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संगीत से भी बुझाई थी महात्मा गांधी ने दंगे की आग

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अखिलेश झा

महात्मा गांधी के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में संगीत वैसे ही था, जैसे उनके विचारों में सत्याग्रह और अहिंसा। उन्हें ऊर्जा शायद संगीत से ही मिलती थी। बापू जैसा दूसरा उदाहरण ढूंढना मुश्किल होगा, जिसने अपना पूरा जीवन सुबह-शाम अनुशासन के साथ प्रार्थना-संगीत में लगाया हो। जीवन ही क्या, अपनी अनंत यात्रा पर भी वह रामनाम के साहचर्य में ही रहे।

संगीत और अनुशासन: गांधीजी कहते थे कि यदि संगीत न होता, प्रार्थना न होती, तो जनसभाओं में आने वाले लाखों लोगों को अनुशासित रखना असंभव हो जाता। उन्होंने कहा था, ‘अगर सत्य का आग्रह आश्रम की जड़ में है, तो प्रार्थना उस जड़ का मुख्य आधार है।’ महात्मा गांधी ने जब साबरमती आश्रम की स्थापना की, तो भजन और संगीत पर भी बहुत ध्यान दिया। उन्होंने काका कालेलकर से आग्रह किया कि वह पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर से इस बारे में सलाह करें। पलुस्कर के प्रिय शिष्य महाराष्ट्र के मिरज के नारायण खरे थे। वह आश्रम के अनुशासन के लिए भी सब तरह से उपयुक्त थे। ऐसे में पलुस्कर ने अपने शिष्य को साबरमती आश्रम भेज दिया।

नई पहचान: गांधीजी के आश्रम में गाए जाने वाले भजन बाहर भी लोकप्रिय होने लगे। भजन चाहे कबीर के हों, मीरा, सूर, तुलसी या नरसी मेहता के, उनके साथ-साथ उन भजनों की एक पहचान गांधी भजन के रूप में भी बन गई। ग्रामोफोन रेकॉर्ड पर उन्हें गांधी भजन के रूप में दर्ज किया गया। यह श्रेय बापू को ही जाता है कि भक्त कवियों के भजन दोबारा घर-घर तक ग्रामोफोन रेकॉर्ड और रेडियो के माध्यम से पहुंचने लगे।

गांधी में कबीर: गांधीजी क्रांति का नारा नहीं देते थे, वह क्रांति के बीज बोते थे। क्रांति का एक ऐसा ही बीज उन्होंने बोया ‘रघुपति राघव राजा राम’ भजन में। उनकी उदारता और सहजता का सबसे बड़ा उदाहरण है इस भजन में किया गया प्रयोग, ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’। यह कोई छोटा प्रयोग नहीं था। गांधीजी के विचारों में कई बार कबीर के पुट हमें दिखते हैं।

समझौता नहीं: महात्मा गांधी अपनी प्रार्थना-सभा के संगीत को लेकर बहुत सचेष्ट रहते। कोई कहीं से आ जाए, अपनी श्रद्धा दिखाए और गांधीजी की प्रार्थना सभा के मंच पर भजन गाने लगे, ऐसा बिल्कुल नहीं होता था। क्या गाया जाएगा और कौन गाएगा, सब पर गांधीजी की सहमति जरूरी थी।

हर धर्म को जगह: 1938 में नारायण मोरेश्वर खरे के देहांत के बाद और खासकर भारत छोड़ो आंदोलन की गिरफ्तारी से 1944 में रिहा होने के बाद गांधीजी की प्रार्थना सभाओं का स्वरूप बदलने लगा। प्रार्थना सभा में सबसे पहले बौद्ध धर्म का जापानी भाषा का मंत्र गाया जाता, जो उन्होंने वर्धा आश्रम के एक जापानी साधु से सीखा था। इसके बाद संस्कृत में भगवद्गीता के श्लोक का पाठ होता। फिर अरबी में कुरान की आयतें और फारसी भाषा में पारसियों के धर्म के मंत्र पढ़े जाते थे। फिर हिंदी या भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों में भजन गाए जाते। आखिर में रामधुन से प्रार्थना सभा का समापन होता था।

विरोध का सामना: 1946-47 में गांधीजी के सर्वधर्म सद्भाव का विरोध इस हद तक होने लगा कि उनकी प्रार्थना सभा बार-बार स्थगित करनी पड़ती। एक अप्रैल, 1947 को दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में जब उन्हें कुरान शरीफ का पाठ करने से रोका गया, तो उन्होंने कहा था, ‘मैं सच्चा सनातनी हिंदू हूं। मेरा हिंदू धर्म बताता है कि मैं हिंदू प्रार्थना के साथ-साथ मुसलमान प्रार्थना भी करूं, पारसी प्रार्थना भी करूं, ईसाई प्रार्थना भी करूं। सभी प्रार्थनाएं करने में मेरा हिंदूपन है।’ जब कुरान की आयतों की बारी आने पर नियमित रूप से व्यवधान होने लगा तो 17 सितंबर 1947 को गांधीजी ने प्रार्थना का क्रम बदल दिया। कुरान की आयत सबसे पहले रख दी गई। मकसद था कि यदि प्रार्थना नहीं होनी है, तो पूरी तरह न हो।

टैगोर का असर: महात्मा गांधी के संगीत के साथ किए गए प्रयोग उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति और उदारता भी दिखाते हैं। दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर वह कुछ दिन शांति निकेतन में रहे। वहां वह रवींद्रनाथ टैगोर के संगीत से बहुत प्रभावित हुए। उसका प्रभाव उनके आश्रम के भजनों पर बहुत हुआ। विनोबा भावे, काका कालेलकर, बालकोबा भावे, महादेव देसाई, रेहाना तैयब, सियारामशरण गुप्त, डॉ. गिल्डकर आदि कई विभूतियों ने अलग-अलग तरह से गांधी आश्रम के भजनों को अधिक-से-अधिक समाहारी बनाया। बापू ने आश्रम के एक तमिल सदस्य का ध्यान रखते हुए तमिल भजन को भी शामिल कर लिया था।

बदल गया संगीत: गांधीजी के विचारों ने संगीत को बेहद प्रभावित किया। दक्षिण भारत में के.बी. सुंदरम्बल, डी.के. पट्टम्माल, एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी से लेकर बंगाल के कमल दासगुप्ता, के.सी. डे, जुथिका रॉय, दिलीप कुमार रॉय, बिजनबाला घोष दस्तीदार जैसी संगीत की हस्तियों पर ऐसा असर पड़ा कि वे गांधीजी के भजन गाने के साथ उनके आदर्शों का भी पालन करते।

नोआखाली भजन: गांधीजी के संगीत के साथ प्रयोग की सबसे कठिन परीक्षा नोआखाली में हुई, जब उन्होंने नवंबर 1946 में वहां पहुंचकर दंगाइयों को शांत करने का प्रयास किया। 1946-47 में लगभग चार महीनों के नोआखाली प्रवास के दौरान उन्होंने एक नए भजन का प्रयोग किया, ‘भज मन राम-रहीम, भज मन कृष्ण-करीम’। इसे नोआखाली भजन भी कहा जाता है। दंगे तो रुक गए, पर भारत का विभाजन न रुक पाया। गांधीजी तब भी निराश न हुए। लोगों को अपनी प्रार्थना सभाओं में तब तक भजन और संगीत के माध्यम से सही राह दिखाने का प्रयास करते रहे, जब तक अनंत शून्य के संगीत ने उन्हें अपने अंक में भर न लिया।

(लेखक ग्रामोफोन इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी हैं)

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