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पराविज्ञान कथा : भैरवी रोहिणी से मिलन

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डॉ. विकास मानव

     _ध्यान'तंत्र' की साधना-भूमि में भैरवी का महत्वपूर्ण स्थान है। बिना भैरवी के हठयोगी साधक अपने साधना-मार्ग में निर्विघ्न सफल हो ही नहीं सकता। इसके अनेक कारण हैं। सच बात तो यह है कि पूरा तंत्र-शास्त्र काम-शास्त्र पर  आधारित है, इसलिए कि चार पुरुषार्थो में तीसरा पुरुषार्थ 'काम' है। 'काम' सिद्ध होने पर ही चौथा पुरषार्थ 'मोक्ष' उपलब्ध हो सकता है।_
   काम की मूलशक्ति साक्षात स्त्रीस्वरूपा है और वह पुरुष के मूलाधार चक्र में (कुण्डलिनी-शक्ति के रूप में विद्यमान है। वह प्राकृतिक है, स्वयंभू है इसीलिए तांत्रिक साधना-भूमि में स्त्री का विशेष महत्व है।

स्त्री के दो रूप हैं- भोग्या और पूज्या। भोग्या रूप इस अर्थ में है कि स्त्री में जो नैसर्गिक शक्ति है जिसे हम ‘काम की मूल शक्ति’ भी कह सकते हैं, वह साधना- भूमि में साधक के लिए आन्तरिक रूप से उपयोगी सिद्ध होती है।
उसी के आधार पर साधना में सफलता प्राप्त करता है साधक और अन्त में प्राप्त करता है उच्च अवस्था को भी।
स्त्री में उसकी नैसर्गिक शक्ति को जागृत करना और उसे ‘नियोजित’ करना अत्यन्त कठिन कार्य है। यह गुह्य कार्य है और इसके सम्पन्न होने पर विशेष तांत्रिक क्रियाओं का आश्रय लेकर स्त्री को भैरवी दीक्षा प्रदान की जाती है जिसके फलस्वरूप भैरवी में ‘मातृत्व का भाव’ उदय होता है।

   तन्त्र-भूमि में 'मातृत्व भाव' बहुत ही महत्वपूर्ण है। तंत्र-साधना के जितने गुह्य और गंभीर अनुभव हैं, उनमें एक यह भी अनुभव है कि विशेष तांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा पूज्यभाव से साधक अपने सामने पूर्ण नग्न स्त्री को यदि देख लेता है तो वह सदैव-सदैव के लिए स्त्री और स्त्री के आकर्षण से मुक्त हो जाता है।
  _संसार में तीन सबसे बड़े आकर्षण हैं-- धन का आकर्षण, लोक का आकर्षण और स्त्री का आकर्षण। इन्हें 'वित्तैषणा','लोकैषणा' और 'दारैषणा' भी कहा जाता है। दारैषणा का आकर्षण सबसे बड़ा होता है क्योंकि उसके मूल में कामवासना होती है जिसके संस्कार-बीज जन्म-जन्मान्तर से आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं।_
    स्त्री के आकर्षण से मुक्त होने के बाद स्त्री साधक के लिए माँ के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहती। यहाँ यह भी बतला देना आवश्यक है कि इसी तांत्रिक प्रक्रिया द्वारा यदि स्त्री पुरुष को पूर्ण नग्न देख ले तो वह भी सदैव के लिए पुरुष और उसके आकर्षण से मुक्त हो जाती है।
   यह कार्य तभी संभव है जब स्त्री-पुरुष एक दूसरे को सम्पूर्ण रूप से नग्न देखते समय एक विशेष तांत्रिक प्रक्रिया से गुजरते हैं, साधारण रूप से नग्न देखते समय नहीं, क्योंकि उस समय तो कामवासना और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
 आज तंत्र-साधना केंद्रों पर यही कुछ हो रहा है। वह अनुकरण परम्परा का तो कर रहे हैं लेकिन वह विशेष तांत्रिक प्रक्रिया को नहीं जानते. फलस्वरूप ये केंद्र ऐय्यासी के अड्डे बन गए हैं।
  _यह एक वैज्ञानिक तथ्य भी है। जैसे तंत्र-शास्त्र काम-शास्त्र पर आधारित है उसी प्रकार काम-शास्त्र भी मनोविज्ञान पर आश्रित है।_

महाभैरवी रोहणी से सम्पर्क
मेरे सामने उस समय दो समस्याएं थीं जो अपने आप में विकट थीं। पहली तो थी– शिवेंद्र सरस्वती की नर्क से मुक्ति कैसे हो ? दूसरी थी–त्रैलोक्य मीमांसा का रहस्योद्घाटन।
दोनों ही असम्भ-सी प्रतीत हो रही थीं मुझे। मेरे प्रेरक कविराजजी ने कहा था–कवीन्द्राचार्य सरस्वती की आत्मा स्वयं किसी-न-किसी समय सम्पर्क स्थापित करेगी। लेकिन मुझको ऐसा नहीं दिखलाई दे रहा था।

  शिवेंद्र सरस्वती ने जो मरणोपरांत अवस्था की पीड़ादायक कथा सुनायी थी, उसने मेरी आत्मा में पारलौकिक जगत और लोक-लोकान्तरों के प्रति असीम कौतूहल उत्पन्न कर दिया था। निश्चय ही कवीन्द्राचार्य ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक त्रैलोक्य मीमांसा में लोक-लोकान्तरों के वर्णन करने के साथ-ही-साथ उनमें रहने वाले मानवेतर प्राणियों का अपने अनुभव के आधार पर वर्णन अवश्य किया होगा--इसमें सन्देह नहीं।

काश ! उस दुर्लभ पुस्तक का दुर्लभ विषय किसी प्रकार हो जाता अनावृत !
गालों पर हाथ धरे चुपचाप अपने कमरे में बैठा यही सब सोच रहा था। सांझ की स्याही न जाने कब रात्रि के अंधकार में बदल गयी थी. पता नहीं कब मां कमरे में आयी और बत्ती जलाते हुए बोली–कब से अंधेरे में बैठे हो तुम–कुछ सुध भी है अपनी ?

  मेरी आंतरिक स्थिति क्या है ? मैं किस विषय पर अधिक चिन्तन-मनन करता हूँ और मेरा उद्देश्य क्या है--इन प्रश्नों का उत्तर उसके पास था।
    मेरे समक्ष बैठते हुए बोली--मैं जानती हूं और समझती भी हूँ कि तुम आत्माओं और लोक-परलोक के चक्कर में इतनी दूर चले जाओगे जहां से वापस लौटना बड़ा मुश्किल होगा तुम्हारे लिए। मैं तो बस यही कहूँगी कि जो जीवन मिला है, उसे अच्छी तरह जीओ, जो शरीर मिला है, उसका उपयोग करो। जीवन में समय को अकारण नष्ट नहीं करना चाहिए। उसके सदुपयोग का बराबर ध्यान रखना चाहिए।
 रात हो गयी है, भोजन कर लो. तुम को तो अपनी सुध-बुध ही नहीं रहती। हर समय बस खोये-खोये-से रहते हो। कैसे चलेगी तुम्हारी दुनियाँ ...?

  मैंने सिर उठाकर माँ की ओर देखा और एक आज्ञाकारी बालक की तरह भोजन करने बैठ गया। भोजन करते-करते सोचने लगा- माँ का कहना अपने स्थान पर उचित है--इसमें सन्देह नहीं। लेकिन~
_मेरी अन्तरात्मा ने कहा--नहीं, तुम समय को बर्बाद नहीं कर रहे हो। ऐसा तुमसे हो ही नहीं सकता। माँ तुम्हारे आंतरिक स्वरूप से तो परिचित है नहीं। वह तो तुम्हें पुत्र के  रूप में जानती है, इसके अलावा और कुछ नहीं।_

  सांझ का समय। लालीघाट की धूल से अटी टूटी-फूटी सीढियों पर गाल पर हाथ धरे चुपचाप बैठा सोच रहा था--अभौतिक सत्ता की खोज की अदम्य जिज्ञासाओं ने मुझे एक ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया था, जहां अपने आप में एक असीम एकाकीपन का गहरा अनुभव कर रही थी मेरी आत्मा।
 मेरे जीवन में एक गहरे शून्य के अलावा और कुछ भी नहीं रह गया था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ? सिर घूम गया।
   बगल के श्मशान में कई चिताएं आ गयी थीं धू-धूकर जलने के लिए। अपलक निहारता रहा न जाने मैं कब तक और तभी शान्त, नीरव, निस्तब्ध वातावरण में अचानक एक सुपरिचित गन्ध बिखर गई।
 समझते देर न लगी- अपने युग के भयंकर कापालिक की महाभैरवी रोहिणी की गन्ध थी वह. जब कभी मैं इस तरह किसी विकट मानसिक स्थिति में अपने आपको पाता हूँ तो अपने आप चिरयौवन सम्पन्न कालंजयी विदेही आत्मा का आभास होने लग जाता है मुझे वातावरण में और फिर धीरे-धीरे वह आकार ग्रहण करने लग जाता है जो बाद में रोहिणी के रूप में प्रकट होता है मेरे सामने।
   उस दिन भी ऐसा ही हुआ। मुझे गालों पर हाथ धरे चुपचाप बैठे देखकर मुस्करायी रोहिणी और फिर बोली--

ऐसे काम नहीं चलेगा. समझे न प्रियवर? इसी प्रकार एक-एक क्षण सोचने-विचारने में ही निकल गया तो अन्त में पश्चाताप के सिवाय और कुछ हाथ न लगेगा।
क्या करूँ ? कुछ समझ में नहीं आ रहा। आरम्भ से लेकर अब तक आप तो जानती ही हैं जितनी भी अभौतिक घटनाएं मेरे जीवन में घटी हैं, उन्होंने विदेही, अशरीरी और दिव्यात्माओं को जानने-समझने और उनके गुण-धर्म से भली-भाँति परिचित होने के लिए मेरी आत्मा को विवश कर दिया है। विह्वल हो उठी है वह–हतास और उदास स्वर में बोल गया मैं आकाश की ओर शून्य में देखते हुए।

  मेरी बात सुनकर हंसी एक बार खिलखिला कर और फिर एक लम्बी सांस लेकर बोली रोहिणी--

वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद–सब आज के युग में लोगों के कंठ की सीमा तक ही हैं। अहंकार उसके नीचे उतरने ही नहीं देता। जो आध्यात्मिक सत्य है, वह हृदय में है और हृदय में प्रवेश करने पर ही सत्य का ज्ञान होता है।
यथासमय वही ज्ञान प्रज्ञा के माध्यम से प्रकट होता है और वाणी का रूप ग्रहण कर लेता है। ज्ञान में सत्य की केवल झलक मिलती है, उसका साक्षात्कार नहीं होता, साक्षात्कार होता है प्रज्ञा के माध्यम से आत्मा में
थोड़ा रुककर महाभैरवी आगे बोली–
तुम क्या चाहते हो ? तुम्हारी आत्मा की प्यास क्या है ? क्यों आकुल है तुम्हारी आत्मा ?–सब कुछ जानती-समझती हूं मैं। कुछ भी छिपा नहीं है मुझसे।
त्रैलोक्य मीमांसा के रहस्योद्घाटन की समस्या हल होगी। कवीन्द्राचार्य सरस्वती की आत्मा किसी उच्च लोक में है। वे स्वयं समयानुसार तुमसे संपर्क करेंगे।
कवीन्द्राचार्य सरस्वती की आत्मा किसी उच्चलोक में है। वह समयानुसार तुमसे सम्पर्क करेंगे.
कापालिक महाभैरवी रोहिणी की यह बात सुनकर अवाक रह गया मैं। आश्चर्य हुआ–कैसे जान गई यह महाभैरवी कवीन्द्राचार्य के सम्बंध में ?

  भौतिक स्तर पर जो ज्ञान उपलब्ध है, उसमें तुम्हारी कोई रुचि नहीं है. रोहिणी मेरी ओर स्थिर दृष्टि से देखती हुई आगे बोली-

तुम उन लोगों से साक्षात्कार करना चाहते हो और उन लोगों से सम्पर्क स्थापित करना चाहते हो जो प्रज्ञावान हैं। तुमको ज्ञात होना चाहिए कि कवीन्द्राचार्य जैसी न जाने कितनी विदेही आत्माएं ऐसे योग्य व्यक्ति की खोज में रहती हैं जो उनके ज्ञान को आत्मसात कर सकें और प्रकट कर सकें संसार के सामने। यही नहीं, ऐसी भी उच्चकोटि की दिव्य आत्माएं हैं जो मानवेतर शक्तिसम्पन्न हैं और श्रेष्ठ हैं ज्ञान-विज्ञान में भी। अपने-अपने विषयानुसार अपनी मण्डली हैं। कभी-कदा आवश्यकता पड़ने पर मानव शरीर भी धारण कर लेती हैं लेकिन उनको साधारण लोग पहचान नहीं पाते और न तो समझ ही पाते हैं।

  महाभैरवी कुछ क्षण  के लिए मौन रही और फिर अपनी आदत के अनुसार मुस्कराते हुए बोली--बस, तुम यही चाहते थे न ? सम्पर्क ! साक्षात्कार और रहस्यमयी उपलब्धियां..?
 .हाँ ! हाँ ! यही सब चाहता था मैं--प्रसन्न भाव से उत्तर दिया मैंने।
  देखो, तुम्हारे बगल में हनुमान घाट है। उसी मुहल्ले में पण्डित सुब्रमण्यम शास्त्री रहते हैँ। उनकी आत्मा योगमण्डली से सम्बंधित है। मैं अच्छी तरह जानती हूँ। उच्चकोटि के योगसिद्धि हैं पण्डित सुब्रमण्यम शास्त्री। प्रकट में विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ाकर जीविका चलाते हैं। गुप्तभाव से रहते है। अपनी वास्तविकता प्रकट होने नहीं देते इस दिशा में वह मार्गदर्शन करेंगे तुम्हारा। जाकर मिलो।
  यह सब तो ठीक है। मैं अवश्य दर्शन करूँगा पण्डित सुब्रमण्यम शास्त्री का लेकिन एक विकट समस्या और है, वह यह कि उनके परम् शिष्य शिवेंद्र सरस्वती नरकगामी हो गए हैं। पिछले दो सौ वर्षों से नरक की भयंकर यातना सहन कर रहे हैं महाशय। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्होंने अपने उद्धार की याचना की है, जबकि नरक से मुक्त होने के लिए कोई मार्ग नहीं है और न तो है कोई उपाय ही। अब आप ही बतलाइये क्या करूँ मैं ? मुझे उनका कष्ट देखा नहीं गया। कातर स्वर में अपने उद्धार की जो याचना की थी मुझसे उसे तो भूल ही नहीं सकता मैं। आप ही इस विकट समस्या को हल कर सकती हैं।

  मेरी बात सुनकर वह महाभैरवी रोहिणी कुछ क्षण तक न जाने क्या सोचती रही फिर बोली--
_सूक्ष्म जगत में तो भ्रमण करते हो और न जाने कितनी विदेही आत्माओं से मिल भी चुके हो अब तक तुम।_
  यह सुनकर अवाक रह गया मैं। आश्चर्य से रोहिणी की ओर देखकर बोला--यह सब भी तुम जान गई हो ?
  _मैं नहीं जानूँगी तो भला और कौन जानेगा ? तुमको मालूम भी है कुछ ! कापालिक युग से तेरे पीछे-पीछे घूम रही हूँ। इतने जन्मों से जो इतना आगे बढ़ता जा रहा है और करता जा रहा है उन्नति। उसके पीछे कौन है ? कभी सोचा है तूने ? हर मोड़ पर, हर विकट परिस्थिति में सहायता की मैंने तेरी। इसे भी जानने-समझने का प्रयास किया है तूने कभी ?_
  मैं मुँह बाये अवाक सुनता रहा। कुछ बोला न गया, कुछ कहा भी न गया मुझसे। पिछले जन्मों की बात तो नहीं जानता लेकिन इस जन्म में रोहिणी का पग-पग पर सहयोग न मिला होता तो जटिल-से-जटिल समस्याएं हल न कर पाता आध्यात्मिक जगत की--इसमें संदेह नहीं।

  सूक्ष्म जगत में एक उच्चकोटि के दिव्य पुरुष रहते हैं। योग्य गर्भ न मिलने के कारण पिछले चार सौ वर्षों से वहां निवास कर रहे हैं। उनका नाम है--नारायण भट्ट। नारायण भट्ट सोलहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान योगी और साधक थे। राम उनके इष्ट थे और अपने इष्ट के आग्रह पर 12 वर्ष की दीर्घकालीन अनावृष्टि दूर की थी उन्होंने जिससे प्रभावित होकर मुग़ल सम्राट काशी विश्वनाथ मन्दिर के तोड़े गए भाग के पुनर्निर्माण की अनुमति दी थी उन्हें।
  मन्दिर का वह भाग यवनों के अत्याचार के कारण भग्न हुआ था। मरणोपरांत जीवात्मा की क्या गति होती है, उसका उद्धार कैसे हो सकता है और उसको सद्गति कैसे प्राप्त हो सकती है ?
  इन सबके प्रकाण्ड ज्ञाता थे नारायण भट्ट। इन विषयों पर अपने अनुभवों का आश्रय लेकर नारायण भट्ट ने धर्मशास्त्र के आधार पर प्रयोगरत्न, धर्मप्रवृत्ति, जीवशास्त्र प्रयोग, अन्त्येष्टि पद्धति, उत्सर्ग पद्धति, श्राद्ध पद्धति आदि कई ग्रन्थों की रचना की थी।
 तुम जब भी सूक्ष्म जगत की यात्रा पर निकलो तो उस महान विद्वान और अनुभवी लेखक से अवश्य मिलना। मुझे विश्वास है कि उनके दर्शन से तुमको बौद्धिक और आध्यात्मिक लाभ तो मिलेगा ही, इसके अतिरिक्त शिवेंद्र सरस्वती की समस्या भी हल हो जाएगी.  मुझे पूर्ण विश्वास है।

इतना सब कुछ बतलाकर वह महान योगिनी विलीन हो गयी शून्यमण्डल में.🌀

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