~ नीलम ज्योति
कबीर कहते है :
हरि मेरो पीव मैं तो राम की बहुरिया. जीव और ईश्वर अर्थात् भक्त और भगवान् में पत्नी और पति का सम्बन्ध है। जैसे वो अपने पति/पुरुष से मिलने के लिये व्याकुल रहती है, वैसे ही यह जीव अपने स्वामी ईश्वर से मिलने के लिये आतुर रहता है।
भक्त के प्रेम को देख कर परमात्मा भी उस (जीव) से मिलने के लिये उसके सम्मुख हृदय में प्रकट होता है। जीव और ईश्वर का मिथुन सप्तम भाव है। जीव द्वारा ईश्वर के किसी भी स्वरूप का ध्यान मनन, कोर्तन करना जीव और ईश्वर का मिलन वा विवाह है। इस ध्यान चिन्तन का सुख है, दशम भाव में।
स्त्री और पुरुष के मिलन संगम सहवास संश्लेष संयोग का सुख है।
जीव और ब्रह्म के मिलन एकीकरण सायुज्य सामीप्य सान्निध्य का सुख है।
अतः दाम्पत्य सुख एवं योग साधना के सुख का विचार करना चाहिये।
योग का अर्थ है-दो तत्वों का जुड़ना, संयुक्त होना दो तत्व है – स्त्री-पुरुष अथवा जीव ब्रह्म वा आत्मा-परमात्मा स्त्री और पुरुष की संयुक्ति दो स्तरों पर होती है- शारीरिक एवं मानसिक। जबकि जीव और ईश की संयुक्ति मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर होती है।
जीव और ईश्वर दो भिन्न तत्व हैं जीव शरीरी है, ईश्वर अशरीरी है। जीव सीमित है, ईश्वर असीमित है। जीव नैक है, ईश्वर एक है। जीव बन्धन में है, ईश्वर मुक्त है। जीव जन्मता है, ईश्वर अजन्मा है। जीव अपूर्ण है, ईश्वर पूर्ण है। इन दो विजातीय तत्वों का मिलन ही उपासना है। उपासना का सुख समाधि है।
मैथुन सुख एवं समाधि सुख के लिये जीव को अपने भीतर दो गुण लाना चाहिये :
१.अपेक्षा।
२. उपासना।
अपेक्षा = अप + ईक्षा।( अप = अपनी, निकट। ईक्षा = देखना। ईश्वर/संसार/ प्रकृति को निकट से देखना।
उपासना= उप + आसना (उप= निकट। आसन =बैठना।
ईश्वर/संसार/ प्रकृति के निकट गोद में बैठना।
सर्वप्रथम पुरुष अपेक्षा करता है, स्त्री की वह स्त्री को निकट से देखता है, समझता है, उसके बारे में सब कुछ जानता है। इसके बाद वह उस स्त्री की उपासना करता है, उसके निकट बैठता बैठाता है, एक आसन पर बैठता है- विवाह करता है, अपने अंक में रखता बैठाता है।
अन्य दृष्टि से जीव सर्वप्रथम प्रकृति/ शिव को निकट से देखता है, सम्यक जानकारी प्राप्त करता है। इसके सौन्दर्य से अभिभूत होकर वह उस प्रकृति/ विश्वात्मा की उपासना करता, उसके निकट बैठता, उसको अपना सर्वस्व समर्पित करता, शरणागत होता है।
स्त्री (जीव) में पुरुष (ईश्वर) के प्रति समर्पण का भाव होना चाहिये। इससे जीव अभय हो जाता है। अभयता हो सुख है। यह दशम भाव से जाना जाता है।
पुरुष का स्त्री के प्रति सहज आकर्षण होता है। किन्तु पुरुष किसी विशेष स्त्री को सर्वाधिक पसन्द करता है और वह उसे अपने से अभिन्न मानता है। इसी प्रकार हर प्राणी पर ईश्वर का अहेतुक प्रेम होता है। किन्तु वह किसी किसी को बहुत अधिक चाहता है और वह उसे अपना स्वरूप प्रदान करता है। एक कहावत है-‘दूल्हन वही जो पिया मन भाये।’ जीव वहीं धन्य है, जिसे ईश्वर अपना बना ले, जिसका ईश्वर से विवाह हो जाय, जिसे ईश्वर अपनी पत्नी बना ले, जिसे ईश्वर अपने से अभिन्न कर ले।
पुरुष (ईश्वर) किस जीव (स्त्री) को अपनाता, विवाह करता, अपनी शय्या स्वरूप देता है ? जो उसे पसन्द आ जाय। उसे पसन्द कौन आता है ? यही महत्वपूर्ण है। स्त्री (जीव) का रूप रंग सौन्दर्य, जाति, कुल, गुण, बड़प्पन, बुद्धिमत्ता, विद्या, शील, धर्म, धन, बल आदि पुरुष (ईश्वर) के लिये व्यर्थ है। पुरुष (परमात्मा) तो स्त्री (जीव)) से अनन्यता/ एकनिष्ठा, श्रद्धा मात्र चाहता है।
इसी के कारण वह उसे पसन्द करता है। अनन्यता / अनन्ययोग होने पर कुरूप, निर्धन, निर्बल, कुजाति जीव (स्त्री) उसे मान्य है।
*दाम्पत्य सुख के चार बिन्दु :*
१. धन।
२. आवास।
३ सन्तान।
४. स्त्री-पुरुष का एक साथ रहना (सहयोग).
धन से समर्थ स्त्री पुरुष को नचा रही है। दबंग पुरुष स्त्री को नचा रहा है. दम्पत्ति नाच रहे हैं। इन सबको नाचने वाला एक परमेश्वर है।
नट मरकट इव सबहि नचावत।
रामु खगेस वेद अस गावत।।
नचा वही सकता है जो स्वयं नाचता हो।त्रेता में राम जी नाचे। सीता ने उन्हें दण्डकारण्य से लकर लंका तक नचाया। द्वापर में कृष्ण जी नाचे। गोपियों ने उन्हें गोकुल में नचाया। यह नृत्य बन्द नहीं हुआ है। आज भी हर स्त्री, पुरुष को नचा रही है। व्यासक्त पुरुष नाच रहा है। नाचना उसकी नियति है। इस नियति को बदलना आसान नहीं है।
नृत्य करते-करते जीव जब थक जाय तो उसे क्या करना चाहिये ? स्व में स्थिति हो जाना चाहिए : स्वस्थ.
अर्थात स्थिर हो जाना चाहिए.