आरती शर्मा
वहाँ किसी को जीतना नहीं है
हार दोनों की तय है
प्रेम के उत्कट क्षण
खुद को खाली करता हुआ एक उन्मत्त, अधीर
उसे खुद में समेट लेने को व्याकुल प्रणयी बाँहें
वक्ष, उदर, ग्रीवा, पृष्ठ, भुजाएँ, आँखें, चिबुक, कर्ण
हर अंग पर होंठों से एक – दूसरे का नाम लिखना
दरअस्ल, आत्मा पर एक स्थाई नाम
लिख देने की तड़प होती है
तीव्र साँसों की आरोहित लय के साथ साथ
काँपते दो शरीर
बंद आँखें,
एक दूसरे में समाहित होना
जैसे अथाह जल में धीरे धीरे गोते लेता,
अपनी ही तपिश से थका हुआ सूरज
थोड़ी देर बुझ जाना चाहता हो।
जैसे अपनी ही परिधि से बाँध दी गई
एक अनन्त जलराशि
आज तोड़ देना चाहती हो सारी सीमाएं।
दो ईश्वर एक दूसरे में लीन
सृजन – लीला रच रहे।
सृष्टि असीम आनंद से उन्हें निहार रही है।
समर्पित हो जाना देह और प्राण का।
ये साधना के फलीभूत होने के क्षण हैं।
हर अहं, हर अहंकार की समिधा को
प्रेम की अग्नि में समर्पित कर
यह आत्मा के एकाकार होने का यज्ञ है।
एक दूसरे में अवगुंठित दो शरीर
तब न स्त्री हैं, न पुरुष
वे एक दूसरे को खोजती विकल आत्माएं
दरअस्ल, अपना ही एक विस्मृत हिस्सा
तलाश रही हैं।
हर आवरण को हटाकर मन छू आना चाहती हैं
प्रेम लिख आना चाहती हैं।
उनके मिलन का साक्षी है एक निष्कपट अँधेरा
जिसमें घुलकर वे भूल जाते हैं
कि दिन का साजिशी उजाला उन्हें किस हद तक
दो हिस्सों में बाँट जाता है।
अपने हर मद, हर विजय, हर पराजय को सौंपकर
वह बेसुध सोया शिशु
जो बस अभी-अभी ही जागा है
कल नींद टूटते ही
फिर कई युगों की नींद सो जाएगा।
उसे याद आएगी
एक विजित की गई स्त्री
उसका पौरुष, उन्मादित अहंकार भरा अट्टहास करेगा।
एक पृथ्वी उसके स्खलन की साक्षी
उसे समेटे हुए अपनी बाँहों में
धीरे धीरे चूमती है,
उसके बालों पर उँगलियाँ फैलाती
हौले से मुस्कराती है।
एक लंबी मृत्यु जी आने के बाद
बस इन कुछ पलों में ही एक युग जी आई है।
अलस्सवेरे ही फिर स्त्री हो आएगी
अपने प्रश्नों में घिरी,
देह की परिधि में बंद
वह सदियों के लिए फिर से
मृत हो जाएगी।