कृष्ण प्रताप सिंह
लखनवी तहजीब को यों ही लासानी नहीं कहा जाता। मेल-मिलाप से भरे उसके सुनहरे दिन हों या लड़ाई-झगड़ों के, सबके अंदाज निराले हुआ करते थे। नवाब वाजिद अली शाह ने अपने वक्त (1847-1856) में मेल-मिलाप के लिए दो निराले हुक्मनामे जारी किए थे। पहला दुआ-सलाम यानी अभिवादन के तरीके को लेकर था, तो दूसरा पहनावे को लेकर।
पहले में हुक्म दिया गया था कि हिंदू-मुसलमान दोनों लाजिमी तौर पर परस्पर आदाब अर्ज किया करें। दूसरे में हर किसी को अंगरखा पहनने की हिदायत दी गई थी- खासतौर पर जब दरबार में पेश होना हो। इन दोनों हुक्मनामों के पीछे उनकी मंशा यह थी कि दुआ-सलाम के तरीके और पहनावे के भेद से पता न चल पाए कि शहरियों कौन हिंदू है और कौन मुसलमान। खुद अपने बारे में भी उनका कहना था कि ‘हम इश्क के बंदे हैं मजहब से नहीं वाकिफ, गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या?’
जहां तक लड़ाई-झगड़ों की बात है, इस तहजीब की एक पहचान बांकों की लड़ाई से बनती है, जो कतई अच्छी नहीं है। कई मायनों में वह अवध के लोकप्रिय कवि मरहूम रफीक सादानी की मशहूर कविता ‘हम तौ ऊ बीर हन कि जब केहू मुह पै थूकै तौ ताव आवत है’ सार्थक करती है। लेकिन इसके अलावा भी एक पहचान है, जो बताती है कि कितना भी वैर या विरोध हो, लखनऊ के शहरी लड़ाई-झगड़ों में बेशऊर होना पसंद नहीं करते थे। न ही तहजीब और तमीज का दामन छोड़ते थे।
जरा-जरा सी बात पर जूतम-पैजार पर उतर आने वाली आज की युवा पीढ़ी इस बात पर शायद ही एतबार कर सके कि उन दिनों लखनऊ के जूते गांठने वाले भी लड़ते-झगड़ते, तो एकतरफा तौर पर सारी हदें लांघकर सामने वाले पर पिल पड़ने से परहेज बरतते थे। पहले नरम और नाजुक शब्दों में हिदायत देते थे, ‘अमां यार, बहुत हो गया। अब हद से इतने आगे मत बढ़ जाओ कि मुझे तुम्हारी शान में गुस्ताखी करनी पड़ जाए!’
सामने वाला इस हिदायत से भी सबक न लेता और बदतमीजी से पूछता रहता कि ‘बोल, हद से आगे बढ़ जाऊंगा, तो क्या कर लेगा तू?’ तब भले ही बात और आगे बढ़ती या बिगड़ती, या फिर उसी पर खत्म हो जाती। नहीं भी खत्म होती तो उसकी वह गरमी जरूर उतर जाती, जो अक्सर सारे फसाद की जड़ सिद्ध होती है। फिर तो ‘अंत भला तो सब भला’ को सही सिद्ध करते हुए दोनों भलेमानुसों की तरह हाथ मिलाकर विदा होते।
कभी-कभी किसी के दिमाग पर बहुत गर्मी चढ़ जाती और वह कोई नागवार या नाकाबिल-ए-बर्दाश्त बात कह देता तो भी सामने वाला अपनी तहजीबी शराफत को धता बताकर फौरन तमतमा उठने, मां-बहन करने, बाप-दादों तक जा पहुंचने और मारने-मरने पर तुल जाने का रास्ता नहीं ही चुनता। मौके की नजाकत के मुताबिक बात को बदलकर खूबसूरत मोड़ देने की कोशिश करता। अलबत्ता, हाव-भाव से यह जताने में नहीं चूकता कि नागवार बात कहने वाला उसकी नजर में तहजीब और तमीज से तो पैदल है ही, उसने गंवारों जैसी जो बात कही है, उसको और आगे बढ़ाने के काबिल भी नहीं है। फिर वह यों जताकर कि जैसे उसने उसकी नागवार बात सुनी ही नहीं, उसे दुनिया-जहान की तमाम दास्तानें सुनाने लग जाता।
दास्तानें खत्म हो जातीं, तो किस्से लेकर हाजिर हो जाता। फिर किसी वाकये का जिक्र लेकर बैठ जाता और बेहद इत्मीनान से पूछता- फरमाइए, शरबत लाऊं आपके लिए या पानी? सामने वाला हैरान-सा उसका मुंह देखता और सोचता कि कैसा आदमी है यह कि इसे इतनी नागवार गुजरने वाली बात कही, फिर भी इसका खून नहीं खौला। इतना भी नहीं कि और कुछ नहीं तो तू-तड़ाक पर ही उतर आए, बातचीत का लहजा ही थोड़ा सख्त कर ले। उलटे मुसकुराए और गपियाये जा रहा है। इधर ‘शरबत लाऊं या पानी’ पूछने वाला मन ही मन मगन होता कि उससे तहजीब का दामन भी नहीं छूटा और समझा दिया गंवार को कि यह तहजीब टूटकर नहीं बिखरने वाली। नफरतें कितनी भी बढ़ जाएं, मोहब्बतें नहीं मरने वाली।