सुधा सिंह
वनवास के लिए, ब्राह्मणों के साथ, पांडव काम्यक के द्वैत वन क्षेत्र में गए. सरस्वती के किनारे द्वैत में एक पवित्र जलाशय भी था, जिसके निकट अनेक तपस्वी साधना कर रहे थे. पांडवों ने भी वही कुटिया बनाए और उनके पुरोहित धौम्य उनकी सुरक्षा और समृद्धि के लिए यथोचित यज्ञादि करने लगे. पांडवों के दिन अपेक्षाकृत सुख शांति से बीत रहे थे.
एक दिन पांचो भाई बातें कर रहे थे जब द्रौपदी ने कहा “कहते हैं ऐसा कोई क्षत्रिय नहीं होता जिसे क्रोध न हो पर, पर आप” युधिष्ठिर की ओर मुड़ कर उस ने कहा “उस उक्ति के अपवाद हैं. निश्चित ही आप में क्रोध बिलकुल नहीं है, अन्यथा मुझे और अपने भाइयों की यह दशा आप शांत मन से कैसे देख पाते? जो क्षत्रिय क्षमादान के उपयुक्त समय पर शांत नहीं रहता वह अपने दोनों लोक खो देता है पर यह भी सच है कि जो व्यक्ति उचित समय पर अपनी शक्ति नहीं दिखाता वह अपना सम्मान खो बैठता है.”
द्रौपदी ने इस विषय पर राजा बलि और उसके पितामह असुर-राज प्रह्लाद के बीच हुई वार्ता की चर्चा की. बलि ने कभी प्रह्लाद से पूछा था कि क्षमा और शक्ति प्रयोग में कौन सा व्यवहार अधिक धर्म संगत है? सर्वज्ञ प्रह्लाद ने न तो क्षमा और न ही शक्ति प्रयोग को हर अवसर के लिए श्रेष्ठतर बताया.
जो सब को क्षमा करता चलता है, प्रह्लाद ने कहा, उसकी सभी अवज्ञा करने लगते हैं; और वे जो कभी क्षमा नहीं करते निश्चित ही अपने मित्रों और सम्बन्धियों से दूर हो जाते हैं. ऐसा व्यक्ति सबों का अपमान करते चलता है और बदले में अवज्ञा और दुःख पाता है.
इस तरह जो सदैव क्षमा करता है वह भी अवज्ञा पाता है और जो कभी नहीं क्षमा करता वह भी अवज्ञा पाता है. इसीलिए, प्रह्लाद ने कहा, किसी को सदैव क्षमादान या सदैव बल-प्रयोग नहीं करना चाहिए. परिस्थिति आंक कर उस के अनुकूल काम करना चाहिए. यदि किसी ने कभी तुम्हारी सेवा की थी तो आज उस के गंभीर दोषों को भी उस की पुरानी सेवाओं का स्मरण करते हुए भुला देना चाहिए. वैसे लोग भी क्षमा के पात्र हैं जिन्होंने अज्ञान-वश कोई गलती कर दी हो – ज्ञान और बुद्धिमत्ता सबों के भाग्य में नहीं रहती. पर उन्हें, जिन्होंने जान बूझ कर कोई अपराध किया हो और अब अज्ञान की दुहाई दे रहे हैं अवश्य दंड मिलना चाहिए, चाहे उनके अपराध छोटे ही क्यों न हों.
प्रह्लाद ने यह भी कहा है कि “किसी व्यक्ति को उस के पहले अपराध पर दण्डित नहीं करना चाहिए, पर उसके दूसरे अपराध को – चाहे वह गौण ही क्यों न हो – कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए. यदि किसी व्यक्ति से कोई अपराध कर्म जबरन, उस की इच्छा के विरुद्ध करवाया गया हो तो वह दंड का भागी नहीं होता पर अपराध में उसकी सहभागिता की निष्पक्ष जांच अवश्य कर लेनी चाहिए.
“और अंत में यह हमेशा ध्यान रहे कि विनम्रता से कुछ भी प्राप्त या सिद्ध किया जा सकता है और इस तरह विनम्रता अपने आप में एक बहुत शक्तिशाली आयुध है. बुद्धिमान सदैव देश-काल के सन्दर्भ में ही कोई कदम उठाते हैं. कभी कभी कुशल राजा को जनता के विचार को ध्यान में रख कर भी अपराधियों को क्षमादान देना पड़ जाता है.”
बलि और प्रह्लाद के वार्तालाप की चर्चा करने के बाद द्रौपदी ने युधिष्ठिर से कहा “राजन, बल प्रयोग का समय अब आ चुका है. धृतराष्ट्र के पापी पुत्रों ने हर अवसर पर हमें व्यथित किया है. उन्हें क्षमा करने की जगह आप उनका नाश करने की अब सोचें”.
“मैं कभी क्रोध नहीं कर सकता.” युधिष्ठिर ने कहा, “क्रोध में मनुष्य उचित अनुचित को भूल जाता है. यूँ भी अपने से सबल व्यक्तियों पर क्रोध कर दुर्बल व्यक्ति अपने नाश का स्वयं कारण बन जाते हैं. वहीँ सबल यदि दुर्बल पर क्रोध करते हैं तो अपना परलोक खो बैठते हैं इसी लिए मनीषियों ने कहा है कि दुर्बल या सबल, बुद्धिमान किसी पर कभी क्रोध नहीं करते. मैं कृष्णे, दुर्योधन को मारने के लिए भी कभी क्रोध नहीं कर सकता.
“क्रोधी राजा अपनी प्रजा का नाश देखता है, ठीक वैसे ही जैसे क्रोधी पति-पत्नी अपने परिवार का. सच तो यह है कि क्षमा के चलते ही मनुष्य की प्रजाति बनी हुई है. जिस दिन हमारा सम्मिलित क्रोध हमारी सम्मिलित क्षमा पर भारी पड़ने लगेगा उसी दिन से मानव जाति की निरंतरता संकट में पड़ जायेगी. इसीलिए कश्यप ऋषि ने क्षमा को श्रुति और स्मृति के समतुल्य माना है.
और द्रौपदी, पितामह भीष्म शान्ति के पक्षधर हैं, देवकी-पुत्र कृष्ण भी शान्ति चाहते हैं, द्रोण, विदुर, कृपा, संजय, सोमदत्त, युयुत्सु और हमारे पितामह व्यास सभी शान्ति चाहते हैं. इनकी बातों के सामने धृतराष्ट्र भी झुक जाएंगे और शान्ति चाहेंगे और हमारा राज्य हमें लौटा देंगे. यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनका निश्चय ही उनका नाश होगा.
“सुयोधन राज्य करने के योग्य नहीं है क्यो कि वह क्षमाशील नहीं है. मैं क्षमाशील हूँ और मैं राजा बनने के योग्य हूँ. जो आत्म संपन्न नही होते वही क्षमा और विनम्रता से दूर रहते हैं.
द्रौपदी मानने को तैयार नहीं थी. “मैं धात्रि और विधात्रि का नमन करती हूँ” द्रौपदी ने कहा “जिन्होंने आप को मतिभ्रमित कर दिया है. कोई व्यक्ति मात्र शील और सदाचार के बल पर समृद्धि नहीं जीत सकता. यदि ऐसा होता तो आप की आज यह दशा नहीं होती. देवगण भी जानते हैं कि आप का सब कुछ, आप का राज-पाट और आप का जीवन भी धर्म और सदाचार को समर्पित है. मुझे लगता है आप अपने भाइयों और अपनी भार्या को छोड़ सकते हैं पर धर्म और सदाचार को कभी नहीं छोड़ सकते. मैंने सुना था कि राजा सदाचार की रक्षा करते हैं और सदाचार फिर उनकी रक्षा करता है पर मैं देखती हूँ कि धर्म और सदाचार ने आप की रक्षा नहीं की है.
“आप ने ब्राह्मणों का सदैव पूरा सत्कार किया है, आप के घर में यति, संन्यासी या भिक्षुओं ने भी सोने की थालियों में भोजन पाया है, मैं जानती हूँ क्यों कि मैं ने ही परोसे हैं. आप के घर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे आप किसी ब्राह्मण के मांगने पर उसे तत्काल न दे दें. जब भी आप ने कोई यज्ञ या किसी पूजा का आयोजन किया हर बार आप ने आगंतुकों को भर पेट खिलाने के बाद जो बचा था उसे ही खा कर संतोष किया है. इस वन में भी आप के सदाचार में कोई कमी नहीं आई है.
“राजन, सादगी, सच्चाई, और विनम्रता से अभिभूत रहने पर भी आप जुए से कैसे इतने आसक्त हो गए कि पासे के ऊपर आप ने अपनी पूरी संपत्ति, अपने अस्त्र-शस्त्र और अपनी भार्या को खो दिया? आप को इस कष्ट में देख मुझे वह पुरानी बात याद आती है कि मनुष्य का भाग्य उसके कर्मों पर नहीं बल्कि ईश्वर की इच्छा पर चलता है – वैसे ही जैसे किसी कठपुतली के अंग सूत्रधार की इच्छा पर चलते हैं. पर तब पार्थ आप की यह दुर्दशा और दुष्ट दुर्योधन की समृद्धि बिलकुल समझ में नहीं आती है. यदि सब परमात्मा का खेल है तो क्या परमात्मा के हाथ पाप से रंग गए हैं?”
“याज्ञसेनी” युधिष्ठिर ने कहा “तुम नास्तिकों की बोली क्यों बोल रही हो? मैं देता हूँ, बस इस लिए क्यूंकि देना मेरा धर्म है. मैं अपने कर्म के फल की अपेक्षा कर नहीं देता हूँ. इसी तरह मैं यज्ञ करता हूँ या मैं धर्म या सदाचार में अडिग रहता हूँ क्यूंकि ये मेरे वेदोक्त कर्तव्य हैं. यदि कोई धर्म का फल पाने के लिए धर्म-कर्म करता है तो वह धार्मिक नही रहता बल्कि धर्म का व्यापारी होता है. चाहे कुछ हो जाए कृष्णे, सदाचार में अपनी निष्ठा कभी कम मत होने देना. धर्म या ईश्वर में आस्था की कमी तुम्हे शोभा नहीं देती. सदाचार पर संदेह या धर्म का अपमान कोई नासमझ ही कर सकता है, जो बाहरी दुनिया के आगे कुछ नहीं देख पाता; और ऐसे व्यक्ति को इहलोक और परलोक दोनों जगह कष्ट भोगने पड़ते हैं. पर जो धर्म में आस्था रखता है वह शाश्वत आनंद पाता है.
यदि सदाचार और धर्म निष्फल रहते तो सृष्टि कब की खत्म हो गयी रहती. मनुष्य मुक्ति के विषय में नहीं सोचते और पशुओं का आचरण करते दीखते. यदि तप, वेदाध्ययन, दान, यज्ञ आदि निष्फल होते तो इतनी पीढ़ियों से हमारे पूर्वज इनमें नहीं लगे रहते. पुण्य या पाप कभी फल हीन नहीं होते. तुमने कृष्णे अपने और दृष्टद्युम्न के जन्म की कथा तो अवश्य सुनी होगी, तब तुम कैसे यज्ञादि को फलहीन देख सकती हो? यज्ञ हम फल की कामना के साथ करते हैं पर दान पुण्य हम बिना किसी कामना के और बिना किसी अहम भाव के करते हैं पर इस का अर्थ यह नहीं होता कि दान-पुण्य के फल नहीं होते. और कृष्णे, कभी प्रभु का अनादर नहीं करना. उन्ही की कृपा से मर्त्य मानव भी अमरत्व पाता है.
“मैं धर्म की अवहेलना कभी नहीं कर सकती” द्रौपदी ने कहा “किन्तु पार्थ हर जीव को, यदि उस में चेतना हो, तो कर्म में लगे रहना चाहिए. आप को भी कर्म पथ पर रहना चाहिए, कर्म का परित्याग करने पर आप की भी निंदा होगी. धन संपत्ति अर्जित करने के लिए और धन संपत्ति सुरक्षित रखने के लिए कर्म करते रहना आवश्यक होता है. प्रारब्ध के भरोसे बैठे रहने वाले मनुष्य किसी काम के नहीं होते. भाग्य के भरोसे मिले धन से किसी का सम्मान नहीं होता. सम्मान होता है धन अर्जित करने से. धार्मिक कर्म काण्ड से मिला सुफल दैवी ही कहलायेगा अर्जित नहीं. ईश्वर दत्त समृद्धि हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के सुफल होते हैं.
“कहा जाता है कि अच्छा या बुरा कोई भी काम जो कोई व्यक्ति करता है वह प्रभु की इच्छा से उसके पूर्व जन्मों के कर्मफल से होता है. अर्थात काम प्रभु करते हैं मनुष्य निमित्त मात्र रहता है. पर समझदार व्यक्ति जानते हैं कि तिल से तेल या दूध से दही बन सकता है, और कि कच्चे अन्न पका कर पकवान बनाये जा सकते हैं. वे ऐसा बनाते भी हैं. जो अच्छा बना पाते है वे प्रशंसा पाते हैं और जो कुशल कारीगर नहीं होते उनकी भर्त्सना भी होती है. बनाने वाले प्रशंसा या निंदा पाते हैं क्यों कि वे वस्तुतः कर्ता होते हैं. यदि वे निमित्त मात्र रहते तो वे आदर या अनादर के पात्र नहीं रहते.
“साथ ही यदि कर्म के फल विधाता के हाथ नहीं रहते तो कोई भी काम करने वाला कभी दुखी नहीं होता. पर इस जन्म में किये गए कर्मों के फल पूर्व जन्म के कर्मों पर भी निर्भर करते हैं और कोई नहीं जानता किस के कर्म का क्या फल मिलेगा. फिर भी मनुष्य को प्रयास करते रहना चाहिए. जो काम करते रहता है, सदैव तो नहीं पर बहुधा वह सफलता छू लेता है, जो निष्क्रिय रहता है उसे कभी सफलता नहीं मिलती. आज हमारे ऊपर दुःख और विपत्ति के बादल छाये हैं पर राजन, यदि आप कर्म को उद्द्यत हो जाएं तो इन बादलों को छंटने में देर नहीं लगेगी.”
द्वैत वन में युधिष्ठिर के सम्मान में उसके अनुज तो चुप बैठे थे पर द्रौपदी ने मुंह खोल ही दिया था. कौरव सभा में हुए अपने अपमान को वह कभी नहीं भूल सकती थी, उसे आश्चर्य था कि युधिष्ठिर उस अपमान के प्रतिकार के विषय में सोच भी नहीं रहा था. द्रौपदी और युधिष्ठिर में हुई बात चारो भाईओं ने ध्यान से सुनी थी.
कर्म करने के द्रौपदी के आग्रह से भीम का शांत होता क्रोध जग उठा “हमारे राज्य को उस कपटी दुर्योधन ने बल से नहीं बल्कि छल से लिया है.आप की वचन बद्धता का राजन, पता नहीं कब, कितना पुण्य मिलेगा पर उस वचन बद्धता के चलते हमारी सारी संपत्ति, जिस से हम दान धर्म कर पाते थे, तो अभी चली गयी. तपस्वियों की तरह आश्रम में रहने से हमें न सुख मिलेगा न ही समृद्धि.”
भीम का आवेश बढ़ता जा रहा था. “यह आप की अनवेक्षता थी राजन, जिस के चलते गांडीव रहते हुए भी हम अपना राज्य खो बैठे हैं. बस आप के सम्मान का विचार कर हम ने इस दुर्भाग्य को स्वीकार कर लिया है. आप की आज्ञा के पालन में हम ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को जीवित छोड़ दिया और आज हमारी यह स्थिति हो गयी है कि हमारे जैसे पराक्रमी भी वन्य पशुओं की तरह जंगलों में रह रहे हैं. कभी कभी मुझे लगता है विषाद ने आप का पौरुष भी हर लिया है.
“इस वनवास से राजन, मुझे युद्ध में लड़ते लड़ते मर जाना अधिक प्रिय लगेगा. अभी हम धर्माचरण के नाम पर जो कर रहे हैं. वह हमारा हमारी धर्म-निष्ठा नहीं हमारी दुर्बलता दर्शाता है. इस दुर्बल आचरण से हम ने धर्म और अर्थ दोनों खो दिए हैं.
“जिस तरह धन को बस धन के लिए सहेजना किसी बुद्धिमान का काम नहीं है वैसे ही सदाचार का उद्देश्य समझे बिना सदाचार में डूबे रहना भी बुद्धिमान का काम नहीं है. जो धर्म और काम को भुला कर अर्थ के पीछे भगाता है वह निंदा का वैसा ही पात्र होता है जैसा वह जो काम के आगे अर्थ और धन को भुला देता हो. इसी लिए बुद्धिमान धर्म और अर्थ दोनों के प्रति सजग रहते हैं. धर्म और अर्थ का सम्मिलन ही काम का पोषण कर सकता है. धर्म और काम एक दूसरे से अलग नहीं हैं राजन, मेघ और समुद्र की तरह दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं.
“जो अर्थ की चाह रखते हैं वे अपनी इच्छा-पूर्ती के लिए धर्म कर्म में भी लगे रहते हैं. जो काम की चाह रखते हैं उनके लिए अर्थ एक अनिवार्य उपादान रहता है. इस तरह धर्म से अर्थ और अर्थ से काम की सिद्धि की अपेक्षा रहती है पर काम से फिर कोई और पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होता. जैसे लकड़ी जल कर राख देती है पर राख अपनी बारी आने पर कुछ और नहीं दे सकती. भोग की वस्तुओं के परिग्रह से, राजन, आनंद आता है और उनके खो जाने से कष्ट. वह कष्ट हम पर अभी छा गया है. अर्थ और काम कभी जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य नहीं बन सकते पर उन्हें बिलकुल छोड़ देना भी उचित नहीं है. शास्त्रों में कहा गया है कि प्रत्येक दिन का प्रातः धर्म के लिए, मध्य अर्थ के लिए और संध्या काम के लिए उपयुक्त काल है; इसी तरह जीवन के प्रथम भाग में काम, मध्यम भाग में अर्थ और वार्धक्य में धर्म सिद्ध करना चाहिए. बुद्धिमान तीनो को पाने का प्रयास करते हैं. आवश्यक है राजन कि आप पहले विचार कर निश्चय कर लीजिये कि हमें तीनो का अननुशीलन करना है या धर्म छोड़ शेष दोनों को त्याग देना है. आप जो निर्णय करेंगे वही होगा पर इस में अस्थिरता, दोनों के बीच में ढुलमुल रहने से जीवन दयनीय रहेगा.
“सब जानते हैं कि आप का व्यवहार सदैव धर्म संगत रहता है. दान, यज्ञ और ऋषियों के सम्मान से अधिक प्रिय आप को कुछ नहीं लगता. पर यह सब कर पाने के लिए आवश्यक है कि पर्याप्त मात्र में धन उपलब्ध हो. धर्म सर्वोपरि है पर धार्मिक कृत्य कर पाने के लिए धन आवश्यक है. भिक्षु या दुर्बल धन नहीं अर्जित कर सकते, इस लिए राजन, आप अपने वर्ण-धर्म को स्वीकार कर धार्तराष्ट्रों का नाश करने की सोचें.
“प्रभुत्व अपने आप में धर्म माना गया है, आप इस दुर्दशा से उठें और प्रभुत्व जीतें, अपनी प्रजा का पालन-पोषण करें. वर्ण धर्म छोड़ कर आप उपहास के पात्र बनेंगे. कोई राजा पृथ्वी का प्रभुत्व बस धर्म कर्म से नहीं जीत पाया है. बल और प्रपंच दोनों लगते हैं प्रभुसत्ता जीतने में. असुर अग्रज हैं सुरों के, अधिक बलि भी रहे हैं पर दांव पेंच लगा कर सुर अक्सर उन पर भारी पड़े हैं. बल में हम किसी से कम नहीं हैं. अर्जुन सदृश धनुर्धर पूरे विश्व में कोई नहीं है, न ही मेरे सदृश गदाधर.
“पर आश्चर्य है कि हर दृष्टि से सबल होते हुए भी हम आज निर्धनों का जीवन जी रहे हैं. क्षत्रिय अपना अधिकार तपस्या से नहीं बल्कि शौर्य से लेते हैं. शास्त्र यह भी कहते हैं कि यज्ञादि आयोजित कर और ब्राह्मणों को समुचित दान देकर एक राजा उन सभी पापों से मुक्त हो जाता है जो उसने राज्य जीतने के क्रम में किये हों. और राजन, यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय अपने शत्रुओं का मर्दन नहीं करते वे अपवित्र रहते हैं.”
भीम की बातें सुन युधिष्ठिर ने स्वीकारा “यह सच है कि यह दुर्भाग्य मेरी मूर्खता से आया है. मैं जुए से धार्तराष्ट्रों का राज्य जीतने चला था पर दुर्योधन की जगह वह धूर्त जुआरी शकुनि बैठ गया और उस के आगे मेरी एक न चली. मैं देख रहा था कि पासा मानो शकुनि की हर बात मान रहा था पर हर हार पर मेरा आक्रोश बढ़ता गया, मेरा धैर्य घटता गया और मेरी मति मरती गयी. एक बार सब कुछ हार जाने के बाद द्रौपदी ने हमें बचाया; पर दुर्योधन के दुबारा बुलाने पर मैं फिर बैठ गया.
“इस बार दांव था बारह वर्ष का वनवास और फिर एक वर्ष का अज्ञात वास. “उस के बाद पांच नदियों से सिंचित यह राज्य फिर तुम्हारा हो जाएगा” यही कहा था दुर्योधन ने. यदि मैं जीत जाता तो धृतराष्ट्र के पुत्रों को यह भोगना पड़ता पर शकुनि फिर भारी पड़ा. मैं जानता हूँ जब मैं पासा उठा रहा था उस समय भीम तुम मेरे हाथ जला देना चाहते थे, बस धनञ्जय के मनाने पर तुम रुक पाये थे. क्यों नहीं जला दिए थे तुमने मेरे हाथ? शायद आज यह ह्रदय दघ्द होने से बच जाता.
“अब, अब सभा में सभी के सामने वन वास और अज्ञात वास की शर्त मान लेने के बाद मैं किस मुंह से युद्ध के लिए जा सकता हूँ? अतिक्रमण से राज्य जीतने से कहीं अच्छा है मृत्यु का वरण कर लेना.”
युधिष्ठिर को सुन भीम और आवेश में आ गया. “आप कहते हैं वन-वास और अज्ञात वास के बाद हमें अपना राज्य वापस मिल जाएगा. पर राजन, जीवन अनिश्चित होता है; एक पके फल की तरह हम कभी भी गिर सकते हैं. और जिस का जीवन ही अनिश्चित हो वह दीर्घ काल के बाद राज योग भोगने को कैसे तैयार हो सकता है? यह वन वास और यह अज्ञात वास मुझे मेरी मृत्यु के तेरह वर्ष निकटतर पहुंचा देंगे. इस लिए हमें अपने राज्य को जीतने के प्रयास अभी करने चाहिए.
“मेरा आक्रोश मुझे अंदर से जला रहा है और मैं रात या दिन कभी सो नहीं पाता हूँ. अर्जुन भी निश्चित ही भीतर भीतर जल रहा है. नकुल और सहदेव भी, राजन, बस आप के सम्मान में चुप बैठे हैं. सिर्फ कृष्णे और मैं आप के सामने मुंह खोलने का दुःसाहस कर पा रहे हैं, पर जो हम कह रहे हैं उस में उन तीनो की भी मूक सहमति है, वे भी उतने ही दुखी हैं जितने हम दोनों और वे भी उतने ही उत्कट हैं युद्ध के लिए जितने हम. वचन तोड़ने में आप को जो दुविधा हो रही है यह आप के स्वभाव की कमजोरी है. मनु द्वारा निष्पादित राजा के गुणों का स्मरण कीजिये- राजा को समय समय पर कुटिल और अन्यायी होना ही पड़ता है.
“यह भी याद रखें राजन कि हम कभी अज्ञात वास नहीं कर सकेंगे. अपने आप को छुपा पाना हमारे लिए वैसा ही कठिन होगा जैसे हिमवत को घास के कुछ बोरों से ढक पाना. इस विश्व में कौन आप को या अर्जुन को नहीं जानता? या इन युगल सिंह-शावक नकुल, सहदेव को? द्रुपद पुत्री कृष्णा क्या कभी अनजान बन कहीं रह सकेगी? मुझे भी राजन, बचपन से बहुत लोग जानते हैं. हम सबों का छुप कर रह पाना असंभव प्राय है – जैसे महान मेरु पर्वत को छुपा कर रखना.
“वचन-भंग के पाप का शास्त्रोक्त उपचार राजन बहुत कठिन नहीं है – पवित्र बोझ ढोने वाले किसी बैल को उस की रुचि का भोजन कराने से उस पाप का प्रायश्चित हो जाता है. अतः राजन अब उठिए और क्षात्र धर्म का पालन कीजिये.”
युधिष्ठिर थोड़ी देर विचारमग्न रहा फिर भीम की ओर उन्मुख हो कहने लगा “महाबाहु, मात्र शौर्य के भरोसे से कोई दुष्कर कार्य करने की नहीं ठान लेनी चाहिए. सफलता के लिए आवश्यक है कि शक्ति के साथ एक सुनियोजित योजना हो जिस में सोच विचार कर सभी उपकरण, यंत्र, युक्ति आदि की व्यवस्था कर ली गयी हो. तुम अभी क्षुब्च हो और अपनी अधीरता के चलते विस्तृत चित्र को नहीं देख पा रहे हो.
“एक साथ भूरिश्रवा, शाल, कर्ण, द्रोण-पुत्र और दुर्योधन जैसे महारथियों के विरुद्ध हम नहीं लड़ सकते. इनके साथ वे सब नरेश भी तुरंत मिल जाएंगे जिन्हे हम ने कभी युद्ध में पराजित कर उनके राज्यों से निष्कासित कर दिया था. भीष्म, द्रोण, और कृपा वैसे तो निष्पक्ष दीखते हैं पर मेरा विश्वास है कि अब तक पाये राजकीय उपकार से दबे, वे भी दुर्योधन के पक्ष में रहेंगे. उन सबों के पास दैवी शस्त्रास्त्र हैं. वे पराक्रमी भी हैं और धर्म-निष्ठ भी. देव-गण भी उन्हें शायद ही पराजित कर पाएं. और उस प्रचंड धनुर्धर कर्ण हम नहीं भूल सकते हैं वृकोदर. इन सब के रहते हुए दुर्योधन का वध कर पाना सरल नहीं है.”
युधिष्ठिर की बातें सुन कर भीम भौंचक्का रह गया – तो युद्ध नहीं करना युधिष्ठिर की एक सामरिक रण नीति थी. (चेतना विकास मिशन).