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एकाधिकार और नियंत्रण के बीच मीडिया की छटपटाहट

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एस. चार्वाक

2020 की वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत साल 2019 के 140वें स्थान से भी दो स्थान नीचे खिसक कर 142वें पर पहुंच गया था। आशंका है कि 2021 की सूची में स्थिति और बदतर हो सकती है। मीडिया की स्वतंत्रता के इस हालत में पहुंचने के अनेक पहलू हैं, जैसे कि उसकी आर्थिक निर्भरता किस पर है, उसके आर्थिक स्रोत के राजनीतिक रुझान और संबद्धताएं क्या हैं, पत्रकारिता के काम में लगे लोगों के स्वप्न, आदर्श, मूल्य, नैतिक बल तथा जज्बे का स्तर क्या है, सत्ताओं के शीर्ष पर बैठे लोगों और हर सत्ता से वंचित, आखरी पायदान के लोगों तथा हाशिये से बाहर के लोगों के साथ उनकी संवेदना का स्तर क्या है और एक बेहतर समाज के उनके मानदंड क्या हैं।

गैर-लाभकारी, गैर-सरकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ और दिल्ली की डिजिटल मीडिया कंपनी ‘डाटालीड्स’ के मई 2019 के एक शोध प्रोजेक्ट ‘मीडिया ओनरशिप मॉनिटर (एमओएम)’ ने यह खुलासा किया है कि भारत में हिंदी अखबार पढ़ने वालों में से 76.45 प्रतिशत पाठकों पर केवल चार अखबारों, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला और दैनिक भास्कर का कब्जा है। इसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के पाठकों के बड़े हिस्से पर भी कुछ ही अखबारों की पहुंच सुनिश्चित हो चुकी है।

केवल दो बड़े तमिल अखबारों, ‘डेली थांथी’ और ‘दिनाकरन’ की पहुंच 66.67 प्रतिशत पाठकों तक है तो 71.13 प्रतिशत तेलगु पाठक ‘इनाडु’ और ‘साक्षी’ पढ़ते हैं। बांग्ला, उड़िया, पंजाबी, कन्नड़, उर्दू, गुजराती, मराठी, असमी जैसी अन्य सभी क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों का भी यही हाल है। इसका परिणाम अखबारों की विषय-वस्तु और जनमत पर नियंत्रण के रूप में सामने आया है। भारत का इतना विशाल मीडिया क्षेत्र मात्र चंद शक्तिशाली मालिकों की मुट्ठी में आ गया है और इनमें से अधिकांश मालिकों के स्पष्ट राजनीतिक रुझान हैं, जिसके कारण इस क्षेत्र में एकाधिकार कायम हो चुका है।

भारत का मीडिया क्षेत्र जहां ऊपर से अत्यधिक विधि-विधान संचालित प्रतीत हो सकता है, वहां वास्तविकता यह है कि मालिकान के केंद्रीकरण को रोकने के लिहाज से मौजूदा कानून अत्यधिक बिखरे हुए, असंगत तथा अप्रभावी हैं। इसका एक कारण यह भी है कि टीवी रेटिंग की प्रणाली अत्यंत अपारदर्शी तथा खुद मीडिया उद्योग के नियंत्रण में है। मीडिया के क्षेत्र में स्पष्ट विनियमन न होने का ही परिणाम है कि बीएआरसी (ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल) वह इकलौता संगठन है जिसे खुद इस उद्योग ने तैयार किया है और जो टीवी चैनलों के दर्शकों के बारे में डाटा इकट्ठा करता है और रेटिंग जारी करता है, लेकिन रेटिंग घोटाले की जांच के क्रम में महाराष्ट्र पुलिस द्वारा पेश किए गए बीएआरसी के सीईओ पार्थो दासगुप्ता और रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क के एमडी तथा प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी के 500 पृष्ठों के व्हाट्सअप चैट ने ही इस संगठन की पारदर्शिता के दावों का बंटाधार कर दिया है।

टेलीविजन प्रसारण के क्षेत्र में बीएआरसी के अलावा ‘न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन’ (एनबीए) तथा ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन’ (आईबीएफ) जैसी संस्थाए भी हैं, लेकिन ये डाटा या रेटिंग नहीं तैयार करती हैं। वे अपने सदस्यों की समाचार सामग्री पर नियंत्रण करती हैं, लेकिन मीडिया उद्योग पर बढ़ते जा रहे केंद्रीकरण और एकाधिकार का मामला उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है। यह काम उचित विनियमन के द्वारा सरकार ही कर सकती है, लेकिन इस एकाधिकार से लाभान्वित हो रहा सत्ता प्रतिष्ठान भला ऐसा क्यों करेगा?!

रेडियो ब्रॉडकास्टिंग के क्षेत्र में यूं भी सार्वजनिक क्षेत्र के प्रसारक आकाशवाणी का एकाधिकार कायम है, क्योंकि निजी एफएम चैनलों को केवल संगीत और मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित करने के लाइसेंस मिले हैं। उन्हें अपने स्वयं तैयार किए हुए समाचार बुलेटिन प्रसारित करने की इजाजत नहीं है। इस आत्यंतिक सरकारी नियंत्रण का खामियाजा यह है कि भारत के जिस ऐतिहासिक किसान आंदोलन की खबरें पूरी दुनिया की मीडिया में छाई हुई हैं, उससे आकाशवाणी और दूरदर्शन ने शर्मनाक तरीके से आंखें मूंद रखी हैं।

सरकारी मीडिया तो सरकारी है ही, लेकिन इसके अलावा भी तमाम सत्तापोषित मीडिया चैनलों का भी रुख किसान आंदोलन के प्रति बेहद पक्षपातपूर्ण रहा है। शुरू से ही ये चैनल ऐसा लगता था जैसे सत्ताधारी पार्टी की आईटी सेल से प्राप्त कचरे से ही अपने समाचार तैयार करते रहे। ये चैनल भी उसी भाषा में पहले तो इस आंदोलन को किसान आंदोलन मानने से ही इनकार करते रहे, किसानों को बिचौलिए बताते रहे, फिर खालिस्तानी बताते रहे और फिर महज कुछ लोगों का आंदोलन बताते रहे, लेकिन जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा इलाकों से किसानों के जत्थे आंदोलन में शामिल होने लगे और खुद सरकार इनके साथ वार्ताओं के दौर चलाने लगी तो मन मसोस कर इन चैनलों ने अपने स्वर मद्धिम कर लिए और उन्हें किसान कहने लगे।

मीडिया का यह हिस्सा 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई गड़बड़ियों की सूचनाओं के साथ ही अपनी पुरानी बेशर्मियों पर फिर से उतर आया। उसने शांतिपूर्ण और संयमित तथा दिए गए रूट और प्लान के हिसाब से प्रदर्शन कर रहे किसानों की खबरों को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए खुद को केवल हिंसा की खबरों तक सीमित कर लिया।

जिस तरह से इतने लंबे अरसे से शांति और संयम से अपनी मांगें रख रहे किसानों के समक्ष सरकार नैतिक बल से हीन महसूस करने लगी थी, वही हाल इन चैनलों का भी हो गया था, लेकिन हिंसा की इन खबरों को पाते ही सरकार के साथ ही इनकी मुरझाती हुई उम्मीदें भी फिर से लहलहाने लगीं। इनके संवाददाताओं से लेकर स्टूडियो के एंकर तक फिर से गला फाड़कर चीखने लगे और हाय-हाय करते हुए किसानों को बलवाई, उपद्रवी, आतंकी और चोर-डाकू जैसे विशेषणों से नवाजने लगे।

अब कोई भी किसानों के धैर्य की बात नहीं कर रहा था, लॉकडाउन के बीच अध्यादेश के जरिये इन कृषि कानूनों को लाने के पीछे सरकार की मंशा की तलाश नहीं कर रहा था, जिनके फायदे के लिए इन कानूनों को लाए जाने की बात की जा रही थी, इतनी बड़ी संख्या में खुद उन लोगों के विरोध के बावजूद सरकार के इतने अड़ियल, अहंकारपूर्ण और निर्मम रवैये की बात कोई नहीं कर रहा था। सभी किसानों को पेशेवर अपराधियों की तरह चित्रित करने लगे। भारतीय मीडिया के इस पतन के पीछे इनके मालिकों और राजनीतिक सत्ता के बीच की दुरभिसंधि ही मुख्यत: जिम्मेदार है।

दरअसल अधिकांश अग्रणी मीडिया कंपनियों का मालिकाना बड़े-बड़े कंपनी समूहों के पास है, लेकिन इनको स्थापित करने वाली कंपनियां ही अभी भी इन्हें नियंत्रित करती हैं, हलांकि ये कंपनियां मीडिया के अलावा भी अनेकानेक उद्योग-धंधे चलाती हैं। इन मीडिया घरानों ने मिलजुल कर या तो वास्तविक फायदा उठाने वाले मालिकान की स्थिति पर परदा डालने के लिए, अथवा कतिपय कानूनों को गच्चा देने के लिए, अथवा दोनों के ही लिए भारी मात्रा में एक-दूसरे के शेयरों की खरीद करके एक जटिल तानाबाना बुन रखा है।

ज्यादातर मीडिया कंपनियों के व्यावसायिक तथा राजनीतिक संबंध हैं और ये संबंध क्षेत्रीय भाषायी मीडिया में तो और भी साफ-साफ दिखते हैं, इससे मीडिया की स्वतंत्रता और भारत में संघीयता तथा बहुलवाद की भावना को काफी नुकसान पहुंच चुका है। किसी भी देश में मीडिया पर मालिकान की जानकारी के मामले में पारदर्शिता मीडिया की विश्वसनीयता तथा दर्शकों-पाठकों के साथ उसके रिश्ते के लिहाज से काफी अहम तत्व है।

क्या सामग्री प्रकाशित और प्रसारित हो तथा पाठकों और दर्शकों तक किस रूप में और किस तरह पहुंचाई जाए इस पर निरंतर एकाधिकार तथा नियंत्रण बढ़ते जाने के कारण क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं के अखबारों और चैनलों का स्वतंत्र अस्तित्व लगभग खत्म हो चुका है। लगभग सभी बड़े अखबारों और चैनलों के ही क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं के संस्करण और चैनल प्रकाशित तथा प्रसारित होने के कारण यह नियंत्रण और आसान हो गया है।

इसकी वजह से मालिकों तथा उनके राजनीतिक आकाओं के जीहुजूरिये संपादकों, पत्रकारों तथा संवाददाताओं ने स्वतंत्रचेता और मतांतर रखने वाले लोगों को लगभग पूरी तरह से विस्थापित कर दिया है और मुख्यधारा की मीडिया में उनके लिए लगभग कोई जगह नहीं छोड़ी है। एक ही मालिक के तहत अनेक अखबारों और चैनलों के आ जाने तथा राजनीतिक रुझान पर आधारित अनेक मालिकों की गुटबंदी के कारण ऐसे लोग अगर एक अखबार या चैनल छोड़ते हैं या वहां से निकाले जाते हैं तो उनके पास लगभग सभी अन्य विकल्प अपने आप समाप्त हो जाते हैं।

इस स्थिति ने मुख्यधारा की पत्रकारिता के लिहाज से लोकतांत्रिक दायरे को समाप्त कर दिया है। इस नियंत्रण को 2018 में ‘एबीपी’ चैनल से उसके प्रधान संपादक मिलिंद खांडेकर तथा ‘मास्टर स्ट्रोक’ वाले वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और बाद में अभिसार शर्मा को निकाले जाने के प्रकरण ने साफ-साफ दिखा दिया, लेकिन ऐसा नहीं है कि यह मामला कोई अपवाद था, बल्कि आज ऐसे दबावों से मुक्त होकर काम करने की स्वतंत्रता ही एक अपवाद है।

जो लोग नहीं निकाले जा रहे हैं, वे भी निरंतर इन दबावों तले काम करने को मजबूर रहते हैं और इनमें से बहुतों के शुरुआती आदर्श घुट-घुट कर कुछ ही वर्षों में अवसरवाद का रूप ले लेते हैं। बहुत सारे ऐसे मामले और अनुभव प्रकाश में आए हैं, जिनमें संपादकों को सीधे सत्ताधारी पार्टी के मुखिया के फोन आए कि विपक्ष की फलां प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं कवर करनी है, फलां स्टोरी नहीं करनी है या कि फलां की छुट्टी कर देनी है।

सरकारों द्वारा अखबारों तथा चैनलों को अपने काबू में रखने का एक तरीक़ा है, उन्हें सरकारी अथवा गैर-सरकारी विज्ञापनों को देकर या न देकर उन्हें आर्थिक तौर पर पुरस्कृत करना अथवा दंडित करना। इस आर्थिक निर्भरता की वजह से सरकार के या व्यावसायिक घरानों के सुर में सुर मिलाना मीडिया की विवशता हो गई है, लेकिन सरकारी नीतियों के निरंतर बढ़ते जा रहे कॉरपोरेट-परस्त रुझानों के वर्तमान दौर में ये दोनों अलग-अलग विकल्प नहीं रह गए हैं।

आप कौन सा माध्यम, चैनल, अखबार या वेबसाइट देख-पढ़-सुन रहे हैं, उसी से तय हो जाता है कि आप किस तरह सोचते हैं। हमारी चेतना को इन माध्यमों ने अपना उपनिवेश बना लिया है। इस वजह से मीडिया पर मालिकाने का सवाल दरअसल हमारी चेतना पर मालिकाने के सवाल बन जाता है। जिस अनुपात में राजनीतिक सत्ता का केंद्रीकरण हुआ है उसी अनुपात में समाज के सभी क्षेत्रों से लोकतंत्र सिकुड़ता गया है और हम एक निरंकुश राज्य में तब्दील होते गए हैं और इस प्रक्रिया में नेरेटिव सेट करने तथा जनमत के निर्माण में मीडिया पर नियंत्रण का भरपूर इस्तेमाल किया गया है।

पहले से ही कमजोर विपक्ष को बिल्कुल नाचीज बना दिया गया है। जिस मीडिया को कभी सत्ता से सवाल पूछने के लिए जाना जाता था वह आज विपक्ष से सवाल पूछता है और सत्ता की धुन पर नाच रहा है। वह मीडिया सत्ता से सवाल पूछने वालों पर शिकारी कुत्तों की तरह टूट पड़ता है और ऐसा करने वालों को देशद्रोही साबित करता है और मुड़कर दुम हिलाते हुए अपने राजनीतिक आका की ओर निहारते हुए पारितोषिक का इंतजार करता है।

आखिर हमारी मीडिया ऐसी हालत में क्यों और कैसे पहुंची है? समाज, उसका नेतृत्व और उसकी संस्थाएं एक-दूसरे से प्रभावित होते रहते हैं और एक-दूसरे के अनुरूप रूपाकार ग्रहण करते हैं। पूंजीवाद का मूल तत्व मुनाफा होता है, इसीलिए पूंजीवादी संस्कृति लोभ-लालच पर टिकी होती है और उसी का पोषण और प्रसार भी करती है। ऐसी संस्कृति समाज में या राजनीति में उच्चादर्शों की स्थापना का काम नहीं कर सकती। जब बेहतर समाज के निर्माण के स्वप्न से पतित होकर आज का प्रभावी राजनीतिक मूल्य येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाना बन चुका है तो हम अपनी मीडिया से किस आदर्श की उम्मीद कर सकते हैं?

हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जिसमें जातीय भेदभाव, सांप्रदायिक कटुता, लैंगिक उत्पीड़न के खात्मे की लड़ाई को पथ भ्रष्ट करके इन भेदभावों को सत्ता की सीढ़ी बना लिया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन के साथ अन्य सभी प्राकृतिक संसाधनों पर कॉरपोरेट कब्जे के रास्ते में रुकावट बनने वाले सभी समुदायों की बेदखली और उजाड़ने में देश की सारी ताकत झोंक दी जा रही है। खेती के कॉरपोरेट चंगुल में फंसने के कारण लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

जनता की गाढ़ी कमाई बड़े लुटेरे बैंकों से हड़प कर मिनटों में चंपत हो जा रहे हैं। हवा, नदियों और भूगर्भ-जल, सब कुछ को मुनाफे की हवस जहरीला बनाती जा रही है। धरती का तापमान बढ़ रहा है, पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जलवायु संकट फसल-चक्र को प्रभावित करके खाद्यान्न संकट को आसन्न बना रहा है। फिर भी समाज को विज्ञान के रास्ते से अज्ञान की ओर, एक बेहतर भविष्य की जगह किसी काल्पनिक अतीत की ओर और तर्क की जगह अंधविश्वास की ओर ले जाया जा रहा है।

ऐसे समाज का मीडिया कैसा होगा? एक निरंतर धनलोलुप और सरोकारविहीन बनाए जा रहे समाज का मीडिया इससे इतर कैसे हो सकता है? ऐसी मीडिया का एंकर अगर अपने चैनल की रेटिंग के लिए एक अभिनेत्री को चुड़ैल और बंगाल का काला जादू करने वाली जादूगरनी साबित करने के लिए और एक अभिनेता की आत्महत्या को विपक्षी नेताओं द्वारा की गई हत्या के चश्मदीद की तरह गला फाड़ कर चीखता है तो इसमें आश्चर्य कैसा?

जब राजनीतिक सत्ताएं समाज से हर तरह के न्यायबोध के खात्मे के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हों तो दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों जैसे कमजोर के पक्ष में खड़ा होने का नैतिक बल मीडिया में कहां से आएगा? जब न्याय-तंत्र तक भविष्य में हड्डी पाने की जुगत में ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ बोलने लगे और उसकी सड़ांध को छिपाना मुश्किल हो जाए तो फिर मीडिया किस खेत की मूली है?

सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन, शाहीन बाग आंदोलन, दिल्ली दंगों, हाथरस और बदायूं गैंगरेप, तबलीगी जमात जैसे अनगिनत मामलों की एकतरफा, सांप्रदयिक और सवर्णवादी नफरती रिपोर्टिंग में सिर्फ मीडिया नहीं बेनकाब हुआ है बल्कि हमारा पूरा समाज बेनकाब हुआ है। क्या मीडिया, खास करके राजनीतिक पार्टियों का आईटी सेल से संचालित हो रही सोशल मीडिया में दिख रही फर्जी राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक तथा सवर्णवादी-जातिवादी पूर्वाग्रहों की बजबजाहट और बदबू हमारे समाज की ही बदबू नहीं है?

ऐसा नहीं है कि वास्तविक पत्रकारिता की चाहत रखने वाले लोग बिल्कुल नहीं हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश लोगों के पास मीडिया-मोनोपोली के बरअक्स कोई स्पेस नहीं है। किंतु यह भी तय है कि मोनोपोली के विरुद्ध कोई लड़ाई मोनोपोली की छत्रछाया में बैठकर नहीं लड़ी जा सकती। प्रिंट और टीवी माध्यमों में ज्यादा निवेश की समस्या तो है, फिर भी डिजिटल माध्यमों और सोशल मीडिया ने विकल्पों के नए रास्ते भी खोले हैं। इन माध्यमों पर काम करने वाले पत्रकारों को पढ़ने-देखने-सुनने वालों की संख्या करोड़ों में पहुंच गई है और बढ़ती भी जा रही है।

यह काम बहुत कम संसाधनों के साथ भी किया जा सकता है और इनके लिए किसी भव्य कॉरपोरेट ऑफिस की मजबूरी भी नहीं है। परंपरागत माध्यमों से बड़ी संख्या में दर्शकों-पाठकों के दूर हो जाने के दबाव में ही बहुत सारे स्थापित बड़े व्यावसायिक अखबार तक डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आने को मजबूर हुए हैं। इसी तरह से बड़े पूंजी निवेश की विवशता के विकल्प के तौर पर चंदा, यानि सब्स्क्रिप्शन आधारित पत्रकारिता की ओर बढ़े रुझानों ने आर्थिक लोकतांत्रिकता की शुरुआत कर दी है।

स्थापित मीडिया घरानों और कुछ पार्टियों के आईटी सेल का जवाब देने के लिए वर्तमान किसान आंदोलन में किसानों के बीच से तीन भाषाओं में छप रहे अखबार ‘ट्रॉली टाइम्स’ ने दिखा दिया है कि जनांदोलनों की ऊर्जा अपने साथ नए रास्ते, नए मुहावरे और नए रूपाकार भी गढ़ती है। एक बात तो तय होती जा रही है कि पत्रकारों-संवाददाताओं को भी अगर जनपक्षधर पत्रकारिता करनी है तो उन्हें जन के बीच रहना और जन पर ही भरोसा भी करना होगा। एकाधिकार के चंगुल से मीडिया को आजाद कराने और उसे लोकतांत्रिक बनाने का संघर्ष दरअसल समाज के सभी क्षेत्रों में लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष का ही अविभाज्य हिस्सा है।

( एस. चार्वाक लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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