~ पुष्पा गुप्ता
“बाकियों की तरह महावीर के भी जन्म और निर्वाण महोत्सव पर बखूबी आयोजन होते हैं. जैनियों ने उनके भव्यतम मंदिर, तीर्थ जहाँ-तहां बनाए हैं. बेसुमार दौलत ख़र्च की जाती है उनके द्वारा ऐसे निर्माण और महोत्सव के लिए. जैन संत आज के दौर में बेशक़ अन्य मतों की अपेक्षा अधिक बेहतर हैं. ये संपन घरों से आते हैं. कड़ी कसौटी पर कसकर लाये जाते हैं. सर्वत्यागी ये संत ज्यादातर हायर एजुकेटेड भी होते हैं. लेकिन…
यह लेकिन यहां भी त्रासदपूर्ण है. लोकहित में, असहाय जरूरतमंदो के हित में, यहां तक की जैन बिरादरी के भी विपप्न जनों के हित में सक्रियता नहीं दिखती. महावीर को सिद्धांत, मंदिरों, तीर्थोँ, महोत्सवों से नहीं जीकर जीवंत बनाने की जरूरत है.”
~ डॉ. विकास मानव
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जैन परम्परा में 24 तीर्थंकर हुए हैं। वर्तमान कालीन चौबीस तीर्थंकरों की श्रृखंला में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं।
महावीर के जन्म कल्याणक को ‘महावीर जयंती’ के रूप में देश-विदेश में बडे़ ही उत्साह के साथ पूरी आस्था के साथ मनाया जाता है। महावीर को वर्द्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर के नाम से भी जाना जाता है। ईसा से 599 पूर्व कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला की एक मात्र सन्तान के रूप में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को आपका जन्म हुआ था। 30 वर्ष तक राजप्रासाद में रहकर आप आत्म स्वरूप का चिंतन एवं अपने वैराग्य के भावों में वृद्धि करते रहे।
30 वर्ष की युवावस्था में आप महल छोड़कर जंगल की ओर प्रयाण कर गये एवं वहां मुनि दीक्षा लेकर 12 वर्षों तक घोर तपश्चरण किया। तदुपरान्त 30 वर्षों तक देश के विविध अंचलों में पदविहार कर आपने संत्रस्त मानवता के कल्याण हेतु धर्म का उपदेश दिया। ईसा से 517 वर्ष पूर्व कार्तिक अमावस्या को उषाकाल में पावापुरी में आपको निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हुआ।
महावीर के उपदेश आज भी अत्यंत समीचीन और प्रासंगिक हैं। उन्होंने अपने जीवन काल में बहुत सी सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति और समाज सुधार के लिए सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् आचरण के सिद्धांतों का प्रयोग किया। उन्होंने स्त्री-दासता, महिलओं के समान दर्जे और सामाजिक समता जैसे विषयों पर सामाजिक प्रगति की शुरूआत की। महावीर की शिक्षाओं में पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास, युद्ध और आतंकवाद के जरिए हिंसा, धार्मिक असहिष्णुता तथा गरीबों के आर्थिक शोषण जैसी सम-सामयिक समस्याओं के समाधान पाए जा सकते हैं।
महावीर ने ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का शंखनाद कर ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की भावना को देश और दुनिया में जाग्रत किया। ‘जियो और जीने दो’ अर्थात् सह-अस्तित्व, अहिंसा एवं अनेकांत का नारा देने वाले महावीर स्वामी के सिद्धांत विश्व की अशांति दूर कर शांति कायम करने में समर्थ है।
आज विश्व के सामने उत्पन्न हो रहीं सुनामी, ज्वालामुखी जैसी प्राकृतिक आपदाएं, हिंसा का सर्वत्र होने वाला ताडंव, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, वैमनस्य, युद्ध की स्थितियां, प्रकृति का शोषण आदि समस्याएं विकराल रूप ले रही हैं। ऐसी स्थिति में कोई समाधान हो सकता है तो वह महावीर स्वामी का अहिंसा, अपरिग्रह और समत्व का चिंतन है।
महावीर के तीन सिद्धांत अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह बहुत सी आधुनिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं।
महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचैर्य, अपरिग्रह और ब्रहाचर्य के पांच महान सिद्धांतों की शिक्षा दी। उन्होंने समस्त प्राणि-जगत के प्रति प्रेम और करूणा का संदेश दिया। उनकी मान्यता थी कि मोक्ष और कुछ नहीं है वरन आत्मिक परितोष है।
संसार में व्यक्ति इसका अनुभव अपने सुविचारित प्रयासों द्वारा कर सकता है। उनका मत था कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वामी स्वयं है और प्रत्येक आत्मा में इतनी क्षमता है कि वह परमसिद्धि तक उठकर चरमावस्था को प्राप्त कर सके, जिसे प्राप्त करने पर वह पुर्नजन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है।
महावीर ने अपने धर्म में स्त्रियों और पुरूषों को बिना किसी भेदभाव के दीक्षित किया। उन्होंने समाज में प्रचलित सभी बुराइयों के विरूद्ध धर्मयुद्ध छेड़ा।
महावीर ने अहिंसा की जितनी सूक्ष्म व्याख्या की है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने मानव को मानव के प्रति ही प्रेम और मित्रता से रहने का संदेश नहीं दिया अपितु मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति से लेकर कीडे़-मकोडे़, पशु-पक्षी आदि के प्रति भी मित्रता और अहिंसक विचार के साथ रहने का उपदेश दिया है। उनकी इस शिक्षा में पर्यावरण के साथ बने रहने की सीख भी है। भगवान महावीर के विचार किसी एक वर्ग, जाति या सम्प्रदाय के लिए नहीं, बल्कि प्राणीमात्र के लिए हैं।
महावीर की वाणी को गहराई से समझने का प्रयास करें तो इस युग का प्रत्येक प्राणी सुख एवं शांति से जी सकता है।
महावीर स्वामी अन्तस चेतना के संवाहक एवं अहिंसक धर्म के परम उद्घोषक थे। उन्होंने अपने जीवन में मानव धर्म के निमित्त अनेक सत्यों एवं तथ्यों को उद्घाटित किया। उन्होंने प्राणीमात्र को जो कुछ भी दिव्य संदेश दिए, से सभी आचरणात्मक थे। उनके जीवन की चर्या व चर्चा में आचरण व उच्चारण में कहीं अंतर नहीं था।
महावीर सहज साधक थे। किसी प्रकार के प्रदर्शन या उपचार का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। महावीर जन साधारण के बीच रहे और साधारण रूप में रहे। समता महावीर की साधना का उद्देश्य था और वही फलश्रुति बन गयी। उन्होंने किसी भी परिस्थिति में अपने समत्व को धूमिल नहीं होने दिया। सत्कार और तिरस्कार के मध्य उनके संतुलन का सेतु प्रकम्पित नहीं हुआ। अनुकूलता और प्रतिकूलता उनके मन को प्रभावित नहीं कर सकी।
महावीर ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। इस दृष्टि से सभी समस्याओं का की जड़ है राग और द्वेष। व्यक्ति अपने स्वार्थों का पोषण करने , अहं को प्रदर्शित करने, दूसरों को नीचा दिखाने, सत्ता और विमषता के गलियारे में भटकता रहता है। महावीर की शिक्षाएं आर्थिक असमानता को कम करने की आवश्यकता के अनुरूप हैं। उन्होंने बताया कि अभाव और अत्यधिक उपलब्धता दोनों ही हानिकारक हैं।
यदि आज महावीर के सर्वोदयी सिद्धांत, अनेकान्तात्मक विचार, सभी पक्षों को अपने में समाहित कर लेने वाली स्याद्वाद वाणी, अहिंसा युक्त आचरण और अल्प संग्रह से युक्त जीवनवृत्ति हमारे सामाजिक जीवन का आधार व अंग बन जाये तो हमारी बहुत सी समस्यायें सहज ही सुलझ सकती हैं।
हम विश्व शांति के साथ-साथ आत्म शांति की दिशा में सहज अग्रसर हो सकते हैं, लेकिन तब ज़ब हम उनके चरण छूने के बजाए आचरण को छूएं।