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ज्योतिष की अर्थवत्ता और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

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      ~> पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

वेद में ३ विश्वों का सम्बन्ध है-आकाश की सृष्टि (आधिदैविक), पार्थिव सृष्टि (आधिभौतिक), इनकी प्रतिमा मनुष्य शरीर (आध्यात्मिक)। अतः वेद के ३ अर्थ होते हैं। ७ लोक भी मूलतः आकाश में हैं। इनकी प्रतिमा स्वरूप पृथ्वी के उत्तर गोल के १/४ भाग भारत दल में भी विषुव से ध्रुव तक ७ लोक हैं। उत्तर गोल के अन्य ३ दल (भूपद्म का दल कहा गया है) भद्राश्व (पूर्व में), केतुमाल (पश्चिम में), कुरु वर्ष (विपरीत दिशा में) तथा दक्षिण गोल के ४ दल मिला कर ७ तल कहे गये हैं।

     भारत के पश्चिम अतल (केतुमाल दल-इटली, उसके बाद अतलान्तक सागर), उसके पश्चिम पाताल (कुरु दल), भारत के पूर्व सुतल (भद्राश्व) हैं। भारत दल के दक्षिण तल या महातल, अतल के दक्षिण तलातल, पाताल के दक्षिण रसातल, सुतल के दक्षिण वितल हैं। ये ८ खण्ड में पृथ्वी का नक्शा बनाने के विभाग हैं। वास्तविक महाद्वीप अनियमित आकार के हैं- जम्बू द्वीप (एशिया), प्लक्ष द्वीप (यूरोप), कुश द्वीप (विषुव के उत्तर का अफ्रीका), शाल्मलि द्वीप (विषुव के दक्षिण का अफ्रीका), शक या अग्नि द्वीप (आस्ट्रेलिया-भारत से अग्नि कोण में), क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका, यह द्वीप तथा मुख्य राकी पर्वत उड़ते पक्षी या क्रौञ्च आकार के हैं), पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका)। समतल नक्शा बनाने में ध्रुव के पास माप दण्ड अनन्त हो जाता है। उत्तर ध्रुव जल भाग में है (आर्यभट) अतः वहां कोई समस्या नहीं होती। पर दक्षिण ध्रुव प्रदेश स्थल पर है और अनन्त आकार का नक्शे पर हो जायेगा। 

      अतः इसे अनन्त द्वीप (८वां) कहते हैं और अलग से नक्शा बनता है। पुराणों में पृथ्वी के चारों तरफ ग्रह गति से वृत्त और वलय आकार के जो क्षेत्र बनते हैं (यूरेनस तक) उनके नाम भी पृथ्वी के ७ महाद्वीपों के नाम पर हैं। आधुनिक युग में भी वैसे ही नाम रखे जाते हैं। इनके बीच का क्षेत्र भी पृथ्वी के समुद्रों के नाम पर हैं। इनके कारण महाभारत के बाद के संकलन कर्त्ताओं ने दोनों के एक मान कर वर्णन कर दिया क्योंकि उन्होंने पृथ्वी के सभी द्वीप नहीं देखे थे, न सौर मण्डल की ग्रह कक्षाओं की माप की थी।

      नेपचून तक की ग्रह कक्षा १०० कोटि योजन व्यास की चक्राकार पृथ्वी है। इसका भीतरी आधा भाग ५० कोटि योजन व्यास का लोक (प्रकाशित) भाग है। बाहरी भाग अलोक )अन्धकार) है। आकाश में पृथ्वी सहस्र दल कमल है। अतः यहां योजन का अर्थ है पृथ्वी के विषुव व्यास का १००० भाग = १२.८ किलोमीटर।

मनुष्य शरीर के ७ कोष ७ लोकों की प्रतिमा हैं तथा इनके केन्द्र ७ चक्र हैं। अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, ज्ञानमय कोष, विज्ञानमय कोष, चित्तमय कोष, आत्मामय कोष। ७ चक्र हैं-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा, सहस्रार।

आकाश के लोकों को जानने के लिए ज्योतिष का सृष्टि विज्ञान है। सूर्य सिद्धान्त का सृष्टि विज्ञान पुरुष सूक्त, पाञ्चरात्र दर्शन तथा सांख्य दर्शन का समन्वय है।

       तीनों एक ही तत्त्व को अलग शब्दों से पारिभाषित करते हैं। 

√•पृथ्वी के लोकों की माप ज्योतिष के त्रिप्रश्नाधिकार से होती है जिसमें दिक्-देश-काल की माप होती है। दिक् का अर्थ है उत्तर दिशा का निर्धारण। 

     चुम्बक की सूई चुम्बकीय उत्तर ध्रुव दिखाती है। इसमें स्थानीय चुम्बकीय प्रभाव के कारण भूल भी होती है। भौगोलिक उत्तर दिशा जानने का एकमात्र उपाय है नक्षत्र वा सूर्य की गति से निर्धारण करना। प्रचलित विधि है कि एक स्तम्भ (१२ माप का शंकु) की छाया स्थानीय मध्याह्न से समान समय पूर्व तथा बाद में देखी जाय। दोनों छाया दिशा की मध्य रेखा उत्तर-दक्षिण (याम्योत्तर) रेखा होगी। वटेश्वर सिद्धान्त में इस २-३ घण्टे की अवधि में सूर्य की उत्तर दक्षिण दिशा (क्रान्ति) में अन्तर का भी संशोधन किया गया है, जो आधुनिक ज्योतिष में नहीं है। 

      देश या स्थान की माप अक्षांश-देशान्तर द्वारा होती है। अक्षांश की गणना भी शंकु की छाया से है। सूर्य की क्रान्ति के अनुसार मध्याह्न छाया के अनुसार उत्तर दक्षिण दिशा में संशोधन होता है। देशान्तर गणना कठिन है। इसके लिए काल की सूक्ष्म माप करनी पड़ती है। दो स्थानों के बीच सूर्योदय या मध्याह्न काल का अन्तर ही देशान्तर है। 

२४ घण्टे का अन्तर ३६० अंश में है, अतः १ अंश का अन्तर ४ मिनट या १० पल में होगा। देशान्तर विधि भारत के बाहर पता नहीं थी। फाहियान पश्चिम हिमालय मार्ग से ३०० ई. में भारत आया था। उस मार्ग से पुनः लौतने का साहस नहीं हुआ तो लोगों की सलाह पर वह ताम्रलिप्ति से जहाज द्वारा चीन के कैण्टन गया। उसे २ आश्चर्य हुए। 

     जहाज इतना बड़ा था कि उसमें १५०० व्यक्ति थे तथा उनके १ मास के भोजन पानी की व्यवस्था थी। वर्त्तमान भारत में अण्डमान जाने वाले सबसे बड़े जहाज में ६०० व्यक्ति बैठते हैं। दूसरा आश्चर्य था कि जहाजी लोगों को समुस्र का सटीक नक्शा मालूम था तथा वे तट से नहीं, सीधा समुद्र में जा रहे थे। समुद्र में अपनी स्थिति ठीक तरह निकाल रहे थे। 

      तुर्की के माध्यम से देशान्तर विधि का ज्ञान१४८० में स्पेन पहुंचा जिसके १२ वर्ष ब्द कोलम्बस की यात्रा सम्भव हुई। पृथ्वी की कागज पर परिलेख द्वारा माप होती है अतः उसे माप (Map) कहते हैं। इसके लिए नक्षत्र देकना पड़ता है, अतः इसका नाम नक्शा हुआ।

      वेद के ३ विश्वों के सम्बन्ध को समझने के लिए ज्योतिष के ३ खण्ड या स्कन्ध हैं। इसका ज्ञान होने के बाद ही मन्त्रों का अर्थ सम्भव है। अतः प्रथम व्यास स्वायम्भुव मनु के पूर्व ज्योतिष ज्ञान हो चुका था। तभी वेद का प्रथ्म संकलन या संहिता हुयी।

गणित ज्योतिष में सृष्टि विज्ञान, आकाश के लोकों की माप, ग्रह गति, पृथ्वी की माप (नक्शा, देश-काल-दिक्), काल गणना और पञ्चाङ्ग, पृथ्वी पर आकाशीय दृश्य (सूर्य का उदय-अस्त, ग्रहण, ग्रह-नक्षत्र युति, पात), यन्त्र द्वारा वेध तथा गणितीय पद्धति हैं।

गणित ज्योतिष के ३ खण्ड हैं। 

       इसके सभी तत्त्व सिद्धान्त ज्योतिष में हैं। इसमें सृष्टि आरम्भ से ग्रह गति कि गणना होती है। यहां सृष्टि क अर्थ है कि उस समय से आज जैसी सौर मण्डल के ग्रहों की गति थी। पृथ्वी का निर्माण उससे बहुत पहले हो चुका था।

       तन्त्र ज्योतिष में कलि आरम्भ से ग्रह गणना होती है। इसके लिए आवश्यक गणित तथा वेध का वर्णन रहता है।

√•करण ग्रन्थ में निकट पूर्व के किसी शक से गणना होती है। शक का अर्थ है दिनों का समुच्चय (अहर्गण, Day-count)। शकेन समवायेन सचन्तः। १ का चिह्न हर भाषा में कुश है। उनको मिला कर गट्ठर बनाने से वह शक्तिशाली होता है। अतः उसे शक कहते हैं। दिन की क्रमागत गणना के लिए सौर मास वर्ष सुविधा जनक है। 

      यह पद्धति शक वर्ष है। चान्द्र तिथि क्रमागत दिन में नहीं है, तिथि अधिक या क्षय हो सकती है। चान्द्र तिथि, मास वर्ष का सौर वर्ष से समन्वय को संवत्सर कहते हैं। सं-वत्-सरति = एक साथ चलता है। सौर वर्ष के साथ चलता है (अधिक मास व्यवस्था से) या समाज भी इसके अनुसार चलता है।

मनुष्य पर ग्रहों का प्रभाव होरा या जातक स्कन्ध है। इसका विस्तृत वर्णन वाजसनेयि यजु (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०), ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०), बृहदारण्यक उपनिषद् (४/४/८,९), छान्दोग्य उपनिषद् (८/६/१,२,५), कूर्म पुराण (भाग १, ४३/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), लिङ्ग पुराण (१/६०/२३), ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२४/६५-७२) में हैं।

     पराशर होरा इसका प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। उसके बाद वराहमिहिर का बृहत् जातक है।

      मनुष्य पर प्रभावों का योग या पृथ्वी पर प्रभाव संहिता ग्रन्थ हैं। वेद मन्त्रों का संकलन भी संहिता है। यह पृथ्वी तथा आकाश का सम्बन्ध है। वराहमिहिर की बृहत् संहिता सबसे पुराना उपलब्ध ग्रन्थ है।

     सर्वप्रथम स्वायम्भुव मनु ने ज्योतिष सिद्धान्त स्थिर किया। वे प्रथम व्यास या मनुष्य ब्रह्मा थे। अतः उनका सिद्धान्त ब्रह्म या पितामह सिद्धान्त कहते हैं। महाभारत के समय २ सिद्धान्त प्रचलित थे-पराशर तथा आर्य सिद्धान्त (आर्यभट का महासिद्धान्त, २/१-२)। इसमें पराशर मत का वर्णन विष्णु पुराण में है (अंश २ में मैत्रेय का उपदेश)। पितामह मत के संशोधन के लिए कलि के कुछ बाद (कलि संवत् ३६० = २७४२ ईपू) में आर्यभट ने आर्यभटीय लिखा। उसके दीर्घकालिक माप उसी काल के हैं।

       उन्होंने कभी ध्रुव प्रदेशों की यात्रा नहीं की थी, न कभी केतुमाल कुरु देश गये या वहां की माप की थी। उनका पूरा ज्ञान स्व्यम्भुव मनु काल से संकलित था। महाभारत काल के बाद गणित के १६ खण्डों में ४ खण्ड बचे हुए थे, जिनके कुछ सूत्रों का आर्यभट ने प्रयोग किया है (भास्कर१ की आर्यभटीय टीका)-मस्करि (algorithm, log = लाठी, मस्करि), पूरन (integral calculus, Algebra), पूतन (Differential calculus, Number system), मुद्गल (Discrete mathematics)।

पितामह सिद्धान्त को आर्य सिद्धान्त कहते थे, अतः आर्य का अर्थ पितामह प्रचलित है (अजा, आजी)। १९०९ में जार्ज थीबो और सुधाकर द्विवेदी ने आर्यभट का काल ३६० कलि में १ शून्य जोड़ कर ३६०० कलि कर दिया। आर्यभटीय की कोई गणना उसकाल की नहीं है, न उस समय मगध में कोई केन्द्रीय सत्ता थी जिसका आश्रय लेने वे कुसुमपुर आते। 

      उस समय पाटलिपुत्र भी नहीं बना था, केवल वहां कुसुमपुर (वर्तमान फुलवारी शरीफ, Kindergarten = बच्चों की फुलवारी) नामक शिक्षा केन्द्र था। इस परम्परा में महासिद्धान्त, लल्ल का शिष्य वृद्धिद तन्त्र, वटेश्वर सिद्धान्त हैं।

     ब्रह्माण्ड, मत्स्य पुराणों के अनुसार स्वायम्भुव मनु का काल २९,१०२ ईपू तथा वैवस्वत मनु का काल १३,९०२ ईपू था। वैवस्वत मनु के पिता विवस्वान् ने सूर्य सिद्धान्त प्रचलित किया। उस नाम के ग्रन्थ के कारण उनका नाम विवस्वान् हो सकता है। वर्तमान युग व्यवस्था तथा कैलेण्डर उसी समय का है।

       अतः इस गणना से स्वायम्भुव मनु आद्य त्रेता में थे (वायु पुराण, ३१/३ आदि)। इनके बाद वैवस्वत यम के काल में जल प्रलय का आरम्भ हुआ। उसके कारण जगन्नाथ की इन्द्रनीलमणि की मूर्ति मिट्टी में दब गयी (ब्रह्म पुराण)। पुराण तथा आधुनिक भूगर्भ शास्त्र दोनों अनुमान से यह जल प्रलय १०,००० ईपू में प्रायः ७०० वर्ष तक था। इसके कारण गनना में अशुद्धि आयी और मेक्सिको के मय असुर ने रोमक पत्तन (उज्जैन से ० अंश पश्चिम) में इसका संशोधन किया। आज की भाषा में यह अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था। अतः पूरे विश्व में राशि व्यवस्था एक ही है।

      सूर्य सिद्धान्त के सन्दर्भ नगर हैं-लंका या उज्जैन (शून्य देशान्तर), ९० अंश पूर्व यमकोटि पत्तन (न्यूजीलैण्ड का दक्षिण पश्चिम तट या पूर्व जीलैण्डिया का कोई स्थान), १८० अंश पूर्व सिद्धपुर (कैलिफोर्निया के निकट) तथा ९० अंश पश्चिम रोमकपत्तन (वहां सूर्य क्षेत्र कोनाक्री है, ओड़िशा के कोणार्क की तरह, सूर्य की सिंह राशि के अनुसार वहा सिंहद्वार = Sierraleon भी है)। महाभारत के बाद इन नगरों से कोई सम्पर्क नहीं था। 

       इससे स्पष्ट है कि ज्योतिष का ज्ञान महाभारत से बहुत पूर्व का है। बाद में केवल उसका संकलन और संक्षेप हुआ है। आर्यभट की गणना कलि आरम्भ से है। उस समय पितामह सिद्धान्त के अनुसार १३वां गुरु वर्ष प्रमाथी चल रहा था। भारत में भगवान् कृष्ण के स्वधाम गमन से कलियुग मानते हैं। 

      पर मेक्सिको (मय) में गुरु वर्ष चक्र आरम्भ (३०१४ ईपू) से कैलेण्डर का आरम्भ मानते हैं। पितामह तथा सूर्य सिद्धान्त-दोनों के चक्र ५१०० वर्ष में मिलते हैं। पितामह सिद्धान्त में सौर वर्ष ही गुरु वर्ष है। सूर्य सिद्धान्त में गुरु की १ राशि में मध्यम गति (३६१ दिन ४ घण्टा प्रायः) को गुरु वर्ष मानते हैं। अतः ८५ सौर वर्ष में ८६ गुरु वर्ष होते हैं। इनका संयुक्त चक्र ८५ x ६० = ५१०० वर्ष का होगा। 

      अतः मय कैलेण्डर ३०१४ ईपू से ५१०० वर्ष का था। पृथ्वी व्यास १००० योजन मानने पर आकाशगंगा व्यास १८ अंक की संख्या होगी। इससे बाहर की गणना नहीं होती। अतः मय ज्योतिष तथा आर्यभट दोनों ने १८ अंक की संख्या का ही प्रयोग किया है। अन्य मुख्य गणना भी प्रायः समान है।

      इसके पूर्व स्वायम्भुव मनु काल के नगर थे-यम की संयमनी पुरी (मृत सागर के निकट, यमन, सना, अम्मान आदि), उसके ९० अंश पूर्व इन्द्र की अमरावती (रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४० के अनुसार इण्डोनेसिया या यवद्वीप सहित सप्तद्वीप के पूर्व भाग में इन्द्र और गरुड़ के नगर थे), अमरावती से ९० अंश पूर्व वरुण की सुखा नगरी (हवाई द्वीप या फ्रेञ्च पोलिनेसिया), १८० अंश पूर्व सोम की विभावरी (न्यूयार्क या सूरीनाम) थी।

महाभारत से कुछ पूर्व विष्णुपुराण अंश २ में मैत्रेय के उपदेश रूप में ज्योतिष वर्णन है। सूर्य सिद्धान्त परम्परामें होने के कारण उनको मैत्रेय कहा गया है।

      विक्रमादित्य के नवरत्न वराहमिहिर ने उस समय के प्रचलित ६१२ ईपू के चाप शक (बृहत् संहिता १३/३) के अनुसार गणना की है। वही आधार ब्रह्मगुप्त तथा कालिदास (ज्योतिर्विदाभरण) ने लिया है। वराहमिहिर के समकालीन जिष्णुगुप्त के पुत्र ने विष्णु पुराण के परिशिष्ट विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ज्योतिष वर्णन की व्याख्या के लिए ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त ५५० शक (६२ ईपू) में लिखा। 

       इसी के अनुसार विक्रम संवत् की गणना हुयी (५७ ईपू में)। वराहमिहिर ने भी पञ्च सिद्धान्तिका में संक्षिप्त सूर्य सिद्धान्त का वर्णन किया है और उसे सर्वश्रेष्ठ माना है। ब्राह्म-स्फुट सिद्धान्त के अनुसार ही ६२२ ई के हिजरी सन् की गणना हुई अतः खलीफा अल मन्सूर के समय इसका अरबी में अनुवाद हुआ-अल जबर उल मुकाबला। इसी से अलजब्रा (Algebra) शब्द हुआ जो इसका गणितीय भाग है। वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि की मृत्यु के बहुत बाद ७८ ई में शालिवाहन शक आरम्भ हुआ। 

      उसके अनुसार गणना कर लोग ६२८ ई. में ब्रह्मगुप्त पुस्तक का काल मानते हैं। पर इस आधार पर इससे ६ वर्ष पूर्व हिजरी सन् नहीं आरम्भ हो सकता था।

       सूर्यसिद्धान्त परम्परा के मुख्य ग्रन्थ हैं-भास्कर १ का महा और लघु भास्करीय, भास्कर-२ का सिद्धान्त शिरोमणि, श्रीपति का सिद्धान्त शेखर, नीलकण्ठ सोमयाजी का सिद्धान्त दर्पण, मुनीश्वर का सिद्धान्त सार्वभौम, कमलाकर भट्ट का सिद्धान्त तत्त्व विवेक, चन्द्रशेखर सामन्त का सिद्धान्त दर्पण (१९०४)।

कुछ मुख्य करण ग्रन्थ हैं, ब्रह्मगुप्त का खण्डखाद्यक (मिठाई), भास्कर-२ का करण कुतूहल, गणेश दैवज्ञ का ग्रहलाघव।

       ओड़िशा में शतानन्द ने १०९९ ई. के आधार पर भास्वती लिखी जो वराहमिहिर के सूर्य सिद्धान्त पर आधारित है। वराहमिहिर की पञ्चसिद्धान्तिका तथा पञ्चाङ्ग पद्धति जानने पर ही इसका अर्थ समझा जा सकता है। उस काल में कौन सा शक आरम्भ हुआ यह पता नहीं है, पर कपिलेन्द्रदेव के शक आरम्भ के समय उसके अनुसार गणना के लिए कपिलेन्द्र भास्वती लिखी गयी।

      अन्तिम ग्रन्थ सिद्धान्त दर्पण में सभी पूर्व ग्रन्थों का संकलन तथा निर्णय है। सूर्य आकर्षण के कारण चन्द्र गति में ४ प्रकार का संशोधन, मंगल, शनि में बृहस्पति आकर्षण के कारण अन्तर, अथर्व संहिता के अनुसार सूर्य व्यास ६५०० से बढ़ा कर ७२,००० योजन करना, सौर मण्डल के क्षेत्रों, सूर्य-पृथ्वी केन्द्रित गतियों की समीक्षा आदि हैं। 

       सरल पञ्चाङ्ग गणना के लिए सारणी, सौर मण्डल के ताप-तेज-प्रकाश क्षेत्रों की माप (अग्नि-वायु-रवि, विष्णु के ३ पद) आदि भी हैं।

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