~ नीलम ज्योति
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमित्याहुः दानमेकं कलौयुगे।।
कृतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ तथा कलियुग में दान शक्ति की प्रधानता होती है। प्रत्येक प्राणी में चारों युगों का भाव होता है।
कालिः शयानो भवति, संजिजानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठत्रेता भवति, कृतं सम्पद्यते चरन्॥
सोता हुआ कलियुगावस्थास में होता है। जागा हुआ किन्तु आलस्य में पड़ा हुआ द्वापर युग में होता है। जो आलस्य छोड़ कर उठ बैठा हो उसकी त्रेतावस्था होती है। अच्छी तरह चलने फिरने लगे तो वह कृतयुग अवस्था में होता है। शक्ति चतुष्पाद है।
कलियुग में एकपाद, द्वापर में द्विपाद = त्रेता में तीनपाद तथा सतयुग में पूर्णपाद रूप में शक्ति विद्यमान रहती है। साधारण मनुष्यों में एक चौथाई शक्ति होती है। ये लोग शासित होते हैं। जिनमें यह शक्ति आधी होती है, वे लोग अधिकारी, पदवीधारी शासक होते है।
जिन में यह शक्ति तीन चौथाई होती है, वे ही अपि, देव, सिद्धादि होते हैं। जिन में यह शक्ति पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित होती है, उन्हें ईश्वर परमदेव परमात्मादि कहा जाता है। शक्ति, जिन के भीतर सोती रहती है, वे दीन हीन मलीन कलियुगी हैं। शक्ति जब तन्द्रावस्था में होती है तो वे लोग अल्पचेती अल्पविकसित द्वापरयुगी होते हैं।
शक्ति, जिन में जागृत होती है वे विचारशील विज्ञानी त्रेतायुगी कहलाते हैं। जिन में शक्ति क्रियाशील होती है. ऐसे ऐश्वर्यवान धनवान्, विभूतिवान् सामर्थ्यशाली को कृतयुगी / सतयुगी कहा जाता है। पुरुष तो सभी हैं, कई हैं। इन में से जो विशेष है, वह ईश्वर है।
क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः।
~योगसूत्र (१।२४)
क्लेश (अविद्या, अस्तिमता, राग, द्वेष, अभिनिवेश), कर्मविपाक (कर्मफल) तथा आशय (कर्म संस्कारों के समूह) से असंबद्ध पुरुष विशेष को ईश्वर कहा जाता है।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशाः।
~पातञ्जल योग सूत्र (२।३)
इस क्लेश से छुटकारा कैसे मिले ? जीव यदि ईश्वर हो जाय तो उसे इस से छुटकारा पाना ध्रुवसत्य है। ईश्वर होने के लिये शक्ति के चारों पादों की प्राप्ति आवश्यक है। यह शक्ति सब में पूर्णरूप से रहती है। किन्तु रहने से क्या होता है ? विकसित नहीं है | सो रही है, तंद्रा मस्त है, जागृत पर अक्रिय है।
इस लिये जीव शासित है, शासक है, अपि है। वह ईश्वर नहीं है। ईश्वर होने के लिये मूलाधार से सहसार पर्यन्त ७ चक्रों की यात्रा करनी पड़ती है। सारा खेल शक्ति का है। पूरी शक्ति का प्राकट्य होते ही साधारण समझे जानेवाला जीव ईश्वर हो जाता है। योगी ईश्वर होता है। योगी को मृत्यु का भय नहीं होता। वह कभी मरता नहीं। वह शरीर से असम्बद्ध होता है। अतः कर्मविपाकाशय होंगे ही नहीं।
योग सब दुखों का नाशक है। योगो भवति दुःखहा।
~गीता (६।१७)
हे अर्जुन, तू योगी बन ‘”तस्माद्योगी भवार्जुन।”(गीता ६ । ४६)
अष्टम भाव की रामबाण औषधि है, अष्टांगयोग– यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि किन्तु यह कड़वी एवं तीती है। यह सब के लिये सेव्य नहीं है। यह औषधि अधिक मूल्य की है।
मुझ जैसे लोगों की क्रय शक्ति से परे है। अष्टम भाव की एक अमूल्य औषधि है, नामयोग-नाम जप यह सब के लिये साध्य है। मैं यही औषधि लेता हूँ। इस औषधि के सेवन से जीव कभी ईश्वर नहीं बनता।
वह ईश्वर की सायुज्य प्राप्त करता, सान्निधि में होता है। यही क्या कम है ?
शक्ति को प्रथमा सुषुप्तावस्था में व्यक्ति शूद्र होता है।
शक्ति की द्वितीयावस्था तन्द्रा में व्यक्ति वैश्य होता है।
शक्ति को तोपावस्था जागृति में व्यक्ति क्षत्रिय होता है।
शक्ति की चतुर्थावस्था सक्रियता में व्यक्ति ब्राह्मण होता है।
जो राष्ट्र, समाज, धर्म, देश, जाति, कुल, कुटुम्ब, व्यक्ति शक्ति की उपासना नहीं करते वे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं। इस सत्य को कौन नकार सकता है ? शक्ति उपसना का अर्थ है शक्ति संग्रह शक्तिवत्त होना, शक्ति का आदर करना, शक्ति को प्राथमिक मानना शक्ति अनेक रूपिणी है। इच्छाशक्ति, विचारशक्ति, क्रियाशक्ति, धनशक्ति जनशक्ति, सैन्यशक्ति, अस्वशक्ति, शस्त्र शक्ति, शास्त्र/मंत्रणाशक्ति व्यवस्था शक्ति। शक्ति के ये विभिन्न रूप समान रूप से उपादेय एवं उत्कर्षकारक हैं।
जो शक्ति की पूजा करता है, वह स्वयमेव पूज्य हो जाता है। ब्रह्मा जी इस शक्ति को अपने मुख में ससम्मान स्थान देते हैं। विष्णु जी इसे अपने वक्षस्थल पर आदरपूर्वक रखे रहते हैं। शिवजी इसे अपनी सम्पूर्ण काया के वामार्थ में स्वांगभूत किये रहते हैं। इसलिये ये तीनों देव शाक्त हैं और सर्वपूज्य हैं। इन्हें नमस्कार करना ही शक्तिपूजा है। शक्ति की आराधना करना अथवा शक्ति के आराधक की आराधना करना ही शक्त/ शक्तिमान होना है।
शक्तिहीनता अपमान की जननी है। शक्तिदीन मानहीन मान कौन नहीं चाहता ? मान के लिये धन-धान्य होना आवश्यक है। शक्ति मा से धनादि की याचना की जाती है।
(१) एवा धनस्य मे स्फातिमा दधातु सरस्वती।
~ अथर्व वेद (१९ । ३१ । ९)
अर्थ- यह सरस्वती मेरे लिये धनाधिक्य करे- प्रचुर धन दे।
(२) आ मे धनं सरस्वती पयस्फाति च धान्यम्।
सिनीवाल्युपा वहादयं चौदुम्बरो मणिः।।
( अथर्व. १९ । ३१ । १०)
सरस्वती देवी मुझे कृपा कर के सम्पत्ति दे, अन्न दे, प्रचुर गोधन/दुग्धवती गौवें दे। वह मेरी उन्नति करे। वह मुझे सुयश दे, आनन्द दे तथा सुन्दरी दक्ष पत्नी दे।
√●गृहस्थ जीवन में सम्पूर्ण सुख पत्नी सन्नद्ध होते हैं। पत्नी शीलवती हो तो कहना क्या ?
साध्वी शीलवती दयावसुमती दाक्षिण्य लज्जावती
तन्वी पापपराङ्मुखी स्मितवती मुग्धा प्रिया भासति।
देवब्राह्मणबन्धुसज्जनरता यस्यास्तिभार्या गृहे
तस्यार्थागम काममोक्षफलदा कुर्वति पुण्यप्रिया:।।
(सुभाषितम्)
शक्ति से धन माँगा जाता है। धन कितना आवश्यक है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। स पत्नी की आवश्यकता केवल गृहस्थ को है, परन्तु धन तो सब को चाहिये ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी, सज्जन-दुर्जन, बाल-वृद्ध, दानी भिक्षु धन से हीन व्यक्ति दरिद्र कहलाता है। जीवित रहते हुए पांच लोग मृत सम वा मृणि है। इन पाँचों में दरिद्र का स्थान प्रथम है।
जीवन्तोऽपि मृताः पञ्च व्यासेन परिकीर्तिताः।
दरिद्रो व्याधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवक॥
ये लोग धन के दास हैं। जो धन के दास हैं वे ठाट बाट का जीवन जीते हुए गेरुवा वस्त्र धारी कलियुगी संन्यासी महात्मा महन्थ कैसे आदरणीय हो सकते हैं ? जो राम के दास हैं, मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ ।
धन सब के लिये आश्रय है। इसलिये धन का महत्व है और आवश्यक है। धन नहीं है तो पण्डित (कर्मकाण्डी) नहीं आयेगा, स्त्री नहीं टिगेगी, विवाह होना कठिन है।
विनाश्रयाः न शोभन्ते, पण्डिताः वनिता लताः।
पण्डितों स्त्रियों एवं लताओं को आश्रय चाहिये।
पण्डित (विद्वान राज्याश्रयड़ता है बनिता (सुन्दरी नायिका) धनी उद्योगपति पुरुष को पाने के लिये लालायित रहती है। लता (कोमल दुर्बल वनस्पति) वृक्ष के सहारे बढ़ती है। इस के लिये ये सब आश्रयदाता के दास हो जाते हैं, उन की मिथ्या प्रशंसा करते हैं। धन के लिये असत्य आचरण ठीक नहीं है। जिस से ये सब धनी बने हैं, हम उस शक्तिको स्तुति करें, उसका आश्रय लें, उस की शरण में जायें, उस के दास बनें। इस के लिये देवी सूक्त पढ़ने की आवश्यकता नहीं, मात्र ज्योति जलाना है क्योंकि वह शक्ति ज्योतिर्मयी है तथा दुग्धयुक्तकँटीले वृद्ध वनस्पति लगाना और उस के नीचे रहना है।
अश्वत्थवटनिम्बाम्रकपित्थवदरीगते। पनसार्ककरीरादिक्षीरवृक्षस्वरूपिणी॥ दुग्धवल्लीनिवासार्ह दयनीये दयाधिके। दाक्षिण्यकरुणारूपे जय सर्वज्ञवल्लभे।।“
~श्रीमद् देवीभगवत (८ । २४ । ५४,५५)