मीडिया का प्रमुख कार्य है, आम जनता तक सही सूचनाएं सही समय पर पहुंचाना ताकि वे अपना निर्णय स्वयं ले सकें और अपनी परिस्थितियों को अच्छी तरह आंक सकें। मीडिया से निर्भीकता तथा सत्यनिष्ठा की जो उम्मीदें की जाती हैं, वे इस कारण कि वह जनसामान्य के प्रति अपनी इस प्रतिबद्धता से विचलित न हो। ‘‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इसके समानांतर ही एक भूमिका निभाता है। वह जनसामान्य को उसके सभी रिश्तों में वास्तविक भूमिका और उचित जानकारी से संपन्न कराने का उत्तरदायित्व लेता है।
जब कभी भी मनुष्य को उसकी गरिमा से वंचित करने की कोशिश की जाती है, तो राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग अपने अनिवार्य हस्तक्षेप से उसे दूर करने का प्रयास करता है। इस प्रकार मानव अधिकार एक आंदोलन है। जब हम मानव अधिकारों के वर्तमान संदर्भ की बात करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि मीडिया का मूल स्वरूप मानव अधिकारों के पैरोकार के रूप में सामने आता है तथा उसका मूल उद्देश्य दुनियाभर के लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करना है।’’ भारतीय परिपे्रक्ष्य में संचार माध्यमों को अपनी ताक़त का अंदाजा स्वाधीनता आंदोलन से हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व स्वयंसेवी संगठनों का आपस में गहरा रिश्ता रहा। और, यही रिश्ता आज मानव अधिकारों के संदर्भ में और अधिक सबल हुआ है। आयोग का मीडिया के साथ चोली-दामन का संबंध है। आयोग द्वारा मीडिया के साथ अपने संबंधों को बहुत व्यापक परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र हित को ध्यान में रखकर एक ऐसे तंत्र की स्थापना की कोशिश की गई है, जो देश भर में मानव अधिकारों के आंदोलन की ज़मीन तैयार कर सके। आज मीडिया ने अपनी अहमियत से सबको परिचित करा दिया है। मीडिया ने वर्तमान संदर्भ में एक नयी संस्कृति को विकसित करने की कोशिश शुरू की है, जिसे हम सशक्तिकरण की संस्कृति भी कह सकते हैं। निःसंदेह, अब मीडिया शक्तिशाली भूमिका में आया है। आज मीडिया के कारण ही मानव अधिकारों के बहुत सारे संवेदनशील मामले सामने आए हैं।
मीडिया मानव अधिकारों की रक्षा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि, समाचारपत्रों में मानवाधिकारों के हनन के नाम पर सिर्फ़ पुलिस हिरासत और जेल हिरासत में होने वाली गतिविधियों तथा मौतों की ख़बरें ही अधिकांश रूप से प्रकाशित की जाती हैं। परंतु, सामाजिक घटनाओं को (मानवाधिकार हनन) अब भी वह स्थान नहीं मिल पा रहा है, जो उसे मिलना चाहिए। उल्लेखनीय है कि मानव अधिकार आयोग ने भी संवाददाता द्वारा प्रकाशित बहुत-सी मानव अधिकार हनन जैसी घटना को आधार मानकर कार्रवाई की है। कई बार तो मामले प्रकाश में आए हैं, और बहुतों को इससे राहत भी मिली है। उदाहरणस्वरूप देश के समक्ष बाटला हाऊस मुठभेड़ काफी सुर्खियों में रहा। तत्कालीन मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एस. राजेंन्द्र बाबू ने कहा कि ‘‘मीडिया केवल सामाजिक मुद्दों, गरीबी से उत्पन्न समस्याओं तथा कुपोषण से होने वाली मौतों पर ज्यादा ध्यान दें न कि मुठभेड़ों और पुलिस हिरासत में हुई मौतों को अधिक ऐहमियत दें। मीडिया को आज अपने अधिकारों से वचित लोगों के अधिकारों की रक्षा के मुद्दों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।’’ समाचारपत्रों की अपेक्षा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मानवाधिकार से संबंधित ख़बरों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। मानव अधिकारों का दायरा बहुत व्यापक है। इसके बाद भी आज मीडिया से जुडे़ लोगों को इसकी विस्तृत जानकारी नहीं है। इससे यह पता चलता है कि मीडियाकर्मी कितने संवेदनशील हैं। अधिकांश मामलों में
होता यह है कि संवाददाता या रिर्पोटर पुलिस द्वारा दी गई रिपोर्ट/जानकारी को ज्यों-का-त्यों प्रकाशित कर देते हैं, चाहे वो गलत ही क्यों न हो। इसके साथ-साथ मानवाधिकार से संबंधित बड़ी ख़बरों को समाचारपत्रों में स्थान नहीं मिल पाता। सन् 1984 में इलाहाबाद जिले में पुलिस द्वारा आदिवासियों के साथ उत्पीड़न की ख़बर को बहुत से पत्रकार कवरेज करने पहुंचे। परंतु, यह ख़बर केवल जनसत्ता में ही प्रकाशित हुई, और किसी अन्य समाचारपत्र ने इस ख़बर को महत्त्व देने की जरूरत महसूस नहीं की। जनसत्ता में छपी इस ख़बर से विधानसभा में खलबली मच गई और सभी दोषियों को सज़ा मिली। हालांकि, इस ख़बर को जो प्रमुखता दी जानी चाहिए, वह नहीं मिल सकी। कहना गलत न होगा कि समाचारपत्र और टी.वी. चैनल मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता का प्रचार-प्रसार करने में एक अहम् रोल निभा सकते हैं। परंतु मीडिया मानव अधिकारों से संबंधित मामलों से कन्नी काटते रहते हैं। भारत सरकार के ऐसे बहुत से आयोग है, जिनका मीडिया से कोई संवाद का रिश्ता नहीं है। ये आयोग मीडिया को किसी वार्षिक आयोजनों में ही आमंत्रित करते हैं। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के गठन के बाद आयोग और मीडिया के बीच एक गहरा रिश्ता बना है। इस रिश्ते के कारण आयोग द्वारा जारी प्रेस विज्ञाप्तियों, न्यूज़़ लेटर और पत्रिकाओं को भी प्रकाश में लिया जाता है। आयोग ने मीडिया और मुख्य तौर पर क्षेत्रीय भाषाई पत्रकारों को अपने अभियान में जोड़ने की पहल की है। परंतु, मानव अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले पत्रकारों को ही पुलिस और प्रशासन की ज्यादतियों का शिकार होना पड़ता है। इसके साथ-ही-साथ मीडिया यह भी मानता है कि लाइव कावरेज के नाम पर और टी.आर.पी बढ़ाने के लिए उसने सारी हदें पार कर कर दी है।
परिणामस्वरूप ताज होटल में फंसे बंधकों और सुरक्षा बलों की जान को भी खतरा पैदा हो गया था। इसी क्रम में मीडिया ने कई गलत ख़बरें भी प्रकाशित की। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरे पहलू में सैकड़ों पत्रकार देश और समाज के लिए अपनी जान भी जोखिम में डाल रहे हैं। आज कई इलाकों में सशस्त्र टकराव की स्थिति बनी हुई है। इससे निपटने के लिए प्रायः पुलिस, अर्ध सैन्य बलों तथा सेना की तैनाती की मांग उठती रहती है। छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, बिहार आदि समेत एक दर्जन राज्यों में लगभग 127 जिले नक़्सलवाद की चपेट में आ गए हैं। इनमें भी 9 राज्यों के 76 जिलों की हालत अत्यंत गंभीर बनी हुई है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत 14 राज्य सांप्रदायिक दृष्टिकोण से संवेदनशील हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जातीय सेनाओं का गठन और राजनीतिक दलों में गिरोहबंदी का गठन हो चुका है। और इस तरह के गठनों ने कई नरसंहार को अंज़ाम भी दिया है। हिंदी और भाषाई पत्रकारों को ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक तरफ तो वे आंतकियों या असामाजिक तत्वों के हत्थे चढ़ते हैं, तो दूसरी तरफ मानव अधिकार उल्लंघन जैसे मुद्दों में रिपोर्ट प्रकाशित करने पर सुरक्षा बलों की भी नराज़गी मोल लेनी पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि पत्रकारों को पुलिस के अधिकारियों और जवानों ने अपनी राह का रोड़ा मान लिया है। कई बार तो सामान्य जानकारियों को शासकीय गोपनीयता या राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर सूचना देने से मना कर दिया जाता है। लोगों में ऐसी धारणा है कि अधिकांशतः पुलिस द्वारा ही मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। यदि पत्रकार उचित तथ्यों के साथ उजागर करते हैं, तो उन्हें उग्रवादी गुटों का समर्थक बताकर नाहक ही परेशान किया जाता रहा है। सन् 1993 में भारतीय सेना मुख्यालय में मानवाधिकार प्रकोष्ठ का गठन किया गया था, और सैनिकों को, खासतौर पर मानवाधिकारों के लिए क्या करें?, क्या न करें? की सूची भी प्रदान की गई थी। फिर भी, मानव अधिकार हनन और उल्लंघन के मामले प्रकाश में आते ही रहते हैं। यदि मीडिया द्वारा ऐसे मामलों को प्रकाश में लाने की कोशिश की जाती है, तो सुरक्षा बलों के कई अधिकारी उन्हें परेशान करते हैं।
यह कटु सत्य है कि देश के सभी हिस्सों में पुलिस के साथ प्रेस का संबंध तनाव पूर्ण रहा है। पुलिस की अकर्मठता, निष्क्रियता, बलात्कार, नरसंहार और खराब कानून व्यवस्था आदि के बारे में जब पत्रकार लिखते हैं, तो वे पुलिस के बड़े अधिकारियों की आंख में किरकिरी बनने लगते हैं। मानवाधिकारों के संरक्षण का पूरा दायित्व पुलिस पर भी है। पुलिस के पास कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए गिरफ़्तार करने, तलाशी लेने, समान जब्त करने, अदालत में फौजदारी जैसे मामलों को दायर करने के अधिकार हैं। परंतु, विडंबना है कि जिसके पास मानवाधिकारों की रक्षा का भार है अधिकतर उसी के द्वारा ही उसका का गला घोंटा जा रहा है। मानव अधिकार आयोग तथा आम कार्यकत्र्ताओं के लिए यह चिंता का विषय बना हुआ है कि तमाम प्रयासों के बाद भी पुलिस की मनमानी पर लगाम नहीं लग पा रहा है। भारत में सबसे अधिक मानवाधिकार हनन के मामले पुलिस हिरासत में ही होते हैं। पुलिस हिरासत में कैदियों की मौतें, महिला कैदियों तथा बच्चों के यौन-उत्पीड़न की घटनाएं, समय-समय पर प्रकाश में आती रहती हैं। अधिकांश राज्य के थानों में प्राथमिकी दर्ज कराना भी बड़ी मुश्किल का काम है। इसका कारण यह है कि प्रभारी अपने इलाकों के अपराध की दरों को कम दिखाना चाहते हैं। इसके चलते मीडिया और पुलिस के मध्य जगह-जगह तनाव के मोर्चे खुल गये हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन से पूर्व तो अधिकतर जेलों की दयनीय दशा की जानकारी कभी-कभी मिलती थी। हालांकि, आयोग के गठन के बाद मीडिया और जेलतंत्र के बीच संवाद का अभाव अब भी बना हुआ है। परिणामस्वरूप मानवाधिकार हनन की ख़बरें प्रकाश में नहीं आ पाती हैं।
एक सच बलात्कार से जुड़ी श्रेणियों का भी है। मीडिया में बलात्कार की कवरेज पीड़िता की क्लास (निम्न, मध्य या उच्च वर्ग), जगह (स्लम, पॉश या मध्यम वर्गीय), पारिवारिक पृष्ठभूमि, शहर, शैक्षिक योग्यता आदि के आधार पर जगह और प्राथमिकता पाती है। इसके अलावा आरोपी की पृष्ठभूमि भी काफी मायने रखती है। कहना गलत न होगा कि बलात्कार जब तक ठोस ख़बर की वजह नहीं बनता, वह मीडिया की नज़रों से अछूता रहता है। और, कई बार तो वह न्याय पाने में भी पिछड़ जाता है। ऐसे तमाम बलात्कार, जो कि मीडिया को किसी भी तरह से कौतूहल बनाने लायक लगते रहे हैं, की कवरेज भरपूर रस के साथ की जाती रही है। मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज का बलात्कार मामला (15 नवंबर, 2002) मध्यम वर्गीय पढ़ी-लिखी युवती का था, जिसमें बलात्कार पुलिस मुख्यालय के एकदम करीब हुआ था। दिल्ली में ही राष्ट्रपति के सुरक्षा गार्डो ने जब बुद्धा गार्डेन में एक युवती से बलात्कार किया (6 अक्टूबर, 2003), तो उसे मीडिया ने खूब जगह दी। यह मामला भी कुछ ही घंटों में सुलझा लिया गया।
इसी तरह जयपुर में एक विदेशी महिला के बलात्कार के मामले पर तो ‘फास्ट कोर्ट’ का ही गठन कर दिया जाता है, और अपराधियों को चुटकियों में सज़ा दे दी जाती है। लेकिन, दूसरी तरफ गरीब बस्तियों में होने वाले बलात्कार बमुश्किल दो कॉलम की ख़बर बन पाते हैं। एक तो मीडिया इन्हें ‘खास’ नहीं मानता और दूसरे, इसमें चटखारे लेने लायक कुछ नहीं होता। वैसे भी, मीडिया ऐसे वर्ग से जुड़े लोगों को कवर करने में दिलचस्पी लेता है, जिससे वह खुद का जुड़ाव महसूस करता हो। चूंकि, मीडिया में एक बड़ी हिस्सेदारी मध्यम या उच्च वर्ग के पत्रकारों की है, अतः इसी श्रेणी से कवरेज अपेक्षाकृत ज्यादा तवज्ज़ो भी पाती है। मीडिया के इस रवैये को अब पुलिस भी पहचानने लगी है। यही वजह है कि निम्न वर्ग पर हुए आपराधिक मामले आज भी थानों में आसानी से दर्ज नहीं हो पाते। अगर दर्ज होते भी हैं, तो बड़े सच को छोटे में तब्दील कर दिया जाता है। यहां बलात्कार को अक्सर ‘छेड़छाड़’ का मामला बना दिया जाता है। अपराध की हर पल की रिपोर्ट से भले ही पुलिस पर अतिरिक्त दबाव पड़ जाए, लेकिन इस वजह से कई बार या तो सही अपराधी पकड़ में नहीं आता या फिर उसे अपनी बात कहने का पूरा मौका नहीं मिला पाता। साथ-ही-साथ मामला आनन-फानन में सुलझा हुआ दिखा दिया जाता है। बाद में न्यायिक प्रक्रिया भी कई बार मीडिया रिपोर्ट से प्रभावित होती दिखाई देती है। वैसे इस सच को भी नकारा नहीं जा सकता कि मीडिया का महिला अपराध के प्रति शुरू से ही भेदभाव पूर्ण नज़रिया रहा है। पुरूष द्वारा किसी महिला का यौन-शोषण होना कोई बड़ा व तीखा सवाल खड़ा नहीं करता। लेकिन, महिला अगर पुरूष पर हमला कर देती है, तो यह ‘मेन बाइट्स डॉग’ की तरह देखा जाता है। यह दिलचस्प है कि पूरी दुनिया में मुख्यधारा की मीडिया में इस तरह की मानसिकता रही है।