हो सकते।बुढ़ापा एक अनुभव से निखरता और गुजरता है। इसलिए बुढ़ापा जितना निर्दोष हो सकता है–और कभी सफेद बालों का सिर पर छा जाना–अगर भीतर जीवन में भी इतनी शुभ्रता आती चली गयी हो, तो उस सौंदर्य की कोई उपमा नहीं है।
जब तक आदमी इंटर्नली सुंदर न हो, तब तक जानना कि जीवन व्यर्थ गया है। जब तक बुढ़ापा सौदर्य न बन जाये, लेकिन बुढ़ापा कब सौदर्य बनता है? जब शरीर तो बूढ़ा हो जाता है, लेकिन भीतर जवानी की ऊर्जा अक्षुण्ण रह जाती है।
तब इस बुढ़ापे की झुर्रियों के भीतर से वह जवानी की जो अक्षुण्ण ऊर्जा है, जो पुरुष-वीर्य, स्त्री-रज है, जो शक्ति है, वो बच गयी, वो रूपांतरित हो गयी. उसकी किरणें इन बुढ़ापे की झुर्रियों से बाहर पड़ने लगती हैं, तब एक अनूठे सौदर्य का जन्म होता है।