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मीडिया विमर्श: वंचितों की हिस्सेदारी के क्षण आते हैं तो मीडिया सहानुभूति और प्रगतिशीलता की परिभाषा भूल जाता है

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अनिल चमड़िया

डॉ. भीमराव आंबेडकर लिखते हैं कि “भारत का संवैधानिक ढांचा ब्रिटिश भारत के लोकतंत्र और देशी रियासतों के एक तंत्र का खिचड़ी संघ होगा और इस तरह की सरकार राजनैतिक बहुमत की सरकार नहीं बल्कि सांप्रदायिक बहुमत की सरकार होगी।”

डॉ. आंबेडकर की 1947 के बाद की भारतीय राजनैतिक ढांचे को इस रूप में देखने की उक्त उक्ति को यहां प्रस्तुत करने का एक उद्देश्य यह है कि वंचितों के लिए समस्त व्यवस्था को इस खिचड़ी रूप में आज भी सक्रिय देखा जा सकता है। पत्रकारिता के भी इसी खिचड़ी-रूप की हम यहां संक्षिप्त चर्चा करना चाहते हैं। भाषा एक राजनैतिक औजार होता है। किसी भी समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए यह मायने रखता है कि परिवर्तनगामी शक्तियां किस तरह की भाषा और पत्रकारिता का अपना ढांचा तैयार करने का उद्देश्य रखती हैं।

सासाराम के जेल में भी हरिजनों (उस समय दलितों के लिए हरिजन ही आमतौर पर लिखा जाता था) की ही क्यों मौत होती है, इस पर मैंने एक सामग्री तैयार की। लेकिन हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में उसे जगह नहीं मिली। जबकि इसी सामग्री को जब दूसरे नाम से दिल्ली के प्रमुख समाचार पत्र संडे ऑब्जर्बर में भेजा गया तो वह बहुत ही प्रमुखता से प्रकाशित हुआ

भारत में बहुजनों के लिए विभिन्न भाषाओं की पत्रकारिता को समझने के लिए एक उल्लेखनीय अनुभव उदाहरण के रूप में उद्धृत करना बेहतर होगा। वर्ष 1978 में बिहार में जब कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में सरकार बनी तब उन्होंने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में मंत्रिमंडल की बैठक में एक फैसला लिया। वह फैसला था कि बिहार में दलितों को आत्मसुरक्षा के लिए सरकार द्वारा हथियार और उसके लिए लाइसेंस मुहैया कराया जाएगा। उस समय भी बिहार में दलितों के खिलाफ सामूहिक हत्या की घटनाएं होती थी और वे हत्याएं उनके द्वारा होती थीं, जिन्हें सरकार द्वारा हथियारों के लाइसेंस बांटे जाते थे। कर्पूरी ठाकुर ने हथियार के इस्तेमाल के लिए दलितों को प्रशिक्षण देने का भी फैसला किया था। क्योंकि बिहार में दलितों पर हमला करने वाली सामाजिक शक्तियों को हथियारों को चलाने का प्रशिक्षण देने के लिए कैंप लगाए जाने के कई प्रामाणिक उदाहरण हैं। यह भी कि उन्हें हथियारों के लाइसेंस देने में उदारता बरती जाती थी।

दो भाषाएं, दो रुख़

यह एक लंबी कहानी है। संक्षेप में यह कि बिहार में दलितों को हथियार संबंधी फैसले पर मैंने एक सामग्री प्रयोग के तौर पर हिंदी और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में प्रकाशनार्थ भेजा। तब भी हिंदी के कई समाचार पत्रों में मैं नियमित लिखता था। हिंदी के कई समाचार पत्रों में संपादकीय पृष्ठ पर वह सामग्री छप गई, लेकिन अंग्रेजी के किसी समाचार पत्र में वह प्रकाशित नहीं हुई। मुख्यधारा के प्रमुख माने जानेवाले लगभग सभी अंग्रेजीसमाचार पत्रों को मैंने वह सामग्री भेजी थी। कई संपादकों को उस सामग्री में दिए गए तथ्य और तर्क तो आकर्षित करते थे और प्रकाशित करने पर सहमत भी होते थे, लेकिन किसी ने प्रकाशित नहीं किया। यहां तक कि गैर व्यवसायिक मानी जानेवाली और प्रगतिशील माने जानेवाली अंग्रेजी की पत्रिकाओं का भी यही हाल था। बंबई (अब मुबंई) में ‘इकोनॉमिक एंड पालिटिकल वीकली’ (ईपीडब्ल्यू) के तत्कालीन संपादक कृष्ण राज से मैंने व्यक्तिगत तौर पर मिलकर इस सामग्री के बारे में बात की और उन्होंने प्रकाशित करने पर अपनी सहमति भी दी। लेकिन दो बार मंगवाकर भी उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया। दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका ‘सेमिनार’ में बिहार पर एक विशेषांक निकल रहा था और उसके संपादक ने भी उस सामग्री को तीन बार मंगवाया। तीन बार इसीलिए कि उस सामग्री को कम-से-कम शब्दों में वे प्रकाशित करना चाहते थे। आखिरकार लगभग ढाई-तीन हजार की सामग्री को आठ सौ शब्दों में करने के बावजूद जब सेमिनार का अंक आया तो वह सामग्री उसमें शामिल नहीं थी। 

मैंने जब उनसे पूछा कि आखिर इतनी मेहनत करवाने के बावजूद उन्होंने उसे क्यों नहीं छापा तो उन्होंने जवाब दिया कि इसमें ‘बंदूक संदूक’ की बात है। आखिरकार वह अंग्रेजी में नहीं छपी। 

लेकिन दूसरी तरफ बहुजनों के खिलाफ अमानवीय व्यवहारों को लेकर सामग्री अंग्रेजी के समाचार पत्रों में हिंदी के समाचार पत्रों की अपेक्षा प्रमुखता से प्रकाशित होती थी। इसके लिए अपनी पत्रकारिता का एक दूसरा उदाहरण यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। मैंने बहुत मुश्किलों से और कई महीने की मेहनत के बाद यह जानकारी हासिल की कि बिहार के जेलों में कैदियों की मौत की घटनाएं बड़ी संख्या में होती हैं और उनमें ज्यादातर या कहें कि लगभग सभी बहुजन होते हैं। सासाराम के जेल में भी हरिजनों (उस समय दलितों के लिए हरिजन ही आमतौर पर लिखा जाता था) की ही क्यों मौत होती है, इस पर मैंने एक सामग्री तैयार की। लेकिन हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में उसे जगह नहीं मिली। जबकि इसी सामग्री को जब दूसरे नाम से दिल्ली के प्रमुख समाचार पत्र संडे ऑब्जर्बर में भेजा गया तो वह बहुत ही प्रमुखता से प्रकाशित हुआ। इस हद तक उसकी चर्चा हुई कि कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं हरिजन कैदियों की मौत के खिलाफ सक्रिय हुई। अंग्रेजी में ही यह बहस भी उस दौरान हुई कि हरिजनों को ‘तुम’ क्यों लिखा जाता है और उस तरह उनके लिए क्यों आदर्शसूचक संबोधन नहीं लगाया जाता है, जैसे कि अन्य जातियों के नामों के साथ ‘जी’ यानी सम्मान की भाषा का इस्तेमाल होता है। 

ये दो उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि अंग्रेजी और हिंदी या किसी भी भाषा की पत्रकारिता में बहुजनों के जीवन को लेकर जो दृष्टि हैं, वह समग्रता में नहीं है। अंग्रेजी पत्रकारिता की अपनी एक विरासत है। अंग्रेजी भारतीय समाज की भाषा नहीं है। भारतीय समाज में यूरोपीय दृष्टिकोण के साथ अंग्रेजी में कामकाज करने वाले तैयार किए गए हैं। अंग्रेजी की पत्रकारिता में समाज में वंचना की विचारधारा एक सीमित दायरे में स्वभाविक रूप से गुंथी रही है। जैसे अंग्रेजी के अमेरिकी पत्रकार को ही यह प्रश्न सबसे पहले कौंधा कि भारतीय मीडिया में दलितों की उपस्थिति नहीं है। उन्होंने इस प्रश्न को अंग्रेजी के भारतीय पत्रकार के सामने रखा और भारतीय पत्रकार बी.एन. उनियाल ने इस प्रश्न को लेकर अपने एक संक्षिप्त अध्ययन को विमर्श के लिए प्रस्तुत किया। 

हिंदी की पत्रकारिता में मोटे तौर पर दो तरह की धाराएं मिलती हैं। एक धारा वर्चस्व की संस्कृति की पोषक है और वह अपने जातीय पूर्वाग्रहों के प्रति बेहद सुक्ष्म स्तर पर संवेदनशील और सचेत है। यह उसके स्वभाव का हिस्सा है। वह वंचना के दर्द को महसूस करना और समानता के विचारों को अपने लिए अस्वभाविक मानता है। दूसरी धारा संघर्षशील और परिवर्तनगामी है, लेकिन उसकी सीमा बेहद छोटी है।अक्सर यह धारणा धारा वर्चस्व की धारा के लिए ही गढ़ दी जाती है। 

डॉ. आंबेडकर ने एक ही समूह को राजनैतिक दृष्टि से तो प्रगतिशील लेकिन सामाजिक दृष्टि से प्रतिक्रियावादी के रूप में महसूस किया है। लेकिन भारतीय समाज में भक्ति का भाव गहरे रूप में व्याप्त है। इसीलिए यह भक्ति किसी एक को मसीहा मानना ही अपनी मुक्ति का मार्ग समझती है। वह राजनैतिक तौर पर रणनीतिक होने की प्रक्रिया से गुजरना ही नहीं चाहती है। पत्रकारिता में भी बहुजनों के लिए हिंदी और अंग्रेजी या दूसरी भारतीय भाषाओं के बीच के फर्क को रणनीतिक होकर ही समझा जा सकता है। विभिन्न भाषाओं की पत्रकारिता में बहुजन के विभिन्न पहलूओं को लेकर सहानुभूति तो दिख सकती है लेकिन उनके संगठित होने और वंचना की स्थिति से मुक्ति के लिए संघर्ष को सामाजिक स्तर पर विभाजनकारी के रूप में देखा जाता है।

जो सुधार और प्रगतिशीलता जैसे शब्द हैं, वे खुद में जातीय झुकाव लिए होते हैं। यह वंचितों की हिस्सेदारी की भाषा से निकले शब्द नहीं हैं। इनके संप्रेषण के ढांचे में उदारता और प्रगतिशीलता का सबसे उंचे दर्जे का शब्द जो है, वह सहानुभूति और दया है। वह भी अपने हितों की कीमत पर नहीं। अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए। आदिवासियों के संथाल विद्रोह के बारे में ‘संवाद भास्कर’ (1856) ने विद्रोहियों के खिलाफ सरकार की कार्रवाईयों का समर्थन किया, लेकिन साथ ही समाचार पत्र ने संथालों की मांगो प्रति सहानूभूति होने का संकेत दिया और सरकारी सेना और अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों को कोसा। इसके साथ इस समाचार पत्र ने संथाल विद्रोह के इलाके बीरभूम से आए एक पत्र को भी छापा, जिसमें स्थानीय मजिस्ट्रेट के नेतृत्व में घटित अत्याचार की घटनाओं का विवरण था। लेकिन इसके साथ यह भी उल्लेख मिलता है कि यदि उच्च वर्ण का मजिस्ट्रेट होता तो ये अत्याचार नहीं होते। संथाल विद्रोह के दौरान संप्रेषण का जो ढांचा खड़ा हुआ वह अब तक आदिवासियों को छोड़कर सबके हित की पूर्ति करता रहा है। जब कभी वंचितों की हिस्सेदारी के क्षण आते हैं तो मीडिया सहानुभूति और प्रगतिशीलता की परिभाषा भूल जाता है। ऐसे ही मुख्यधारा के संचार-माध्यमों का ढांचा विकसित किया गया है। 

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