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स्त्री, पुरुष और प्रकृति

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          सोनी कुमारी 

स्त्री और पुरुष की शारीरिक संरचना में बदलाव है, मानसिकता में भी बदलाव है, और आत्मिक स्तर पर भी यह बदलाव दृष्टिगोचर होता है।

स्त्री :
अर्थात्, स् + त्र् + ई ।

पुरुष :
अर्थात्, पुर् + उष्।

प्रकृति :
कर्म किए बिना कोई भी मनुष्य नहीं रह सकता तथा कर्म प्रकृति ही करती है, अहंकार तत्त्व से। मूढ़ जन अहंकार के वशीभूत होकर यह मान लेते हैं कि वह स्वयं कर्त्ता हैं।
“प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकार विमूढा़त्मा कर्त्ता अहं इति मन्यते ॥”
~श्रीमद्भगवद्गीता ( 3.27 )

हां, पुरुष कामदेव को भस्म कर, निष्काम होकर, बिना किसी विशेष धारणा या संकल्प के, ध्यान-योग में, अथवा कर्मफल में निर्लिप्त, अनासक्त, अनाश्रित रह कर, स्व-प्रकृति का स्वामित्व प्राप्त कर सकता है।
ध्यान-योग, योगासन तथा प्राणायाम, अत्युत्तम विधा है जिससे, निष्काम तप और निष्काम कर्म, दोनों का संयोजन संभव है। आत्मबोध इसी विधा का सृष्टि में परिपक्व ‌श्रेष्ठतम फल है।

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