होली के त्योहार पर सभी क्षेत्रों की अपनी-अपनी प्रथाएं, किस्से और कहानियां हैं. अलवर शहर में भी होली के त्योहार को लेकर कई किस्से हैं. ऐसा ही एक किस्सा अलवर के तत्कालीन महाराजा जयसिंह के जमाने का है. उनकी होली को आज भी याद किया जाता है. महाराजा जयसिंह की होली की खास बात यह रहती थी कि वह अपने इंद्र विमान पर सवार होकर प्रजा के साथ होली खेलने के लिए निकलते थे. प्रजा अपने राजा के दरबार में जाकर उन्हें उपहार देती थी. उस समय बीकानेर की प्रसिद्ध डोलची मार होली भी क्षेत्र में खेली जाती थी. पहले के समय में होली का त्यौहार करीब एक माह तक मनाया जाता था, लेकिन समय के साथ ही यह त्यौहार अब एक दिन के रह गए हैं.

अलवर के इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि पहले के समय में होली का त्यौहार उत्सव के रूप में एक माह पहले डांडा गड़ने के साथ ही शुरू हो जाता था. धुलंडी के दिन इस त्यौहार का समापन होता था. उन्होंने बताया कि पहले शहर के केडलगंज में संगीत दंगल का आयोजन होता था. ढप बजाया जाता था. शहर के हर मोहल्ले में होली खेलने के लिए युवाओं की टोलियां जाती थी, गाने बजाने के साथ ही कवि सम्मलेन का आयोजन होता था. हालांकि आज भी कवि सम्मलेन का आयोजन होता है.

डोलची मार होली का भी था प्रचलन: इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि बीकानेर की प्रसिद्ध डोलची मार होली का प्रचलन पहले के समय में अलवर में भी होता था. यहां नगर निगम के पीछे स्थित मोहल्ले में एक टैंक में पलाश के फूलों का रंग घोलकर रखा जाता था. इस दौरान वहां डोलची मार होली खेलने के लिए टोलियां पहुंचती थी. इतिहासकार गोयल बताते हैं कि सिटी पैलेस में आज भी वह कुंड मौजूद है, जहां रंग भरा जाता था. यहां महाराजा अपने जागीरदारों के साथ होली खेलते थे. उन्होंने बताया कि आज के समय में डोलची मार होली का प्रचलन अलवर में नहीं है.
इंद्र विमान पर सवार होकर निकलते थे होली खेलने: गोयल ने बताया कि महाराजा जयसिंह को होली खेलने का शौक था, इसलिए अलवर में महाराजा जय सिंह की होली प्रसिद्ध मानी जाती है. वे प्रजा के साथ होली खेलने के लिए अपने इंद्र विमान पर सवार होकर अपने महल से निकलते थे. इस दौरान वे शहर के त्रिपोलिया, होप सर्कस और तीजकी होते हुए महल की ओर लौटते थे. महाराज जय सिंह अपनी प्रजा पर गुलाल गोटे मारते थे. इसमें से अलग अलग रंग निकलते थे. महाराज के साथ होली खेलने के लिए प्रजा रोड के दोनों ओर खड़ी रहती थी.
दरबार में दिए जाते थे उपहार: इतिहासकार हरिशंकर ने बताया कि होली के अवसर पर शाम के समय सिटी पैलेस में दरबार लगता था. इसमें जागीरदार व प्रजा की ओर से महाराज को उपहार के रूप में मिठाई व अन्य चीजें दी जाती थी. महाराजा हाथ लगाकर उन्हें वापस कर दिया करते थे. इतिहासकार हरिशंकर गोयल बताते हैं कि शहर में आज भी एक गली को रंगभरियों की गली के नाम से जाना जाता है. इसके पीछे कारण है कि होली के समय में यहां पर गुलाल गोटे व रंग बनाने का कार्य किया जाता था. यहां पर मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा राज परिवार व आम लोगों के लिए गुलाल गोटे तैयार किए जाते थे. आज भी इस गाली को रंग भरियों की गली के डोलची मार होली का भी था प्रचलन: इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि बीकानेर की प्रसिद्ध डोलची मार होली का प्रचलन पहले के समय में अलवर में भी होता था. यहां नगर निगम के पीछे स्थित मोहल्ले में एक टैंक में पलाश के फूलों का रंग घोलकर रखा जाता था. इस दौरान वहां डोलची मार होली खेलने के लिए टोलियां पहुंचती थी. इतिहासकार गोयल बताते हैं कि सिटी पैलेस में आज भी वह कुंड मौजूद है, जहां रंग भरा जाता था. यहां महाराजा अपने जागीरदारों के साथ होली खेलते थे. उन्होंने बताया कि आज के समय में डोलची मार होली का प्रचलन अलवर में नहीं है.
इंद्र विमान पर सवार होकर निकलते थे होली खेलने: गोयल ने बताया कि महाराजा जयसिंह को होली खेलने का शौक था, इसलिए अलवर में महाराजा जय सिंह की होली प्रसिद्ध मानी जाती है. वे प्रजा के साथ होली खेलने के लिए अपने इंद्र विमान पर सवार होकर अपने महल से निकलते थे. इस दौरान वे शहर के त्रिपोलिया, होप सर्कस और तीजकी होते हुए महल की ओर लौटते थे. महाराज जय सिंह अपनी प्रजा पर गुलाल गोटे मारते थे. इसमें से अलग अलग रंग निकलते थे. महाराज के साथ होली खेलने के लिए प्रजा रोड के दोनों ओर खड़ी रहती थी.
दरबार में दिए जाते थे उपहार: इतिहासकार हरिशंकर ने बताया कि होली के अवसर पर शाम के समय सिटी पैलेस में दरबार लगता था. इसमें जागीरदार व प्रजा की ओर से महाराज को उपहार के रूप में मिठाई व अन्य चीजें दी जाती थी. महाराजा हाथ लगाकर उन्हें वापस कर दिया करते थे. इतिहासकार हरिशंकर गोयल बताते हैं कि शहर में आज भी एक गली को रंगभरियों की गली के नाम से जाना जाता है. इसके पीछे कारण है कि होली के समय में यहां पर गुलाल गोटे व रंग बनाने का कार्य किया जाता था. यहां पर मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा राज परिवार व आम लोगों के लिए गुलाल गोटे तैयार किए जाते थे. आज भी इस गाली को रंग भरियों की गली के नाम से जाना जाता है.नाम से जाना जाता है.