प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता
मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था प्रति क्षण पहले से और अधिक विनाशकारी स्वरूप धारण करती जा रही है। वर्तमान मानवद्रोही पूँजीवाद मनुष्यता को कुछ भी नया नहीं दे सकता। यह प्रकृति और मनुष्यता को नयी-नयी विपत्तियाँ ही दे सकता है। आज के समय में काम के अत्यधिक दवाब और बढ़ते वर्कलोड से अकाल मृत्यु की शिकार होती ज़िन्दगियाँ असल में इसी मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के हाथों की जाने वाली निर्मम हत्या के अलावा और कुछ भी नहीं है। हालिया दिनों में देश के अलग-अलग हिस्सों से अधिक वर्कलोड के कारण होने वाली मौतों की कई ऐसी ख़बरें सामने आयी हैं।
कुछ दिनों पहले ही पुणे की अर्न्स्ट एण्ड यंग कम्पनी में काम करने वाली 26 वर्षीय अन्ना सेबेस्टियन की मौत हो गयी। उसकी मौत के कारणों के बारे उसकी माँ ने बताया कि कम्पनी की ओर से उनकी बेटी के ऊपर अधिक कामों का दवाब डाला जा रहा था। उसकी माँ अनिता ने कम्पनी प्रबन्धन को पत्र लिखकर इस मौत की ज़िम्मेदारी लेने की अपील की। एक पूर्व कर्मचारी ने भी फ़र्म के ‘वर्क कल्चर’ की आलोचना की और आरोप लगाया कि समय से घर जाने के लिए कर्मचारियों का अक्सर ‘मज़ाक’ उड़ाया जाता है और साप्ताहिक छुट्टी मनाने के लिए ‘शर्मिंदा’ किया जाता है।
चेन्नई में अधिक काम के दबाव में एक 38 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर कार्तिकेयन ने करंट लगाकर आत्महत्या कर ली। घटना के वक्त उसकी पत्नी मन्दिर गयी थी। उसके घर लौटने पर मामले का खुलासा हुआ। पुलिस के मुताबिक तमिलनाडु के थेनी ज़िले का मूल निवासी कार्तिकेयन पत्नी और दो बच्चों के साथ चेन्नई में रहता था। वह 15 साल से एक सॉफ्टवेयर फर्म में बतौर तकनीशियन काम कर रहा था।
उत्तर प्रदेश के झांसी में बजाज फाइनेंस में एरिया मैनेजर के पद पर कार्यरत 42 वर्षीय तरुण सक्सेना काम के अधिक दवाब के कारण आत्महत्या का रास्ता चुनने के लिए मजबूर हुआ। उसने सुसाइड नोट में कहा कि पिछले दो महीनों से उसके वरिष्ठ अधिकारी उसपर टारगेट पूरा करने का दबाव बना रहे थे और वेतन कटौती की धमकी दे रहे थे। बजाज फाइनेंस ने अभी तक आरोपों का जवाब नहीं दिया है। उसने अपनी पत्नी और दो बच्चों को दूसरे कमरे में बन्द कर दिया था, जिसके बाद वह मृत पाया गया। अपनी पत्नी को सम्बोधित पाँच पन्नों के पत्र में तरुण ने लिखा है कि वह बहुत तनाव में था क्योंकि वह अपनी पूरी कोशिश करने के बावजूद लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहा था। तरुण को अपने क्षेत्र से बजाज फाइनेंस के ऋणों की ईएमआई वसूलने का काम सौंपा गया था, लेकिन कई मुद्दों के कारण वह लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहा था। तरुण ने अपने पत्र में लिखा कि उसे और उसके सहकर्मियों को उन ईएमआई का भुगतान करना पड़ा जो वे अपने क्षेत्र से वसूल नहीं कर पाये थे। उसने लिखा कि उन्होंने अपने वरिष्ठों के समक्ष वसूली में आने वाली समस्याओं को बार-बार उठाया, लेकिन वे उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। “मैं 45 दिनों से सोया नहीं हूँ। मैंने मुश्किल से कुछ खाया है। मैं बहुत तनाव में हूँ। वरिष्ठ प्रबन्धक मुझ पर किसी भी क़ीमत पर लक्ष्य पूरा करने या नौकरी छोड़ने का दबाव बना रहे हैं।” यह उन्होंने अपने सुसाइड नोट में लिखा था।
मुम्बई में पब्लिक सेक्टर के बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत सुशांत चक्रवर्ती ने अपनी कार पुल के एक हिस्से पर खड़ी करके अटल सेतु से कूदकर जान दे दी। चक्रवर्ती की कार की तलाशी लेने पर पुलिस को उनकी पहचान का पता चला और यह भी पता चला कि वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ परेल में रहते थे। पुलिस ने उनकी पत्नी को पुलिस स्टेशन बुलाया। पूछताछ के दौरान चक्रवर्ती की पत्नी ने उन्हें बताया कि वह काम के काफ़ी दबाव में थे।
तथाकथित ‘वेल-पेइंग’ जॉब करने वालों की दशा ऐसी है तो देश की लगभग 84 करोड़ सर्वहारा एवं अर्द्धसर्वहारा आबादी किन अमानवीय कार्य दबाव वाली परिस्थितियों में काम करने को बाध्य है इसका अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। और बात केवल इन घटनाओं की नहीं है। ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2023 में मैककिंसे ने 30 देशों का एक सर्वेक्षण किया था जिसके अनुसार भारत में अधिक कार्य दवाब के चलते 60 प्रतिशत लोग अत्यधिक थका हुआ और चिंतित महसूस करते हैं। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (आईएलओ) के अनुसार भारत में एक साल में 2 लाख से अधिक लोगों ने कार्य दवाब के चलते अपनी जान गंवायी है। हालाँकि आईएलओ के इस आँकड़ें से इतर सच्चाई तो और भी भयावह है। कार्य दवाब के चलते लोग अधिक तनाव में रहते हैं। तनाव में रहने वाले लोगों को कई सारी गम्भीर बीमारियों का ख़तरा अधिक रहता है। हालाँकि इस प्रकार की घटनाएँ अनायास नहीं है।
नवउदारवाद की नीतियों के लागू होने के बाद से ही उजरती श्रम के दोहन की प्रक्रिया में और अधिक तेज़ी आयी है। वर्तमान फ़ासीवादी मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद मेहनत की लूट नये शिखर पर पहुँच गयी है। मोदी सरकार ने श्रम की लूट और पूँजी की बेशर्मी तथा नंगई से सेवा करने में पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। मोदी सरकार द्वारा पूँजीपतियों को रहे-सहे श्रम क़ानूनों की अड़चन से मुक्त कर मज़दूरों के बेहिसाब और बेरोकटोक शोषण करने की आज़ादी देने के लिए 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों की जगह चार कोड या संहिताएँ बनायी गयी हैं: मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता। कोड में मज़दूरों से बेतहाशा काम करवाने का भी क़ानूनी इन्तज़ाम कर दिया गया है। मौजूदा क़ानूनी व्यवस्था में दिन में 9 घण्टे से ज़्यादा काम और सप्ताह में 48 घण्टे से ज़्यादा काम ओवरटाइम कहलाता है। लेकिन नयी श्रम संहिताओं में ओवरटाइम की इस परिभाषा को ख़त्म करके “पूरक कार्य” और “अनिरन्तर काम” की लच्छेदार भाषा के बहाने ओवरटाइम के लिए मिलने वाली अतिरिक्त मज़दूरी को ख़त्म करने की पूँजी परस्त और मज़दूर-विरोधी चाल चली गयी है।
कोरोना महामारी के बाद से स्थिति और अधिक भयावह हुई है। एक अनुमान के मुताबिक जहाँ एक ओर देश में 32 करोड़ लोग बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं, वहीं दूसरी और नौकरी या किसी पेशे में लगे लगभग 60 फ़ीसदी लोग अत्यधिक कार्य दवाब से परेशान हैं। श्रम शक्ति की क़ीमत को यानी कि मज़दूरी को कम करने के लिए बेरोज़गारी और बेरोजगारों की रिज़र्व फ़ौज का भी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग इस्तेमाल करते हैं क्योंकि इससे काम लगी मज़दूर आबादी की मोलभाव करने की ताक़त भी कम हो जाती है।
अत्यधिक कार्य दवाब से लोगों की मौत या और साफ़ शब्दों में कहे तो व्यवस्थाजनित हत्याओं पर सिर्फ़ अफ़सोस जताने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक तरफ़ इस व्यवस्था में मुनाफ़े की हवास का शिकार होकर मरते लोग हैं और दूसरी ओर अत्यधिक कार्य दिवस की वकालत करने वाले धनपशुओं के “उपदेश” हैं। पिछले साल अक्टूबर में, इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा कि देश की आर्थिक तरक्की के लिए भारतीय युवाओं को सप्ताह में 70 घण्टे काम करना चाहिए! भारत में ओला के प्रमुख भावेश अग्रवाल ने उनके विचार से सहमति जतायी थी और कहा था कि काम और ज़िन्दगी के बीच संतुलन जैसे विचार में वह भरोसा नहीं करते और हिदायत दी कि “अगर आपको अपने काम में मज़ा आ रहा है, तो आपको अपनी ज़िन्दगी और काम दोनों में ख़ुशी मिलेगी, दोनों संतुलित रहेंगे।” साल 2022 में बॉम्बे शेविंग कम्पनी के संस्थापक शांतनु देशपांडे ने नौजवानों से काम के घण्टे को लेकर शिकायत नहीं करने को कहा था और सुझाव दिया था कि किसी भी नौकरी में रंगरूटों को अपने करियर के पहले चार या पाँच सालों में दिन के 18 घण्टे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
मतलब यह कि चाहे बीमार पड़ जाओ या मर जाओ मगर इन धनपशुओं के मुनाफ़े में कोई कमी नहीं आनी चाहिए! अब आप ख़ुद सोचिए क्या इस मुनाफ़ाखोर हत्यारी पूँजीवादी व्यवस्था को एक और पल भी टिके रहने का कोई भी अधिकार है?