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‘सुर’ ~ ‘असुर’ का निहितार्थ*

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डॉ. नीलम ज्योति

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवापस्यथ।।
देवासुरा ह वै यत्र संयेतिर उभये प्राजापत्यास्तद्ध देवा उद्गीथमाजह्रुरनेनैनानभिभविष्याम इति।
-छाँदोग्य उपनिषद : १/२/१)

  _प्रजापति के ही दोनों पुत्र हैं. दोनों मे आदिकाल से हर क्षण युद्ध होता है. यह दोनो कोई पार्थिव योनि नही हैं._
   परमात्मा ने जब मनुष्य को बनाया तब मनुष्य के भाव मे ही दोनो प्रविष्ठ होकर युद्ध करने लगे और आज भी कर रहे हैं तथा भविष्य मे भी करते रहेंगे।
 _हर साल रावण मारा जाता है और मारकर लौटने वालों के मष्तिस्क मे भाव मे तत्क्षण पुनः प्रविष्ठ हो जाता है। फिर एक क्षण देवत्व जाग उठता है तो दूसरे क्षण असुरत्व।_

देवत्व-असुरत्व क्या है?
देव शब्द द्योतनार्थक दिव धातु से उत्पन्न हुआ। इसका अभिप्राय शास्त्रालोकित इन्द्रियवृत्तियाँ हैं।
अपने असुओं (प्राणों) मे यानी विविध विषयों मे जाने वाली, प्राणनक्रियाओं मे (जीवनोपयोगी प्राण-व्यापार मे) रमण करने वाली होने के कारण स्वभाव से ही जो तमोवृत्तियाँ है वही असुर हैं।

  *इनमे युद्ध क्यों होता है?*
  जव विवेक जाग्रत होता है तब मनुष्य का भाव सद् प्रवृत्ति की ओर जाता है. विवेक जाग्रत होना बहुत कठिन विषय है. देवत्व की संख्या (परिमाप) थोडी़ होती है,जबकि विषयवासनाओं की संख्या अधिक है।

इसलिए लक्षणार्थरूप से व्यवहार मे यही देखते हैं कि असुरों का बल भारी हो जाता है. हम बुरे कर्मों (काम,क्रोध,मोह,लोभ,नफरत,दंभ) मे प्रवृत्त रहते हैं. विवेक सोया रहता है। जब इसे होश आता है तो यह विष्णु/इन्द्र (स्व) की ओर भागता है। विष्णु यानी विद्या इन्द्र यानी पराक्रम। अपने पराक्रम से इन दुष्प्रवृत्ति पर जब मनुष्य विजय पा लेता है तो असुर पराजित हो जाते है।_
इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा है :
हे मनुष्यों! तुम देवताओं को उन्नत करो तो देवता भी तुम्हे उन्नत करेंगे और दोनों के परस्पर सहयोग से तुम लोग सुखी रहोगे।
कठोपनिषद् मे इन इन्द्रियों को घोडों की संज्ञा दी गयी है और मन को लगाम(बल) की। तो लगाम को थोड़ा-थोड़ा खीचते रहना चाहिए ताकि विवेक जाग्रत रहे।

 दूसरी बात यह कि जो इन्द्र, विष्णु, राम, कृष्ण, हिरण्यकश्यप, प्ह्लाद, सूपर्नखा, कुम्भकर्ण जैसे अनेक नाम सूर और असुर  के बताए गए हैं वह लक्षणार्थ हैं : ताकि सामान्य मनुष्य भी कम से कम भयवश ही सही; सत्कर्म मे प्रवृत्त होता रहे.
 _यदि वैज्ञानिकतापूर्वक जीवन जीने की कला समझ नही आई तो सारा पुरुषार्थ कुम्भकरण ही बनकर रह जाएगा।_
   (चेतना विकास मिशन)
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