विवेक शुक्ला
संडे की एक गर्मागर्म सुबह। हवा का नामो-निशान नहीं था। कोरोना काल के बाद पार्क में अब भी कम ही लोग आते हैं। पर वहां उस दिन अपने एरिया की मार्केट का एक दुकानदार कुमार घूमने के बजाय अखबार पढ़ रहा था। ‘क्या हुआ कुमार, आज बड़े मन से पढ़ रहे हो अखबार?’ हमने पूछा। अपनी पैरवी में वह अखबार हमारी तरफ करने लगा। हमने वह खबर पढ़ी, जिसे कुमार पढ़ रहा था। क्रिकेट सट्टेबाजी से जुड़ी खबर थी। तथ्य तो कई दिलचस्प थे। पहला तो यह कि जहां हम आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खेलने का निमंत्रण नहीं देते हैं, वहीं उनकी पाकिस्तान सुपर लीग (पीएसएल) भारतीयों के पैसे से ही स्पॉन्सर होती है। और वह इसलिए क्योंकि हमारे देश में ऑनलाइन सट्टेबाजी के खिलाफ कोई कानून नहीं है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने 2019 में सरकार से पूछा कि क्या वह ऑनलाइन सट्टेबाजी को रोकने पर विचार कर रही है। तब सरकार का जवाब था कि हम विदेश से संचालित ऐसी किसी भी ऑनलाइन गतिविधि को रोकने में असमर्थ हैं। पर कुमार को इन तकनीकी जानकारियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे तो इतना पता था कि उसका एक दोस्त जो उसके साथ दिल्ली में करीब 17 साल पहले नाम और पैसा कमाने आया था, अब क्रिकेट में सट्टेबाजी खिलवा कर मालामाल हो रहा है। कुमार खबर के इस पहलू पर बात करना चाह रहा था कि एक सट्टेबाजी की वेबसाइट, जिसके 70 फीसदी ग्राहक हिंदुस्तानी हैं, यहां से इतना पैसा कमा लेती है कि उस पैसे से वह पीसीएल को ही स्पॉन्सर कर देती है। हमने कुमार से पूछा कि क्या वह उस वेबसाइट के बारे में जानता है?
कुमार बोला, ‘भैया, खूब जानता हूं इस वेबसाइट के बारे में। मेरा दोस्त इसका कर्ता-धर्ता है। कई साल पहले वह दुबई निकल गया। क्रिकेट की सट्टेबाजी से जुड़ गया था। मोटी पैदा करने लगा। हम लोगों का वह हीरो है। भला इतने कम समय में कौन इतनी तरक्की करता है।’ बातचीत चलती रही। हम दोनों को पार्क में बैठे आधा घंटा हो चुका था। सैर करने का मूड भी नहीं था। कुमार ने हमसे विदा ली। हम पार्क की एक बेंच पर बैठकर सोच रहे थे आज जब आप का मोल पैसे से ही तुलता हो तो जितनी बड़ी जेब उतनी बड़ी औकात। फिर गलत और सही तब तक नहीं, जब तक आप दबोचे ना जाएं। मुंबई की तरह दिल्ली में भी पूरा भारत अपना भाग्य आजमाने आता है। कोई हीरो बन जाता है, तो कोई जीरो रह जाता है। हीरो बनने के लिए कोई जीरो अपराध की दुनिया में भी फिसल जाता है। दिल्ली सिर्फ दिल वालों की है ऐसा नहीं है। दिल्ली में ना जाने कितने लोगों ने काले धंधे करके मोटी पैदा की और वे हो गए सफेदपोश।