अग्नि आलोक

मध्यप्रदेश में कई किसान सोयाबीन छोड़ने तक की बात करने लगे हैं

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 आदित्य सिंह

 

रोजमर्रा के भोजन में आमतौर पर कम हैसियत रखने वाली बाजार-हितैषी सोयाबीन के किसानों पर आजकल भारी संकट तारी है। लागत, मेहनत और परिवहन-भंडारण की उन्हें इतनी कम कीमत मिल रही है कि वे दूसरी कतिपय फसलों की तरह सोयाबीन को भी खेत में ही नष्ट करने लगे हैं। सोयाबीन के लिए 8000 रुपए क्विंटल ‘एमएसपी’ की किसानों की मांग इन दिनों जोर पर है।

उन्नीसवीं सदी में चीन से जब सोयाबीन के बीज भारत आए तो उन्हें सबसे पहले मध्यप्रदेश की जमीन पर लगाया गया और देखते-ही-देखते यहां के किसानों ने सोयाबीन को अपना लिया। सबसे ज्यादा पैदावार के कारण राज्य को ‘सोया-प्रदेश’ पुकारा जाने लगा, लेकिन आज इसी मध्यप्रदेश में कई किसान इसे छोड़ने तक की बात करने लगे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सोयाबीन के भाव आज भी दस साल पुराने हैं। कई इलाकों में किसान सोयाबीन की अपनी फसल को उखाड़ रहे हैं। वे अब सोयाबीन के अगले सीजन का इंतजार भी नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें पिछले साल की फसल के दाम भी ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) से करीब डेढ़ हजार रुपए कम मिल रहे हैं।

दलहन की इस अहम फसल को लेकर किसान कई तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं। सबसे पहली परेशानी है कि सोयाबीन की लागत और मंडी में मिल रहे भाव में लगातार बढ़ रहा अंतर और दूसरी परेशानी है, सोयाबीन की उपज में लग रहे कीट जो उत्पादन को लगातार प्रभावित कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में सोयाबीन का उत्पादन गिरा है। इसकी वजह मौसमी बदलाव, कम जागरुकता और घटिया बीज-खाद-दवाएं भी हैं।

इंदौर जिले के गवलीपलासिया गांव के किसान रुपनारायण पाटीदार ने अपनी 13 बीघा जमीन पर लगी सोयाबीन की फसल पिछले दिनों उखाडकर फेंक दी। वे कहते हैं कि बीते साल भी सोयाबीन का अच्छा भाव नहीं मिला था और उन्हें इस बार अपनी फसल से बहुत उम्मीद थी, लेकिन इस बार कमजोर बीज और खराब मौसम ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सोयाबीन के पौधे काफी बढ़े, लेकिन इनमें फल्लियां नहीं आईं।

इसी तरह मंदसौर जिले के गरोठ तहसील में रहने वाले किसान कमलेश पाटीदार ने भी अपनी दस बीघा जमीन में लगी सोयाबीन पर ट्रैक्टर चला दिया। उन्होंने अपनी डेढ़ क्विंटल सोयाबीन पिछले दिनों मंडी में बेची तो दाम केवल 3800 रुपए प्रति क्विंटल ही मिले। वे दाम बढ़ने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में फसल को तैयार करके मंडी तक ले जाने में काफी खर्च आता और यह खर्च उनकी लागत को नहीं पाट सकता था।

मध्यप्रदेश में सोयाबीन की खेती पचास लाख हैक्टेयर से अधिक जमीन पर की जाती है, लेकिन ज्यादातर इलाकों से किसानों की परेशानी की खबरें आ रही हैं। प्रदेश के तकरीबन सभी हिस्सों में ‘पीला मोज़ेक’ रोग सोयाबीन के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। इसके अलावा पिछले दिनों हुई अनियमित बारिश भी फसल के लिए प्रतिकूल साबित हुई है। इसके चलते फसल में कीट लगे हैं जो फूल को काफी पहले गिरा देते हैं। किसानों के मुताबिक खेतों में फसल तो खड़ी नजर आ रही है, लेकिन यह बांझ फसल है जो किसी तरह से उनके काम की नहीं है।

सोयाबीन के कम दाम को लेकर किसानों की नाराजगी को गलत नहीं कहा जा सकता। साल 2014 में मंडियों में सोयाबीन अधिकतम 4400 रुपए प्रति क्विंटल के दाम पर बिक रहा था और आज की स्थिति में मध्यप्रदेश की ज्यादातर मंडियों में सोयाबीन के भाव 3400 से 4400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच झूल रहे हैं। ऐसे में यह तथ्य भी दिलचस्प है कि केंद्र सरकार ने ‘खरीफ विपणन सत्र 2024-25’ के लिए सोयाबीन का ‘एमएसपी’ 4,892 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है, यानी राज्य के किसान ‘एमएसपी’ से काफी कम दाम पर सोयाबीन बेचने को मजबूर हैं।

किसान रतनलाल यादव के अनुसार, पिछले दो सालों से उन्होंने अपनी सोयाबीन की फसल को इसलिए रखा हुआ है कि भाव अच्छा मिलेगा, मगर अब तक उचित मूल्य नहीं मिल पाया है। बीज, जमीन की तैयारी, बोवनी, रासायनिक दवाईयाँ, मजदूरी, कटाई, मंडी और परिवहन के खर्चों को मिलाकर, एक बीघा की लागत लगभग 10,450 रुपये तक पहुँच जाती है। रतनलाल कहते हैं कि इसमें उनकी और परिवार की मजदूरी नहीं जोड़ी जाती। अगर सरकार की नजर से देखें तो ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ (सीएसीपी) की रिपोर्ट में सोयाबीन की उत्पादन लागत 3,261 रुपए प्रति क्विंटल बताई गई है।

एक बीघा में तीन से चार क्विंटल उत्पादन ही होता है। ऐसे में एक क्विंटल सोयाबीन के लिए फिलहाल मिल रहे दाम (3500 रुपए प्रति क्विंटल) अधिकतम 14,000 रुपए ही बनते हैं। ऐसे में चार महीने की इस फसल में किसान अपनी लागत ही बड़ी मुश्किल से निकाल पाता है। वहीं अगर फसल पर मौसम या रोग की मार पड़ जाए तो लागत भी मारी जाती है, जैसा कि इस साल किसानों के साथ हो रहा है।

विशेषज्ञ इस बात से इंकार नहीं करते कि सोयाबीन के दाम कम हैं, लेकिन वे उम्मीद जता रहे हैं कि आने वाले महीनों में इसके दाम बढ़ने वाले हैं। इनके मुताबिक सोयाबीन के दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से तय होते हैं। ‘मध्यप्रदेश ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन’ के सदस्य लाल साहब जाट कहते हैं कि सोयाबीन के भाव अंतरराष्ट्रीय बाजार और ‘खली’ (पशु खाद्य) की मांग के आधार पर तय होते हैं। अगर किसान सोयाबीन की बुवाई के बाद उसे उखाड़ रहे हैं, तो यह गलत है। नवंबर और दिसंबर में सोयाबीन के रेट फिर से बढ़ सकते हैं।

बाजार की समझ रखने वाले इन विशेषज्ञों की राय से उलट, किसान की स्थिति तय करती है कि वे सोयाबीन को अच्छे दाम के इंतजार में संजोकर रख सकते हैं या नहीं। इस बारे में धार जिले के ही एक किसान गोपाल यादव बताते हैं कि सोयाबीन को लंबे समय तक स्टोर करना अब घाटे का सौदा हो गया है। पिछले दो सालों से सोयाबीन को संभालकर रखने के बावजूद, इसके भाव में कोई वृद्धि नहीं हुई है।

मौसम की मार, कम दाम के अलावा सोयाबीन के किसान और भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। इनमें एक समस्या सोयाबीन के उत्पादन में आ रही कमी है। कांग्रेस के किसान प्रकोष्ठ के अध्यक्ष केदार सिरोही कहते हैं कि मध्यप्रदेश में कम गुणवत्ता वाले बीज और खाद, फसलों में होने वाले घाटे का प्रमुख कारण हैं। प्रदेश में हर साल केवल इस समस्या की वजह से कृषि अर्थव्यवस्था को करीब 15 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान होता है।

धार जिले के किसान राहुल भाकर के अनुसार सरकारी नीतियों के चलते विदेशों से तेल का आयात किसानों को नुकसान पहुंचा रहा है। भारत सरकार ने पाम ऑयल के आयात पर शुल्क हटा दिया है, जिसका असर सोयाबीन खाद्य तेल उद्योग पर नकारात्मक रूप से पड़ा है। पाम ऑयल की अधिक उपलब्धता और सोयाबीन जैसे खाद्य तेलों में इसके मिश्रण का बढ़ता उपयोग भारत में सोयाबीन की खपत को प्रभावित कर रहा है।

कृषि-नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने कहा कि सोयाबीन के दाम मलेशिया की राजधानी क्वालालंपुर के ‘कॅमोडिटी एक्सचेंज’ पर निर्भर करते हैं। वहां अगर दाम गिरते हैं तो भारत में भी गिरावट होती है। यह उतार-चढ़ाव किसानों के लिए संकट पैदा कर रहा है, खासकर जब सोयाबीन का दाम बारह साल पहले के स्तर पर वापस आ गया है। किसानों को सही दाम न मिलने की समस्या केवल भारतीय नहीं, बल्कि वैश्विक है।

शर्मा ने कहा कि किसानों को अपनी उपज का दस प्रतिशत कम करना चाहिए, ताकि मांग बढ़ सके। सरकारें अतिरिक्त उत्पादन की होड़ में हैं, जिससे इंडस्ट्री को फायदा होता है, लेकिन किसानों को नहीं। खाद्य-तेल के आयात पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक समय भारत इसमें आत्मनिर्भर था, लेकिन अब वह दूसरे सबसे बड़े आयातक के रूप में उभरा है।

सोयाबीन किसानों की समस्याओं को लेकर मध्यप्रदेश के कृषिमंत्री एंदल सिंह कंसाना कहते हैं कि यह जानकारी गलत है कि किसान सोयाबीन को उखाड़कर फेंक रहे हैं। मैं अधिकारियों के पूरे संपर्क में हूं और इसकी एक भी खबर मेरे पास नहीं आई है। दूसरी तरफ, ‘भाजपा’ के ही ‘किसान मोर्चा’ के प्रदेश अध्यक्ष और नर्मदापुरम के सांसद दर्शन सिंह चौधरी कहते हैं कि किसानों की समस्याओं के बारे में उन्हें जानकारी है और वे इसे हल करने के हर संभव प्रयास करेंगे।

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