अग्नि आलोक

अधर्म का नाश हो (खंड-1) – (अध्याय-16)

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संजय कनौजिया की कलम

       (दिनांक-16/7/22) वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के अनुसार, राजनीतिक रूप से दोनों को बेहद सीमित सफलताएं मिली..डॉ० लोहिया सिर्फ एक बार लोकसभा का चुनाव जीत पाए..बाबा साहब ने कभी लोकसभा चुनाव नहीं जीता..दोनों जिन राजनीतिक पार्टियों से जुड़े रहे या जो पार्टी बनाई, कभी सत्ता में ना आ पाई..लोहिया और अंबेडकर दोनों अपनी राजनीतिक ताक़त की तुलना में ज्यादा वैचारिक असर, उनके मरने के बाद लगातार गाढ़ा हो रहा है..दोनों ने खूब लिखा और खूब बोला..दोनों के रचना संग्रह हज़ारों पन्नों में है और ये उनका पूरा काम नहीं है..जहाँ अंबेडकर धर्म और शाश्त्र को जाति का आधार मानते हैं, वहीँ लोहिया जाति को धर्म की बुराई मानते हैं..इस बिंदु पर लोहिया अपने गुरु गांधी के साथ खड़े हैं..लोहिया निज़ी जीवन में नास्तिक जरूर रहे लेकिन राजनीतिक और सामाजिक तौर पर वे धर्म सुधारक थे..बाबा साहब नहीं मानते कि हिन्दू कभी सुधर सकते हैं और जाति से मुक्ति पा सकते हैं, इसलिए वे 1936 में ही हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा करते हैं और 1956 में हिन्दू धर्म त्यागकर विधिवत बौद्ध बन जाते हैं..धर्म और जाति का अंतर्संबंध वह एक मात्र बिंदु है जहाँ लोहिया और अंबेडकर बिल्कुल अलग-अलग खड़े नज़र आते हैं..लेकिन दोनों के बीच समानताएं इतनी अधिक हैं कि दोनों को अलग-अलग नहीं देखा जाना चाहिए..ऐसा करने वाले अम्बेडकरवादियों और लोहियावादियों ने अपनी एकांगी सोच का ही परिचय दिया है..और इसका नुक्सान दोनों को हुआ है..!            वर्तमान परिस्थितयों को समझते हुए, में कहना चाहूंगा कि धर्म और अधर्म की परिभाषा केवल वेद-पुराण-शास्त्रों या पूजा-पद्दति के धार्मिक कर्म-काण्डों तक ही सीमित नहीं है..धर्म और अधर्म हमें और भी कई परिभाषाओं की तरफ इंगित करवाते हैं, जैसे नारी शोषण और बलात्कार, क्या ये अधर्म नहीं ?..किसी भी तरह का अपराध या झूठ बोलना हमें अधर्म की संज्ञा का बोध नहीं कराते हैं ? क्या जाति का उत्पीड़न अधर्म नहीं है ? किसी का अधिकार को छीनना या अधिकारों को छीन लेने वाले नियम तय करना अधर्म नहीं है ? राष्ट्र की सबसे बड़ी पंचायत, संसद में बैठकर सत्ता के मद में चूर सत्तासीन, राष्ट्र की सरकारी-गैर सरकारी सम्पतियों को ओने-पौने दामों में निजी हांथों के सुपुर्द कर देश की कुल आबादी का 70 फीसदी, दलित और पिछड़ी जातियों को आरक्षण से वंचित करना क्या अधर्म नहीं ? जिस देश का नौजवान पढ़-लिखकर भी बेरोजगार रहे और नौजवान सहित देश का भविष्य ही दाव पर लग जाए क्या यह अधर्म नहीं ?..देश की आर्थिक स्थिति को बिगाड़कर, आम जन-मानस के सम्मुख महंगाई का सुरसा की तरह मुँहू फड़वाना क्या यह किसी अधर्म की श्रेणी में नहीं आता..? किसान-मजदूर और संविधान विरोधी कार्य क्या अधर्म नहीं..? सौहार्द  व भाईचारे का नाश करना क्या अधर्म नहीं..? जबकि पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपई जी ने भी किसी को कभी, “राज-धर्म” के पालन करने की शिक्षा का पाठ पढ़ाया था, कहीं कुछ तो अधर्म हुआ था, इसीलिए राजधर्म पर संकट दिखाई दिया होगा..दूसरी ओर जय भीम और जय समाजवाद का उद्धघोष करके हम अपने “आदर्श पुरुषों” की दिखाई दशा और दिशा के विपरीत बहकर उनके अनुयायी होने का दावा करें और बिना उन्हें पढ़े और ठीक से समझे-जाने, बगैर उनके अनुयायी कहलाएं क्या यह अधर्म नहीं..?             अनुयायी होना तो बाद की बात है, किसी को भी समझना-जानना किसी व्यक्तित्व को जानना-समझना ही नहीं होता, बल्कि उस दौर को समझना-जानना भी जरुरी होता है..डॉ० अंबेडकर जिन्हे हम बड़े प्यार से बाबा साहब कहते हैं..उनके अनेक रूप हैं..एक रूप है ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व का जो अपने जीवन में सदैव शोषित-उपेक्षित-वंचित वर्गों के हक़-अधिकारों के लिए लड़ते रहे..एक दूसरा रूप है कानून और संविधान विशेषज्ञ का, हमारी संविधान सभा में, संविधान लिखने के लिए जो ड्राफ्टिंग कमेठी बनी थी उनके चेयरमैन के रूप में संविधान के लेखन में उन्होंने बेहद महत्वूर्ण भूमिका निभाई थी..वे एक सफल वकील तो थे ही, इसके साथ-साथ भारतीय तथा दुनियांभर के वैश्विक लीगल व्यवस्था जो है, उसके अध्भुत जानकार थे..तीसरा रूप हम उन्हें इतिहास के विद्वान के रूप में देख सकते हैं, और चौथा रूप अत्यंत महत्वपूर्ण रूप था वो था अर्थशास्त्र के विद्वान के रूप में..जिस तरह का जीवन और संघर्ष उनके रहे उसमे अर्थशास्त्र पर उनको ज्यादा शोध करने का अवकाश नहीं मिला..लेकिन उनके लेख जब देखें जाएँ तो समझ में आएगा कि अर्थशास्त्र की उनको कितनी गहरी समझ थी..में अपने अंबेडकरवादी व लोहियावादी साथियों को, दो बहुत ही महत्वपूर्ण किताबों का अध्ययन करने का सुझाब दूंगा..ये दोनों किताब डॉ० अंबेडकर को ना केवल समझने के लिए बल्कि अंबेडकर की सारी विचाधाराओं की एक समझ पैदा करेगी..हिंदी-अंग्रेजी की एक बेहतरीन किताब जिसे हिंदी में डॉ० योगेंद्र दत्त ने अनुवाद किया है जिसका नाम है, “बाबा भीमराव अंबेडकर एक जीवनी-जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण”..दूसरी अति महत्वपूर्ण किताब जो, वरिष्ठ समाजवादी नेता व पूर्व सांसद, चिंतक लेखक, मधु लिमय जी द्वारा लिखित है, “बाबा साहब अंबेडकर एक चिंतन”..लेकिन में यह भी बता देना चाहूंगा की जब तक वास्तविक अंबेडकर को हम नहीं पढ़ेंगे..तब तक आप अन्य लेखकों को तय नहीं कर पाएंगे कि कौन सही बोल रहा है या गलत लिख रहा है..दरअसल किसी को भी चाहे वह अंबेडकर हों या गांधी-लोहिया, इनको समझने के लिए दो तरीके होते है..एक तो उनका लिखा हुआ, दूसरा उनपर लिखीं किताबें..कोई अंबेडकर और लोहिया को पसंद करे या ना करे..लेकिन उनके बारे में जानें जरूर..!              वर्तमान में अम्बेडकरवादियों को यदि अधर्म से बचना है तो, अब अपने चिंतन-लेखन आदि क्रियायों में डॉ० अंबेडकर के समकालीन डॉ० लोहिया पर भी अध्ययन शुरू कर देना चाहिए..वर्ना अधर्मी आसानी से देश के 70 फीसदी लोगो के सभी अधिकार छीन लेंगे और वे सब अपने मान-सम्मान और आजादी से शून्य हो जाएंगे..डॉ० लोहिया के जीवन के संक्षिप्त बिंदु प्रेषित हैं..स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा, समाजवादी आंदोलन के प्रेणता, मौलिक चिंतक, दार्शनिक… *धारावाहिक लेख जारी है* (लेखक-राजनीतिक एवं सामाजिक चिंतक है)

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