चंद्रप्रकाश झा
अमेरिका के ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट’ यानि विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर के ऑफिस ने भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के समय ‘बाल्कनाइजेशन ऑफ इंडिया’ नाम का गोपनीय प्लान बनाया था। यह प्लान ऐसे समय बना जब अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के साथ हेनरी किसिंजर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की राजकीय यात्रा से अपने देश लौट आए थे। किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति की यह पहली चीन प्लान यात्रा थी। इस प्लान का उद्देश्य अफगानिस्तान की सीमा से लगे पाकिस्तान के पड़ोसी विशाल देश भारत के राजनीतिक रूप से छोटे-छोटे कई टुकड़े कर देना था।
उस युद्ध में पाकिस्तान की मदद के लिए अमेरिका ने युद्धक विमानों से युक्त अपना विशाल 7वां जंगी बेड़ा अरब सागर में मुंबई के पास तक भेज दिया। प्लान भारत की वाणिज्यिक और वित्तीय राजधानी मुंबई को तहस-नहस कर देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देना था। लेकिन फिर यूं हुआ कि एक कश्मीरी लड़की सहमत ने पाकिस्तानी आर्मी के एक जनरल के बेटे से इश्क का स्वांग रच उनके घर से उस प्लान के बारे में अत्यंत गोपनीय दस्तावेजों को पढ़ कर उनका ब्योरा उसी घर के कमरे के बाथरूम में चुपचाप एक कामचलाऊ ट्रांसमीटर के जरिए वाकी-टाकी फिट कर अपने संपर्कों के माध्यम से भारत की नौसेना को भेज दिया।
दिल्ली के खालसा कॉलेज में पढ़े हरिन्दर एस. सिक्का ने अंग्रेजी में ‘कालिंग सहमत’ शीर्षक से किताब लिखी है जिसका लोकार्पण मुंबई समुद्र तट से कुछ दूर लंगर डाले विशाल आईएनएस विक्रांत युद्धपोत पर किया गया था। उस समारोह में मैं यूएनआई न्यूज एजेंसी के मुंबई ब्यूरो के आमंत्रित पत्रकार के रूप में मौजूद था। इसी किताब के आधार पर प्रसिद्ध गीतकार और फिल्मकार गुलजार और फिल्म अभिनेत्री राखी गुलजार की बेटी बोस्की गुलजार ने ‘कालिंग सहमत’ नाम से फिल्म बनाई है।
पाकिस्तान के खिलाफ 1971 के युद्ध के समय भारत की प्रधानमंत्री कांग्रेस पार्टी की इंदिरा गांधी थीं जिनके सख्त रुख के कारण अमेरिकी मेराइन्स की 7वीं नेवल वार फ्लीट को वापस जाना पड़ा। तब भारत के प्रधानमंत्री ऑफिस में इंदिरा गांधी के पर्सनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी बड़े सूझ बूझ के प्रशासनिक अधिकारी पीएन हक्सर मूल रूप से कश्मीरी ही थे। हक्सर साहब ने पाकिस्तान को भारत के खिलाफ 1971 के युद्ध के बहाने कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाने और उसकी सिक्योरिटी काउंसिल में अमेरिका को अपने वीटो पावर का उपयोग करने की चाल को भारतीय राजनयिकों की मदद से विफल कर दिया था।
पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने देश की राजधानी रावलपिंडी से सैकड़ों मील दूर के पूर्वी हिस्से में शेख मुजीबुर रहमान की अवामी लीग द्वारा बनाए व्यापक जनाधार की ‘बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी’ के आंदोलन को कुचलने के लिए पाकिस्तानी सेना के जनरल एके नियाजी को सैन्य घेराबंदी करने को कहा। बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी की भारत की सेना ने अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से भी हर संभव रूप से मदद की थी। अंतत : जनरल नियाजी ने अपनी पूरी सेना के साथ 3 दिसंबर 1971 के दिन भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और फिर एक स्वतंत्र देश के रूप में बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ।
बांग्लादेश का मुख्य धर्म पाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से की तरह ही इस्लाम है पर उसकी भाषा उर्दू , फारसी से अलग मैथिली भाषा की ‘ तिरहुता ‘ स्क्रिप्ट में लिखी जाने वाली बांग्ला है। मैथिली के कवि विद्यापति की काव्य रचनाएं भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में ही नहीं नेपाल और बांग्लादेश में भी लोकप्रिय हैं।
कश्मीर और प्रेमचंद
भारत के अप्रतिम साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने 12 फरवरी 1934 को ‘काश्मीर में फिर दंगा हुआ ‘ शीर्षक लेख में लिखा था कि ‘गोलियां चलाना आसान है, लेकिन यह सुशासन नहीं है, पहले दंगे के बाद कश्मीर में नया विधान हुआ और हमारा ख्याल था कि नयी व्यवस्था जनता की शिकायतें दूर करेगी और वहां सुख और शान्ति का राज्य हो जाएगा। लेकिन इधर जो समाचार आ रहे हैं उनसे मालूम होता है कि जनता इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है। अब घरों से स्त्रियों और बालकों के जत्थे निकलते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि जनता को कष्ट है नहीं तो औरतें मैदान में न आतीं ‘।
कश्मीर अब
मैंने 2023 में पत्रकार के रूप में कश्मीर की कुछ दिनों की अपनी यात्रा में देखा कि वहां कर्फ्यू हटा लेने से हालात सामान्य हो रहे थे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों के लोगों का उन्माद थमा नहीं था। कश्मीर घाटी में 80 दिनों के बाद सामान्य स्थिति बहाल होने पर मैंने अपनी यात्रा में देखा कि वहां के लोग अनिश्चितताओं के बीच जी रहे हैं।
वहां सामान्य दुर्घटना भी होती है तो उसके बाद चारों ओर अशान्ति छा जाती है। इसने आम कश्मीरी लोगों के मन में असुरक्षा की भावना बढ़ा दी है। मुंशी प्रेमचंद के समय में भी वहां आम जनता ऐसे ही प्रतिवाद करती थी जैसे अब कर रही है। यही दशा मुझे अपनी यात्रा में नजर आई जिससे मुझे लगा कि कश्मीर घाटी में अशांति का मूल कारण वहां के युवाओं की बेरोजगारी और आर्थिक बदहाली है।
कश्मीर के इंटरनल कॉलोनी बनने का खतरा
जम्मू-कश्मीर पर जिस तरह भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का शिकंजा कसा गया उससे वहां लोगों के बीच खास तरह के डर का माहौल बन गया जो कम होने के बजाय बढ़ता ही चला गया। मोदी सरकार ने कश्मीर के भारत में विलय के लिए हुए करार ‘ इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन ’ के प्रावधानों को खत्म कर दिया। इस करार के तहत ही ब्रिटिश हुक्मरानी के राज में जम्मू-कश्मीर में राजा हरि सिंह का ‘ प्रिन्सली स्टेट ‘ भारत में शामिल हुआ था।
केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में 5 अगस्त 2019 को भारत के संविधान की धारा 370 और 370 ए को खत्म करने का प्रस्ताव पेश किया जो इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में तय केंद्र सरकार की विधिक जिम्मेवारी के बारे में था। अगले दिन संसद में 2019 में पारित ‘ जम्मू-कश्मीर रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट ‘ को लोक सभा और राज्य सभा ने पास कर दिया। इस एक्ट के तहत अन्य बातों के अलावा राज्य का बंटवारा कर उसके लद्दाख क्षेत्र को यूनियन टेरिटेरी का दर्जा देने के साथ ही जम्मू-कश्मीर को भी अलग यूनियन टेरिटेरी बनाने की घोषणा कर दी गई ।
इसके पहले करीब 70 लाख कश्मीरी अपने घरों में लगभग बंद कर दिए गए , इंटरनेट और टेलीफोन सर्विस पूरी तरह बंद कर दी गईं। इस नए एक्ट के तहत केंद्र सरकार के कदमों और इस सिलसिले मे राष्ट्रपति की उद्घोषणा की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई जिस पर उसकी संविधान पीठ ने सुनवाई करने का फैसला किया। विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को कश्मीर जाने से रोक उन्हें श्रीनगर हवाई अड्डा से वापस भेज दिया गया। उनमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्कसिस्ट यानि सीपीएम के मौजूदा महासचिव कामरेड सीताराम येचुरी भी थे जिनको कश्मीर जाने से दो बार रोका गया।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कामरेड येचुरी को सीपीएम के 70 वर्ष से ज्यादा की आयु के बीमार पूर्व विधायक यूसुफ तारिगामी को देखने जाने की अनुमति दे दी। पर शर्त थी कि वह वहां जाकर राजनीति नहीं करेंगे। ऐसा ही कुछ जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद के साथ हुआ। मोदी सरकार के इन कदमों से पाकिस्तान को कश्मीर का मामला मानवाधिकारों के वैश्विक मंचों पर उठाने का मौक़ा मिल गया। इन मंचों पर आरोप लगाए गए कि कश्मीर के भारत की इंटरनल कॉलोनी यानि आंतरिक उपनिवेश बन जाने का खतरा है।
सुप्रीम कोर्ट में जम्मू-कश्मीर मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 17 सितम्बर को केंद्र सरकार को जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख सामान्य स्थिति बहाल करने के निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस शरद अरविंद बोबडे और जस्टिस सैय्यद अब्दुल नजीर की बेंच ने केंद्र सरकार को घाटी में सामान्य स्थिति बहाल करने के साथ ही जम्मू-कश्मीर में मीडिया पर लगा बैन हटाने की पिटीशन पर सुनवाई शुरू कर कहा कि ‘ घाटी में अगर बंद है तो उससे जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट निपट सकता है ‘।
यह याचिका कश्मीर टाइम्स अखबार की एग्जीक्यूटिव एडिटर अनुराधा भसीन की ओर से दाखिल की गई थी। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि कश्मीर में एक भी गोली नहीं चलाई गई, कुछ ‘लोकल बैन’ लगे थे जिन्हें कश्मीर डिवीजन के 88 फीसद से अधिक थाना क्षेत्रों से अब हटा दिया गया है। उनके अनुसार कश्मीर में सभी अखबारों का कामकाज चल रहा है , सरकारी दूरदर्शन और प्राइवेट टेलीविजन चैनलों पर किसी तरह का रोक-टोक नहीं है। लेकिन मैंने देखा कि असलियत कुछ और थी जिसे ठीक से समझने के लिए पीछे के हालात पर नजर डालनी होगी।
अमरनाथ यात्रा
उस वर्ष ‘अमरनाथ यात्रा’ के कुछ पहले ख़बरें आईं कि जम्मू-कश्मीर विधान सभा के चुनावों की तैयारियां शुरू हो गईं हैं। भारत के निर्वाचन आयोग के अलावा मोदी सरकार ने भी इनके लिए जरूरी कदम उठाने पर सलाह -मशविरा शुरू कर दिए थे। वहां लागू राष्ट्रपति शासन की अवधि 19 जून को खत्म होनी थी जिसे बढ़ाने का काम लोक सभा के 2019 के चुनावों के बाद संसद के 17 जून से 26 जुलाई तक के बजट सेशन में पूरा हो गया। निर्वाचन आयोग ने कहा कि वह अमरनाथ यात्रा के बाद विधान सभा के चुनावों का प्रोग्राम घोषित कर सकता है।
यह यात्रा एक जुलाई से शुरू होकर 15 अगस्त को समाप्त होनी थी पर उसे अगस्त के पहले सप्ताह में ही मोदी सरकार के कहने पर खतम घोषित कर सभी तीर्थ यात्रियों को वापस चले जाने कहा गया। इससे पहले एक अगस्त को भारत के कुछ टीवी चैनलों ने खबर फैलाई कि अमरनाथ यात्रा के रास्ते में एक बारूदी सुरंग पाई गई जिस पर पाकिस्तानी निशान है। अगले ही दिन सरकार ने नोटिस जारी कर अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों और सैलानियों को भी तुरंत घाटी छोड़ने का हुक्म दे दिया। घाटी के चप्पे-चप्पे पर सिक्योरिटी फोर्स तैनात कर दी गई। कश्मीरियों को अपने घर में ही रहने के लिए कह दिया गया। संचार माध्यम ठप कर दिए गये।
जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को नज़रबंद कर लिया गया
जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ्ती को उनके घरों में नज़रबंद कर लिया गया। इसके बाद मोदी सरकार के तेजी से लिए गए फैसलों के तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को नए सिरे से बनाने के एक्ट के तहत राज्य में शामिल रहे लद्दाख क्षेत्र को अलग यूनियन टेरिटेरी बना कर पूरे जम्मू-कश्मीर को अलग यूनियन टेरिटेरी बना दिया गया। साथ ही भारत के संविधान की धारा 370 और 35 ए को खत्म कर दिया गया जिसके तहत इस राज्य को विशेष दर्जा मिला था।
भारत के निर्वाचन आयोग ने उस वर्ष के मध्य में राज्य में लोक सभा की सभी छह निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव कराये थे पर विधान सभा चुनाव नहीं कराये। सरकार ने इसके पीछे ‘सुरक्षा’ का कारण बताया लेकिन आयोग का यह निर्णय जम्मू कश्मीर के लोगों ने पसंद नहीं किया। राज्य में उन सभी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव कमोबेश शांतिपूर्वक संपन्न हुए थे जिनमें विधान सभा खंड भी फैले हैं। तब ‘पुलवामा कांड’ के बाद के माहौल में सुरक्षा का मुद्दा उपर कर दिया गया जिसके साये में और सभी बातें छुप गयीं पर वे बातें अब खुलने लगी हैं और अधिकतर लोग मानने लगे हैं कि सुरक्षा सिर्फ बहाना था और वास्तविक कारण राजनीतिक थे।
चुनावी गोटें सतही नज़र से देखने के बजाय तह में जाकर देखने से ही राजनीतिक चालें समझ में आ सकती हैं। पिछली लोक सभा में कश्मीर घाटी की अनंतनाग सीट करीब तीन वर्ष खाली रखने और सुरक्षा के नाम पर वहां उपचुनाव नहीं कराने के कदम से लेकर अनेक अन्य कई बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए। पहले ऐसी खबरें मिली कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर विधान सभा चुनावों से पहले राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से परिसीमन कराना चाहते हैं।
गृहमंत्री ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिए सचिव स्तर की बैठक के बाद कुछ केंद्रीय मंत्रियों के साथ भी बैठक की। उनकी जम्मू -कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मालिक के साथ अलग से बैठक हुई। उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक राजीव जैन और केन्द्रीय गृह सचिव राजीव गौबा से भी गहन विमर्श किया। गृहमंत्री ने बाद में राज्य का दौरा भी किया।
जम्मू -कश्मीर विधान सभा के नवम्बर -दिसंबर 2014 में हुए पिछले चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। तब भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानि पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। उनके निधन के बाद उनकी पुत्री महबूबा मुफ़्ती चार अप्रैल 2016 को पीडीपी- भाजपा गठबंधन की दूसरी सरकार की मुख्यमंत्री बनीं। दोनों दलों के बीच कभी कोई चुनावी गठबंधन नहीं रहा। दोनों ने सिर्फ सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनाव बाद गठबंधन किया जो अगले चुनाव के पहले ही टूट गया।
भाजपा इस गठबंधन की सरकार के रहते हुए 2019 के लोक सभा चुनावों में उतरने का खतरा मोल लेना नहीं लेना चाहती थी क्योंकि यह सरकार मतदाताओं के बीच ध्रुवीकरण बढ़ाने के उसकी राजनीतिक चालों की कामयाबी में रोड़ा बन गई थी। भाजपा ने अपनी ही साझा सरकार गिरा दी। जब महबूबा मुफ़्ती सरकार 19 जून 2018 को गिर गई तब जम्मू-कश्मीर के विशेष संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत ‘गवर्नर रूल ‘ लागू किया गया। इसके छह माह बाद 19 दिसंबर 2018 की मध्य रात्रि से वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।
राज्यपाल की अनुशंसा पर विधान सभा तब भंग कर दी गई थी जब महबूबा मुफ्ती ने कांग्रेस और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के समर्थन से नई सरकार बनाने का दावा पेश करने की घोषणा कर अपना पत्र फैक्स से राजभवन प्रेषित कर दिया। पर राजभवन का कहना था कि उसे ऐसा कोई फैक्स नहीं मिला। दो विधायकों की पार्टी पीपुल्स कांफ्रेंस के प्रमुख सज्जाद लोन ने भी भाजपा और कुछेक अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त होने का दावा कर नई सरकार बनाने की कोशिश शुरू कर दी।
राज्यपाल सतपाल मलिक ने नई सरकार बनाने की प्रक्रिया में विधायकों की खरीद-फरोख्त होने की आशंका से विधान सभा भंग कर दी। कुल 89 सीटों की विधान सभा में उसे भंग किये जाने वक़्त पीडीपी के 29 , भाजपा के 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस के 15 , कॉंग्रेस के 12 और जम्मू-कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस दो विधायकों के अलावा सीपीएम और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के एक-एक, और तीन अन्य दलों के या निर्दलीय सदस्य थे। सदन में दो सीट मनोनीत महिला सदस्यों की है।