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महाघोटाला इलेक्टोरल बॉण्ड : इस सुधारवाद(?) पर मर गई पत्रकारिता 

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      प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता 

यह सत्ता सबकुछ सुधारवाद के नाम पर करती है, विकास के नाम पर करती है. 

    पूँजीपतियों से चन्दे वसूलकर बदले में उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पहुँचाने का कुत्सित फ़ासीवादी षड्यंत्र : चन्दा दो, मुनाफ़ा लो. रामनाम और धर्मध्वजा के पीछे मोदी सरकार को यही कुकर्म तो छिपाने हैं.

इलेक्टोरल बॉण्ड महाघोटाले के बारे में अन्देशा तो हम सभी को था, मगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जब स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया ने इलेक्टोरल बॉण्डों के ज़रिये चुनावबाज़ पार्टियों को हज़ारों करोड़ रुपये (2018 से कुल क़रीब 220000000000 रुपये, या 22 हज़ार करोड़ रुपये!) का चन्दा देने वाली कम्पनियों के नाम उजागर किये, तो इसके पीछे चल रहा महाषड्यंत्र और महाघपला दुनिया के सामने उजागर होना शुरू हो गया है। 

     इसे समझना मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए बहुत ज़रूरी है। अव्वलन तो इसलिए कि यह सारा धन उन्हीं की मेहनत से पैदा होने वाले मुनाफ़े को निचोड़कर पूँजीपतियों ने इकट्ठा किया है। और दूसरा इसलिए कि वह जान पाएँ कि रामनामी दुपट्टा ओढ़े, “मन्दिर-मन्दिर” चिल्लाते, और “नैतिकता” और “चाल-चेहरा-चरित्र” की डुगडुगी बजाते घूम रहे मोदी-शाह, भाजपा और संघ परिवार की असलियत क्या है। 

      यह एक विशालकाय फ़ासीवादी फिरौती गिरोह है। यह अनायास नहीं है कि गुजरात कोर्ट ने अमित शाह को तड़ीपार घोषित करते हुए सबसे बड़ा फिरौती गिरोह चलाने वाला बोला था। अब यही फिरौती रैकेट पूरे देश में सरकारी माध्यमों से काम कर रहा है। कैसे? आइये समझते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सूचना छिपाने का बार-बार प्रयास करने और बार-बार डाँट खाने के बाद मोदी सरकार के इशारों पर काम करने वाले स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया को कुछ सूचनाएँ उजागर करनी पड़ी हैं। अभी भी वह सूचनाएँ उजागर करने की प्रक्रिया में लगातार किसी न किसी बहाने से देर कर रहा है। लेकिन उसे उजागर करनी पड़ रही है। 

     मोदी के ही इशारों पर काम करने वाला चुनाव आयोग भी इस देरी को अंजाम देने में पूरा साथ दे रहा है। 1 अप्रैल 2019 से 15 फरवरी 2024 तक ख़रीदे गये चुनावी बॉण्डों की सूचना एस.बी.आई. ने जारी की है जिसके अनुसार इस अवधि में कुल 12,516 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे गये और इसके ज़रिये चुनावी पार्टियों को चन्दा दिया गया। इसका आधा अकेले रामभक्त मोदी जी और उनके हनुमान अमित शाह की पार्टी भाजपा को गया है!

       देश में कुल 16 लाख पंजीकृत कम्पनियाँ हैं, जिनमें से केवल 1300 ने चुनावी बॉण्ड ख़रीदे। इनमें से भी 30 सबसे अमीर कम्पनियों ने लगभग 90 प्रतिशत कीमत के बॉण्ड ख़रीदे।

      सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला कैसे दिया? सबसे पहले इसलिए कि यह योजना इतना नंगा भ्रष्टाचार है कि इसे अनन्त काल तक छिपाना ही असम्भव था। इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की ख़ासियत यह है कि पूँजीवादी जनवाद के खोल को बरक़रार रखा जाता है। इसके साथ ही कुछ अन्तरविरोध भी पैदा होते हैं। फ़ासीवादी उभार जर्मनी व इटली के उदाहरणों के समान अब एकाश्मी व सजातीय नहीं होता, बल्कि उसमें गैप होते हैं। लेकिन इससे इसके ख़तरनाक चरित्र और ताक़त में कोई विशेष कमी नहीं आती क्योंकि उभार के लम्बे दौर के कारण इसकी समाज में पकड़ भी गहरी होती है। 

      यह एक ऐसी चीज़ है जो 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध की फ़ासीवादी सत्ताओं के पास नहीं थी। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदार के समान इस निपट नंगे भ्रष्टाचार को जारी रहने देता, तो उसकी स्वीकार्यता और वर्चस्व ही ख़तरे में पड़ जाता जो कि आम तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं होती। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर हस्तक्षेप किया।

      हालाँकि अन्य कई मसलों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीधे हस्तक्षेप न किया जाना बहुत-से सवाल खड़े करता है: मसलन, मोदी सरकार द्वारा आनन-फ़ानन में दो चुनाव आयुक्तों की चुनाव से ठीक पहले नियुक्ति, ईवीएम का मसला, इत्यादि।

सबसे पहले इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था के बारे में संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है।

    इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था चुनावी चन्दे की व्यवस्था को अपारदर्शी बना पूँजीपतियों से चन्दा वसूलने और उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा देने की व्यवस्था है.

      मोदी-शाह सरकार 2018 में इलेक्टोरल बॉण्ड की योजना लेकर आयी। इसके ज़रिये तमाम पूँजीपति यानी तमाम बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, धनी बिल्डर, व्यापारी, दलाल, आदि गोपनीय तरीके से यानी चोरी-छिपे चुनावबाज़ पार्टियों को चन्दा दे सकते हैं। इसमें ये पूँजीपति बैंक से एक बॉण्ड ख़रीदते हैं, जो एक प्रकार का क्रेडिट नोट या वायदा पत्र है। ये बॉण्ड ये पूँजीपति चुनावी चन्दे के तौर पर चुनावबाज़ पार्टियों को देते हैं, जो उन्हें बैंकों में देकर इस बॉण्ड की कीमत के बराबर धन को अपने खातों में जमा कर सकते हैं। 

     यानी, यह चुनावी चन्दा देने का एक ऐसा घुमावदार तरीका है, जिसमें कि किसने किसको कितना चन्दा दिया, यह छिपाया जा सके। भाजपा का 2018 में चुनावी बॉण्ड लाने का मक़सद ही यही था कि वह इस बात को छिपा सके कि वह किस प्रकार से देश के पूँजीपतियों से हज़ारों करोड़ रुपये चन्दे में लेती है और उसी के बूते सांसदों, विधायकों को ख़रीदने, चुनी हुई सरकारों को गिराने, नौकरशाहों को ख़रीदने आदि का पवित्र रामनामी काम करती है!

       दूसरे शब्दों में, इलेक्टोरल बॉण्ड पूँजीपतियों से चन्दा लेने और आना-कानी करने पर चन्दा ऐंठने और बदले में उन्हें हज़ारों करोड़ के ठेके देने, टैक्स माफ़ी देने का एक उपकरण है जिसका कि मोदी-शाह जोड़ी अपनी तानाशाह किस्म की सरकार को क़ायम रखने के लिए इस्तेमाल कर सकें। ऊपर से फ़ायदा इसमें यह है कि अब तक इस पूरी व्यवस्था को अपारदर्शी बनाकर भाजपा यह छिपा सकती थी कि वह किस प्रकार देश के धनी पूँजीपतियों, व्यापारियों, कुलकों-फार्मरों, दलालों, प्रॉपर्टी डीलरों, ट्राँसपोर्टरों की पार्टी है, उन्हीं के चन्दे पर इनका ‘कमल’ फूलता है और इन्हीं को मुनाफ़ाखोरी का वह मौका देती है। 

      अब यह बात खुलकर सामने आ गयी है और इसे मेहनतकश आबादी के एक–एक सदस्य तक पहुँचाकर यह दिखलाना ज़रूरी है कि ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ कहावत अगर किसी पर शब्दश: सटीक बैठती है तो यह संघियों और भाजपाइयों का फ़ासिस्ट फ़िरौती वसूली गिरोह है।

एक और बात जो यहाँ समझना ज़रूरी है वह यह कि चोरी का माल बाँटने की इस गोपनीय व्यवस्था के ज़रिये देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी और कालाबाज़ारू पूँजीपतियों ने अपने लाखों करोड़ों के काले धन को सफ़ेद धन में तब्दील किया है। नोटबन्दी के बाद काले धन को सफ़ेद धन में बदलने के लिए किया गया यह मोदी सरकार का दूसरा महाघोटाला था। मिसाल के तौर पर, एक कम्पनी का कुल शुद्ध मुनाफ़ा ही 2 करोड़ रुपये से कम था, लेकिन उसने 180 करोड़ रुपये से ज़्यादा के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे!

      यह पैसा किसका था और कहाँ से आया? इसी प्रकार कई बेनामी कम्पनियाँ खड़ी की गयीं थीं, जिनके मालिकों के बारे में पता किया गया तो पता चला कि वे अम्बानी या अडानी जैसे पूँजीपतियों के लोग थे और इन शेल कम्पनियों, यानी दिखावटी कम्पनियों के ज़रिये, न सिर्फ़़ हज़ारों करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीद रहे थे, बल्कि सीधे भी करोड़ों रुपये का चन्दा भाजपा को दे रहे थे। इसके ज़रिये इन पूँजीपतियों ने खुले भ्रष्टाचार से जमा अपने हज़ारों करोड़ रुपये के काले धन को सफ़ेद धन में तब्दील कर लिया। इसके लिए मोदी-शाह ने एकदम सड़कछाप वसूली भाइयों और चिन्दीचोर गुजराती भ्रष्टाचारी व्यापारियों की तकनीकों का मिक्सचर बनाया। 

     नतीजा आपके सामने है: हमारे देश का और शायद दुनिया का सबसे भयंकर और सबसे बड़ा घोटाला, सौजन्य: मोदी-शाह सत्ता। अब समझ में आ रहा है कि नरेन्द्र मोदी हमेशा मन्दिरों की चौखटों, हवनकुण्डों के किनारे, योगा करते या ध्यान लगाते टीवी पर क्यों पेश किये जाते हैं? ताकि आप कोई सवाल ही न पूछ पायें। इतना भारी धर्मध्वजाधारी ऐसे भयंकर कुकर्म और घोटाले कैसे कर सकता है? जवाब यह है कि वह इतना भारी धर्मध्वजाधारी बना इसीलिए फिरता है क्योंकि उसने इतने भारी–भरकम घपले और कुकर्म किये हैं।

अब आइये समझते हैं कि चुनावी बॉण्डों में किसे कितना मिला।

किसको कितना मिला?

     सबसे पहले यह समझ लेते हैं कि पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों को इलेक्टोरल बॉण्डों के ज़रिये कितना मिला। क्यों? इससे मेहनतकशों–मज़दूरों, ग़रीब व मँझोले किसानों, आम छात्रों–युवाओं, आम स्त्रियों, देश के मेहनतकश दलितों और आदिवासियों को यानी समूची आम मेहनतकश जनता को पता चलेगा कि इस समय उनके दुश्मनों यानी बड़े, मँझोले व छोटे पूँजीपतियों, धनी कुलकों–फार्मरों, ठेकेदारों, जॉबरों, उच्च नौकरशाहों, रियल एस्टेट धनाढ्यों, दलालों, बिचौलियों की, यानी समूचे पूँजीवादी शासक वर्ग की पसन्दीदा पार्टी कौन-सी है और क्यों है।

     भाजपा को कुल इलेक्टोरल बॉण्ड से आने वाले फ़ण्ड का लगभग 55 फ़ीसदी मिला। कांग्रेस को लगभग 13, तृणमूल कांग्रेस को लगभग 11, भारत राष्ट्र समिति को लगभग 10, बीजू जनता दल को लगभग 6, द्रमुक को 5, वाईएसआर कांग्रेस को लगभग 3 और तेलुगुदेशम को लगभग 2 प्रतिशत मिला है। कुल 11,450 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड में से 6,566 करोड़ भाजपा को, 1123 करोड़ रुपये कांग्रेस को, 1093 करोड़ तृणमूल कांग्रेस को, 774 करोड़ बीजू जनता दल को मिले। 

    हालाँकि अभी बॉण्ड को लेकर खुलासे जारी ही हैं और कई पत्रकारों ने इससे कहीं ज़्यादा रकम की जानकारी साझा की है।

      स्पष्ट है, भारत के पूँजीपति वर्ग की सबसे चहेती पार्टी भाजपा और सबसे चहेता नेता मोदी है। अब आप स्वयं समझ लें कि जो पूँजीपतियों का सबसे चहेता हो, वह क्या मज़दूरों–मेहनतकशों, आम मध्यवर्गीय लोगों, आम छात्रों–युवाओं के हितों के लिए कुछ कर सकता है? आपको हमको रोज़ कारखानों, खानों–खदानों, खेतों से लेकर दफ्तरों तक में खटाने वाला पूँजीपति वर्ग क्या मूर्ख है जो मोदी को हज़ारों करोड़ का चन्दा दे रहा है? 

     निश्चित तौर पर, थोड़ा-बहुत चन्दा उसने विपक्षी पार्टियों को भी दिया है, लेकिन पूँजीपति वर्ग न तो आर्थिक तौर पर अपनी पूँजी किसी एक ही धन्धे में लगाता है और न ही राजनीतिक तौर पर वह किसी एक ही घोड़े पर दाँव लगाता है। वह हमेशा दूसरे विकल्पों को भी जीवित रखने का प्रयास करता है। यह दीगर बात है कि कई बार वह ऐसा नहीं कर पाता है क्योंकि उसका जो राजनीतिक प्रतिनिधि सत्ता में पहुँचता है, फासिस्ट या किसी अन्य प्रकार का दक्षिणपन्थी तानाशाह होने की सूरत में वह कई बार उससे ज़रूरत से ज़्यादा आज़ादी लेने लगता है, अपेक्षा से ज़्यादा राजनीतिक तौर पर स्वायत्त हो जाता है।

      ऐसे में, पूँजीपति वर्ग का एक फासिस्ट हिरावल उसके लिए मुनाफ़ाखोरी के अभूतपूर्व अवसर भी पैदा करता है और साथ में उसे अपने अनुसार अनुशासित भी करता है। मौजूदा मसले में कुछ–कुछ ऐसा भी हुआ है, जैसा कि हम आगे देखेंगे।

      बहरहाल, इतना तो साफ़ है कि भाजपा देश के धन्नासेठों की पार्टी है। धन्नासेठ समाज सेवा के लिए हज़ारों करोड़ रुपये मोदी–शाह की भाजपा की झोली में नहीं डाल रहे हैं। आप आगे देखेंगे कि इन धन्नासेठों को हज़ारों करोड़ रुपये चन्दा देने के बदले में भाजपा ने लाखों करोड़ रुपये का फ़ायदा पहुँचाया है: ठेके देकर, कर से छूट देकर, इत्यादि।

किसने कितना दिया?

    अब यह भी देख लेना ज़रूरी होगा किसने कितना दिया? वे कम्पनियाँ या लोग कौन हैं? क्योंकि तभी तो हम देख पाएँगे कि इस सेवा का मेवा उन्हें मोदी सरकार ने किस प्रकार से दिया।   

     ये सभी इस देश के धनी पूँजीपतियों में से एक हैं। पहली ओडिशा की खनन क्षेत्र की पूँजीपति है। दूसरा देश ही नहीं दुनिया की बड़ी कम्पनियों में से एक आर्सेलरमित्तल का मालिक है। लक्ष्मीदास वल्लभदास अस्मिता मर्चेण्ट रिलायंस, यानी अम्बानी का आदमी है। उसका नाम जानबूझकर “मर्चा” छापा गया है, शायद इसलिए ताकि बाद में क़ानूनी तौर पर न धराए। राहुल भाटिया इण्टरग्लोब कम्पनी का प्रमोटर है। इसी प्रकार बाकी भी देश के बड़े धन्नासेठ हैं जिन्होंने मज़दूरों और ग़रीबों की मेहनत लूट-लूटकर अपनी तिजोरियाँ भरी हैं।

      मोदी और मार्टिन का रिश्ता: सबसे ज्यादा फ़ण्ड जिस कम्पनी ने दिये हैं वह है फयूचर गेमिंग एण्ड होटल सर्विसेज़ एण्ड प्रा. लि.। कौन है इसका मालिक? इसका मालिक है साण्टियागो मार्टिन जो कि बरसों पहले बर्मा से आया था और भारत में इसने ग़रीबों को आनन-फ़ानन में अमीर बनाने का सपना दिखाकर लूटने का लॉटरी का धन्धा शुरू किया, ठीक वैसे ही जैसे देश की जनता को मोदी ने “अच्छे दिन” लाने का सपना बेचा था।

      इसने सिक्किम की राज्य सरकार तक को 4500 करोड़ रुपये का चूना लगा दिया, जिसके लिए इसके ऊपर केस भी हुआ। यह मार्टिन 2014 में मोदी सरकार बनने से पहले 8 महीने के लिए जेल की यात्रा भी कर आया था। लेकिन मोदी जी के प्रधानमन्त्री बनते ही इसके “अच्छे दिन” शुरू हो गये। इसके ऊपर ईडी व आयकर विभाग के मुकदमे चल ही रहे थे, तभी इसका बेटा चार्ल्स होसे मार्टिन भाजपा में शामिल हो गया। 

      हाल ही में उसने अन्य लॉटरी पूँजीपतियों के साथ जाकर मोदी की वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण से मुलाकात की और फिर अचानक मोदी सरकार ने लॉटरी पर जीएसटी घटा दी! यानी, खाने-पीने व जीवन के अन्य ज़रूरी सामानों पर जीएसटी थोपा जा रहा है, उसे लगातार बढ़ाया जा रहा है, यहाँ तक कि चावल, नून आदि पर भी भयंकर जीएसटी मोदी सरकार ने थोप दिया है लेकिन सांटियागो मार्टिन की कम्पनी को लॉटरी पर जीएसटी में छूट मिल गयी।

       इस सड़कछाप उचक्के की पत्नी के साथ 2014 में ही हमारे रामभक्त मोदी जी कोयम्बतूर में अपनी एक चुनावी सभा के मंच पर मौजूद थे। मार्टिन ने बोला भी था कि ‘मोदी जी बहुत अच्छे आदमी हैं।’ जब सोहबत ऐसी हो, तो रामभक्ति तो करनी ही पड़ती है! यह सच है कि फ्यूचर गेमिंग ने द्रमुक को भी 509 करोड़ का चन्दा दिया, और यह भी तभी पता चला जब द्रमुक के नेता स्टालिन ने खुद ही बताया, लेकिन भाजपा वालों ने इस कम्पनी से कितना चन्दा लिया, इसके बारे में वे कोई साँस-डकार नहीं ले रहे!

       मोदी और मेघा इन्जीनियरिंग का रिश्ता : लिस्ट में दूसरी कम्पनी है मेघा इन्जीनियरिंग एण्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर्स लिमिटेड। यह कम्पनी तेलंगाना में सिंचाई के लिए बनाये जा रहे कालेश्वरम प्रोजेक्ट में करोड़ों रुपये के घोटाले में फँसी कुख्यात कम्पनी है। इसने प्रोजेक्ट की कीमत को बढ़ा-चढ़ाकर हज़ारों करोड़ (38,000 करोड़!) का चूना लगाया है। ज़ाहिर है, यह सारा पैसा भी जनता का ही है।

      इसी मेघा इन्जीनियरिंग को 2023 में मोदी सरकार ने 14,400 करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट अपनी महाराष्ट्र की फडनवीस सरकार से दिलवाया था। इसी मेघा इन्जीनियरिंग की वेस्टर्न यूपी पावर कम्पनी भी है, जिसने 200 करोड़ से ज़्यादा का चन्दा अलग से दिया। यानी मेघा ग्रुप ने एक प्रकार से करीब 1200 करोड़ का चन्दा दिया। हर जगह भाजपा राज्य सरकारों ने इसे ख़ूब फ़ायदा पहुँचाया और साथ ही केन्द्र की मोदी सरकार ने भी इस कम्पनी को पर्याप्त लाभ पहुँचाया।

     इसी कम्पनी ने करीब 100 करोड़ का चन्दा भारत राष्ट्र समिति के नेता के.सी.आर. को भी दिया। कालेश्वरम घोटाले में के.सी.आर. की राज्य सरकार की भी स्पष्टत: मिलीभगत थी। इसमें इस कम्पनी ने करीब 80 हज़ार करोड़ की परियोजना की कीमत को भ्रष्टाचारी तरीके से 1.5 लाख करोड़ रुपये का दिखाया था। इसी परम भ्रष्टाचारी कम्पनी के साथ मोदी-शाह की जोड़ी की गलबँहियाँ पूरे देश में देखी जा सकती है। इसी मेघा इन्जीनियरिंग ने महाराष्ट्र में एक नौकरशाह की शादी का पूरा ख़र्च उठाया। 

     जी नहीं, उस नौकरशाह की शादी मेघा इन्जीनियरिंग के मालिक की बेटी से नहीं हो रही थी! बस मेघा इन्जीनियरिंग के मालिक को एक दिन सुबह अचानक लगा कि उसे एक नौकरशाह की शादी अपने खर्चे पर करवानी है! प्रूडेण्ट इलेक्टोरल ट्रस्ट (जो कि कांग्रेस की केन्द्र सरकार के दौरान शुरू हुए इलेक्टोरल ट्रस्ट की व्यवस्था की पैदावार था और स्वयं एक विशालकाय घोटाला है) में भी मेघा सबसे बड़े दानदाताओं में से एक है और इसके समूचे चुनावी चन्दे का 75 प्रतिशत देश में भ्रष्टाचार नामक महायज्ञ के प्रमुख यजमान नरेन्द्र मोदी के चरणों में अर्पित हुआ है। बोलो ‘जय श्रीराम’!

       क्विक सप्लाई चेन कम्पनी की सप्लाई किधर से आयी और किधर गयी? : यह मामला सबसे दिलचस्प है। मतलब, शेल कम्पनियों के ज़रिये काले धन को कैसे सफ़ेद किया जाय, यह पिछले 10 साल में गुजरात के दो ठगों ने पूरे देश के पूँजीपतियों को इस कदर सिखाया है कि समूचा पूँजीपति वर्ग आने वाली कई पीढ़ियों तक उनका कर्ज़दार रहेगा। आइये इस क्विक नामक कम्पनी के गोरखधन्धे को समझते हैं। क्विक सप्लाई चेन कम्पनी का अब तक ज़्यादातर लोगों ने नाम भी नहीं सुना था। 

      लेकिन इसने चुनावी बॉण्ड द्वारा 410 करोड़ रुपये का चन्दा दिया! यह वास्तव में अम्बानी की एक शेल यानी फ़र्ज़ी कम्पनी है। बहुत-से मूर्ख और संघी आपको समझायेंगे कि ‘देखो, मोदी जी का विरोध करने वाले उनको अम्बानी-अडाणी का दलाल बताते थे लेकिन चुनावी बॉण्ड ख़रीदने वालों में उनका नाम नहीं दिख रहा।’ वजह यह है कि अम्बानी व अडाणी जैसे कई पूँजीपतियों ने अपनी शेल कम्पनियों के ज़रिये चुनावी बॉण्ड ख़रीदे हैं और इसके ज़रिये उन्होंने अपना काला धन भी सफ़ेद किया है। क्विक सप्लाई चेन के तीन निदेशक हैं विपुल प्राणलाल मेहता, श्रीधर टिट्टी और तापस मित्रा। ये तीनों ही अम्बानी समूह की कम्पनियों में निदेशक हैं। 

     मित्रा 26 कम्पनियों का निदेशक है जबकि मेहता 8 अन्य कम्पनियों का निदेशक है। मज़ेदार बात यह है कि क्विक सप्लाई चेन का 2019 से 2023 के बीच में शुद्ध मुनाफ़ा था 109 करोड़ रुपया, जबकि उसने इसी बीच 410 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे! यानी आमदनी दो आना और खर्चा दो रुपैय्या! कोई कम्पनी अपने मुनाफ़े से 377 प्रतिशत ज़्यादा, यानी लगभग 4 गुना ज़्यादा चुनावी चन्दा कैसे दे सकती है? साफ़ है : यहाँ काला धन सफ़ेद करने की मोदी सरकार की चुनावी बॉण्ड स्कीम का अम्बानियों ने पूरा फ़ायदा उठाया है।

ये तो बस मिसालें हैं। जो टॉप 3 दानदाता हैं, उनके साथ भाजपा के क्या रिश्ते हैं, इसे दिखाने की। लेकिन बाकी दानदाताओं के साथ भी लेन-देन के तगड़े सम्बन्ध हैं। यह बात तब और स्पष्ट हो जायेगी जब एस.बी.आई. चुनावी बॉण्ड के यूनीक कोड को ज़ाहिर करेगा। जिन कम्पनियों ने चुनावी चन्दा दिया उसमें से 30 सबसे ज़्यादा चन्दा देने वाली कम्पनियों में से आधे पर ई.डी., आयकर विभाग या सी.बी.आई. की जाँच चल रही थीं, उन पर छापे पड़ चुके थे और उनमें से कई के मालिक कुछ दिनों के लिए हवालात की हवा खाकर भी आये थे। 

     इनको और बाकी कम्पनियों में भी अधिकांश को चुनावी बॉण्ड ख़रीदने के बाद इन जाँचों से राहत मिलने लगती थी, जब फिर से हफ़्ता आने में देर होती थी, तो फिर से छापे पड़ने लगते थे, अचानक फिर से चुनावी बॉण्ड ख़रीद लिये जाते थे और जब चुनावी बॉण्ड ख़रीद लिये जाते थे तो बदले में उन्हें या तो सरकारी ठेके मिलते थे, या करों से छूट मिलती थी या उन्हें जाँचों में आरोपमुक्त कर दिया जाता था।

     हम सभी जानते हैं कि इस समय ई.डी., आयकर विभाग और सी.बी.आई. जैसी संस्थाएँ किसके इशारे पर काम कर रही हैं। ई.डी. का नाम ही कुछ लोगों ने एक्सटॉर्शन डाइरेक्टोरेट, या उगाही निदेशालय कर दिया है। ये संस्थाएँ इस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और मोदी-शाह के नियन्त्रण में और उन्हीं के इशारे पर काम कर रही हैं। तो उनका इस्तेमाल करके चन्दा वसूली कौन कर सकता है? वह कांग्रेस या अन्य विपक्षी पार्टियाँ तो कर नहीं सकतीं! हाँ, यह ज़रूर है कि प. बंगाल और तेलंगाना जैसे राज्यों में राज्य सरकारों द्वारा भी चुनावी बॉण्ड ख़रीदने वाली कम्पनियों को फ़ायदा पहुँचाये जाने का प्रमाण है और यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस और भारत राष्ट्र समिति जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ भाजपा के बाद बॉण्ड से चन्दा पाने वाली पार्टियों की सूची में काफ़ी ऊपर हैं।

   पहले आप क्रोनोलॉजी समझिए : चन्दा दो, धन्धा लो, नहीं तो फन्दा लो, उसके बाद चन्दा दो और धन्धा लो!

      अब देखते हैं कि गुजरात के फ़िरौती वसूली गिरोह ने भाजपा के चुनावी चन्दे को हज़ारों करोड़ तक पहुँचाने के लिए और कौन-सी नायाब तरक़ीबों का इस्तेमाल किया। सबसे पहले तो, गुजरात में अदालत द्वारा फ़िरौती गैंग का सरगना क़रार देकर तड़ीपार किये गये हमारे परमपूज्य रामभक्त अमित शाह जी के शब्दों में, ‘आप क्रोनोलॉजी समझिए।’ जो कम्पनियाँ शराफ़त से और पर्याप्त मात्रा में भाजपा को चन्दा नहीं दे रही थीं, उसमें आनाकानी कर रही थीं या उसमें देरी कर रही थीं, उन्हें कुछ प्रोत्साहन की ज़रूरत थी। ऐसे मामलों में प्रोत्साहन देने में अमित शाह काफ़ी तज़ुर्बेकार हो चुके हैं।

      गुजरात में मेहनत के साथ फ़िरौती उगाही में अर्जित अनुभव का ईडी, सीबीआई व आयकर विभाग जैसी एजेंसियाँ कब्ज़े में आने के बाद माननीय शाह जी ने जमकर इस्तेमाल किया और इसमें भाजपा और संघ परिवार का पूरा ‘चाल-चेहरा-चरित्र’ दिखला दिया। जिन 30 कम्पनियों ने सबसे ज़्यादा चुनावी बॉण्ड ख़रीदे, उनमें से 14 कम्पनियों पर सीधे-सीधे छापे पड़ चुके थे और कइयों पर जाँच जारी थी; कुछ को कर छूट की ज़रूरत थी, तो कुछ को आने वाले सरकारी ठेकों की।

      इनमें से पहले उन मामलों को समझते हैं, जो खुलेआम भ्रष्टाचार, टैक्स-चोरी, चार सौ बीसी में लिप्त आपराधिक कम्पनियाँ थीं, जो न सिर्फ़ मज़दूरों के बेशी श्रम की लूट करके मुनाफ़ा पीट रही थीं, बल्कि उससे भी मुनाफ़े की हवस शान्त न होने पर हेराफेरी कर जनता का धन चोरी कर रही थीं। इनमें से कुछ कम्पनियों के चन्दा देने, छापे से छूट पाने और धन्धा पाने की क्रोनोलॉजी को समझिए:

      सबसे ज़्यादा चन्दा देने वाली फयूचर गेमिंग पर 2022-23 में चार बार ईडी, आयकर विभाग आदि के छापे पड़े। हर बार छापा पड़ने के बाद कुछेक सप्ताह या एकाध महीने के भीतर इस कम्पनी ने 65 करोड़ से लेकर 105 करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे। ये छापे 2014 के बाद से ही इस कम्पनी के साथ जारी था। इलेक्टोरल बॉण्ड स्कीम आने के बाद इन कम्पनी ने इसके ज़रिये हफ्ता देना शुरू किया, उसके पहले वह अन्य माध्यमों से दे रही थी।

इसी प्रकार एक अन्य मिसाल देखें। मेघा इन्जीनियरिंग एण्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर्स प्रा. लि. पर अक्टूबर 2019 में छापा पड़ा और उसी महीने इसने 5 करोड़ के बॉण्ड ख़रीदे।

       वेदान्ता पर मार्च 2020 में छापा पड़ा और उसी साल के भीतर उसने 25 करोड़ के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे। इसके बाद अगस्त 2022 में इस पर फिर से छापा पड़ा और 3 महीने के भीतर इसने 110 करोड़ के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे।

हीरो मोटोकॉर्प पर मार्च 2020 में छापा पड़ा और 7 महीने के भीतर उसने 20 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे।

     डीएलएफ पर अप्रैल 2014 में ही छापा पड़ चुका था और तब से उस पर जाँच जारी थी, 2018 से 2019 तक उसने 25 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे थे और नवम्बर 2023 में जब उस पर फिर से छापा पड़ा तो उसी महीने उसने फिर से 21 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे।

रेड्डी लैब नामक विशाल फार्मा कम्पनी पर नवम्बर 2023 में छापा पड़ा और उसी माह उसने 21 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे।

     नवयुग इन्जीनियरिंग नामक कुख्यात कम्पनी पर अक्टूबर 2018 में छापा पड़ा और फिर 6 माह के भीतर इसने 30 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे। यह वही कम्पनी है जिसकी आपराधिक हवस के कारण 41 मज़दूर सिलक्यारा की सुरंग में फँस गये थे और मरते-मरते बचे थे। कार्रवाई से बचने के लिए इसने बाद में 25 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड और ख़रीदे। यानी कुल 55 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड।

चेन्नई ग्रीनवुड प्रा. लि. पर जुलाई 2021 में छापा पड़ा और 6 माह के भीतर इसने 40 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे।

      शिरडी साई केमिकल्स कम्पनी पर दिसम्बर 2023 में छापा पड़ा और अगले ही महीने इसने 40 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे।

      केवेण्टर्स ग्रुप ने अपने ऊपर जारी ईडी की जाँच के पूरे दौर में कुल 617 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे। एक ग्रुप के रूप में यह इलेक्टोरल बॉण्डों का तीसरा सबसे बड़ा ख़रीदार था। इसकी तीन कम्पनियों ने मिलकर बॉण्ड ख़रीदे।

     यशोदा हॉस्पिटल प्रा. लि. पर 2020 में आयकर विभाग द्वारा छापा पड़ा और अक्टूबर 2021 तक इसने 162 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे।

     ऑरोबिन्दो फार्मा के मालिक सरथ रेड्डी को ईडी ने नवम्बर 2022 में गिरफ्तार किया, उसके पाँच दिन बाद रेड्डी छूटा और उसने 5 करोड़ रुपये के बॉण्ड ख़रीदे। मई 2023 में ईडी ने खुद ही उसको रिहा कर देने की अपील कोर्ट में डाली और वह रिहा भी हो गया और उसके बाद उसने 25 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड और ख़रीदे! अप्रैल 2021 से नवम्बर 2023 के बीच इस कम्पनी ने कुल 52 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे। याद रखें कि यह कम्पनी जेनेरिक दवाइयों के बाज़ार की प्रमुख कम्पनी है।

     हेटेरो फार्मा पर 550 करोड़ रुपये के काले धन के लिए जाँच चल रही थी और इसके पास से 142 करोड़ रुपये नकद छापे में ज़ब्त किये गये और उसके कुछ ही दिन बाद इसने 60 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे।

     2020 में हल्दिया नामक कम्पनी पर भी काले धन के मसले में जाँच चल रही थी। उसके बाद ही इस कम्पनी ने भी 377 करोड़ के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे।

    केजेएस सीमेण्ट का मालिक पवन आहलूवालिया जो कोयला घोटाले में सज़ायाफ्ता है और अभी ज़मानत पर बाहर आज़ाद घूम रहा है, उसने भी 14 करोड़ के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे।

इस प्रकार की सैकड़ों कम्पनियाँ व पूँजीपति हैं जो भाजपा को चन्दा देने के महान धार्मिक काम में कुछ आनाकानी कर रहे थे, या देर कर रहे थे, या पर्याप्त चन्दा नहीं दे रहे थे, तो मोदी जी के हनुमान अमित शाह ने अपनी पूँछ से उनकी थोड़ी लंका लगायी! उसके बाद चन्दा आ गया, तो तत्काल अपने वरुण देव (वित्त मन्त्रालय व अन्य आर्थिक मसलों के विभाग) से उन पर मुनाफ़े की ठण्डी बौछारें भी कर दी। 

       मसलन, लॉटरी लॉबी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए लॉटरी किंग सांटियागो मार्टिन का बेटा निर्मला सीतारमण से मिला, और लॉटरी पर जीएसटी घटा दी गयी! भक्ति कभी बेकार नहीं जाती है, अगर जबरन करवायी गयी हो, तो भी! “जो राम को लाए हैं”, वे इसी प्रकार तो भक्ति करवाएँगे!

अब अलग से कुछ ऐसी कम्पनियों को देखते हैं, जिन पर बेशक़ छापे न पड़े हों (क्योंकि वे पहले से ही नरेन्द्र मोदी की करीबी थीं या फिर बिना धमकाये ही भाजपा को भारी-भरकम चन्दा देकर अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा वसूलने को तैयार थीं), लेकिन जिन्हें इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदते ही मोदी सरकार की ओर से तमाम प्रकार के मालामाल कर देने वाले तोहफ़े मिले।

      सुधीर मेहता के मालिकाने वाले टॉरेण्ट ग्रुप ने 185 करोड़ के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे। 2007 से 2015 के बीच मोदी के करीबी माने जाने वाले इस मेहता ने भाजपा को 33 करोड़ का चन्दा अलग से दिया था। अब फिर से क्रोनोलॉजी समझिए। भाजपा की महाराष्ट्र की फडनवीस सरकार ने टॉरेण्ट ग्रुप को 285 करोड़ रुपये के सम्पत्ति कर से पूरी छूट दे दी। फिर इस कम्पनी ने 185 करोड़ का चुनावी बॉण्ड ख़रीदा। 

      अब आप थोड़ा गणित लगाइये। देना था 285 करोड़ और 185 करोड़ का इलेक्टोरल बॉण्ड देकर छुटकारा मिल गया, तो भी तो 100 करोड़ रुपये का फ़ायदा है न! इस मेहता से गलबँहियाँ करते मोदी की कई तस्वीरें आपको इण्टरनेट पर मिल जायेंगी।

पश्चिम बंगाल सरकार ने मेट्रो डेरी नामक उपक्रम में अपना हिस्सा औने-पौने दामों पर उसी केवेण्टर्स ग्रुप को बेचा है, जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है और जिसने कुल 617 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदे। ज़ाहिर है, तृणमूल कांग्रेस भाजपा के बाद सबसे ज़्यादा चुनावी बॉण्ड पाने वाली पार्टी यूँ ही नहीं बनी है। 

     इस ग्रुप ने ज़ाहिरा तौर पर केन्द्रीय एजेंसियों यानी ईडी, आयकर, सीबीआई आदि के छापों से मुक्ति के लिए किस पार्टी को चुनावी बॉण्ड दिये होंगे, यह अन्दाज़ा आप लगा सकते हैं और एस.बी.आई. द्वारा यूनीक कोड जमा कराये जाने के बाद यह भी साफ़ हो जायेगा।

      मेघा इन्जीनियरिंग कम्पनी, जिसका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं, और जिसके ग्रुप ने कुल 1200 करोड़ रुपये का चन्दा दिया, उसे कालेश्वरम प्रोजेक्ट मिलना और फिर उसमें 82 हज़ार करोड़ की परियोजना को 1.5 लाख करोड़ का दिखाकर जनता का पैसा गड़पने का मौका दिया जाना भी चन्दा दो और मुनाफ़ा पीटो स्कीम का ही हिस्सा है। मेघा इन्जीनियरिंग ने 100 करोड़ रुपये के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे और एक महीने के भीतर उसे महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने उसे 14,400 करोड़ रुपये का ठेका दिया।

हेटेरो फार्मा नामक एक दवा कम्पनी है, जिसने 60 करोड़ रुपये के बॉण्ड ख़रीदे और यह वही कम्पनी है जिसे कोविड महामारी के दौरान रेमडेसीवीर नामक जीवन रक्षक दवा बेचकर ज़बर्दस्त मुनाफ़ाखोरी करने का मौका दिया गया।

इलेक्‍टोरल बॉण्‍ड का तंत्र ही ऐसा है कि इसमें कोई भी अपराधी, किसी और देश की कम्‍पनी या पूँजीपति भी बॉण्‍ड ख़रीदकर गोपनीय तरीके से पूँजीवादी चुनावी दलों को दे सकते हैं। अपने आपको “राष्‍ट्रवादी” कहने वाली भाजपा के पास भी अमेरिका, चीन, पाकिस्‍तान कहीं से भी कोई दान आ सकता है। इस प्रकार की गोपनीयता की व्‍यवस्‍था भाजपा के “राष्‍ट्रवाद” की भी पोल खोल देती है।

तो जैसा कि आप देख सकते हैं, यहाँ एक फासिस्ट पार्टी ने पूँजीपति वर्ग को लाखों करोड़ का फ़ायदा पहुँचाया और साथ ही उसे “रामराज्य” के कायदे के अनुसार “अनुशासित” भी किया।     

      ऐतिहासिक तौर पर यह फ़ासीवादी शासन की एक ख़ासियत रही है। यह पूँजीपति वर्ग का एक ऐसा हिरावल है, जो पूँजीपति वर्ग को आर्थिक संकट और मन्दी के दौरान अभूतपूर्व तरीके से फ़ायदा पहुँचाती है और साथ ही एक हद तक पूँजीपति वर्ग को अनुशासित भी करती है क्योंकि इसकी ख़ासियत है अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियों के मुकाबले पूँजीपति वर्ग से कहीं ज़्यादा करीबी रिश्ता भी रखना और साथ ही कहीं ज़्यादा राजनीतिक स्वायत्तता भी रखना। वजह है फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार की विशेषता है मन्दी के दौर में देश में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर और देश के टुटपुँजिया और लम्पट सर्वहारा जमातों की आर्थिक असुरक्षा का इस्तेमाल करके अपने पीछे एक अन्धा प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना और फिर इस आन्दोलन को देश के पूँजीपति वर्ग और विशेषकर बड़े पूँजीपतियों के हितों की सेवा में सन्नद्ध करना, यानी उसकी सेवा में लगाना।

       इतना स्पष्ट है : इलेक्टोरल बॉण्ड हमारे देश का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। इसके सामने 2जी, कॉमनवेल्ड, व्यापम घोटाला, सब पानी भरेंगे। वैसे पीएमकेयर नामक मोदी का घोटाला भी खुलकर सामने आ जाये, जिसमें सरकार के ज़रिये भाजपा ने पार्टी का फ़ण्ड इकट्ठा किया, तो शायद इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले से उसका कुछ मुकाबला हो पाये। इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था अपारदर्शी तरीके से चुनावी चन्दे उगाहने और उसके बदले पूँजीपतियों को लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पीटने के लिए ठेके देने, टैक्स माफ़ करने, टैक्स से छूट देने, भ्रष्टाचार सम्बन्धी जाँच को रोकने, गिरफ्तार भ्रष्टाचारी मालिकों को रिहा करने का एक तरीका है, एक प्रकार का फिरौती वसूलना, हफ्ता वसूलना का तन्त्र है। अमित शाह को ठीक उगाही रैकेट चलाने के लिए ही तो गुजरात की एक अदालत ने तड़ीपार किया था और जब ई.डी., सी.बी.आई. और आयकर विभाग जैसी केन्द्रीय एजेंसियाँ ऐसे आपराधिक प्रवृत्ति के फ़ासीवादियों के हाथ में आ जाये तो क्या होता है, वह इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले से साफ़ है।

      पूँजीपतियों से हज़ारों करोड़ के चन्दे लो और उन्हें लाखों करोड़ का फ़ायदा पहुँचाओ, भ्रष्टाचार करने का अवसर दो, उन्हें जाँच से छुटकारा दो, सरकारी ठेके दो, करों से छूट दो।

      भाजपा को इसी व्यवस्था के ज़रिये जो हज़ारों करोड़ हासिल हुए हैं, उसी से तो भाजपा चुनावों में पैसे बाँटती है, तमाम राज्यों की चुनी हुई सरकारों को गिराती है, विपक्षी पार्टी के सांसदों और विधायकों को ख़रीदती है। इसके अलावा, इलेक्टोरल ट्रस्ट की व्यवस्था के ज़रिये भी ज़बर्दस्त घोटाला चलता रहा है। कांग्रेस सरकार ने इलेक्टोरल ट्रस्ट की व्यवस्था लायी थी, लेकिन उसका असली फ़ायदा गुजरात के वसूली भाई ने उठाया है। इलेक्टोरल ट्रस्टों में से एक है प्रूडेण्ट ट्रस्ट। इसमें देश के टॉप 10-12 पूँजीपतियों ने ज़बर्दस्त पैसा लगाया ताकि 2014 और 2019 के चुनावों में मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के लिए अरबों रुपये ख़र्च किये जा सकें। 2013 से इस प्रूडेण्ट ट्रस्ट को 22.54 अरब रुपये मिले हैं और इसमें दान देने वालों में इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदने वाली फ्यूचर गेमिंग और मेघा इन्जीनियरिंग भी प्रमुख हैं। इसके अलावा, इसमें आर्सेलरमित्तल, भारती टेलीकॉम (एयरटेल वाला), सीरम इन्स्टीट्यूट (जिसे मोदी सरकार ने कोविड वैक्सीन बनाने का ठेका देकर ख़रबों रुपये का फ़ायदा पहुँचाया), जीएमआर ग्रुप, हल्दिया ग्रुप आदि शामिल हैं.

       ध्यान दीजिये: इस इलेक्टोरल ट्रस्ट के 22.54 अरब रुपये का 75 प्रतिशत भाजपा को दिया गया है!

इन सबसे साफ़ है कि भाजपा इस समय देश के पूँजीपति वर्ग की चहेती पार्टी है जो उसके लिए मुनाफ़ा कमाने, भ्रष्टाचार करने, काला धन कमाने, क़ानूनों को ताक पर रखकर मेहनत और कुदरत की लूट को अंजाम देने, सार्वजनिक सम्पत्ति की लूट को अंजाम देने की व्यवस्था कर रही है, मेहनतकश वर्गों पर तानाशाहाना तरीके से धक्कड़शाही चलाने का काम कर रही है। आमदनी दो आना, खर्चा दो रुपय्या!

कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती। इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदने वाली कम्पनियों में ऐसी कम्पनियाँ हैं, जिन्होंने अपने मुनाफ़े से कई गुना ज़्यादा चन्दा इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये चुनावी पार्टियों को दिया है। रामभक्त मोदी के “रामराज्य” का एक “एकात्म मानवतावाद” यह भी था कि जिस कम्पनी का शुद्ध मुनाफ़ा 2 करोड़ रुपया भी नहीं था, उसने 200 करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉण्ड ख़रीदे! 

      माने कि इतनी दरियादिली कि उसमें डूबकर आप थोड़ी देर में “बचाओ, बचाओ” चिल्ला सकते हो! लेकिन असल में यहाँ हो क्या रहा है? कोई कम्पनी अपने मुनाफ़े से ज़्यादा चुनावी चन्दा कैसे दे सकती है? यह सैंकड़ों करोड़ रुपये उसके पास कहाँ से आ रहे हैं? उसकी ख़ुद की तिजोरी में तो नहीं हैं! फिर वह पैसा किसका है? सबसे पहले सबसे दरियादिल दानदाताओं को देखते हैं।

      ये तो सिर्फ़ कुछ उदाहरण हैं। इन मदनलाल भाई की कम्पनी को देखिये। इसका मुनाफ़ा है 10 करोड़ रुपया 2019 से 2023 तक। लेकिन इन्होंने अपने मुनाफ़े का लगभग 19 गुना ज़्यादा चुनावी चन्दा इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये दिया है! इतना तो छोड़ दीजिये कोई कम्पनी अपने मुनाफ़े का 10 प्रतिशत भी चन्दे में नहीं दे सकती है। वास्तव में, कांग्रेस सरकार के दौर में एक नियम था कि कोई कम्पनी जो 3 साल तक लगातार मुनाफ़ा दिखायेगी, वही चुनावी चन्दा दे सकती है और वह भी अपने मुनाफ़े के 7.5 प्रतिशत से ज़्यादा चन्दा नहीं दे सकती है। मोदी जी ने अलौकिक “रामराज्य” लाया और जिस कम्पनी का कल तक कोई अता-पता ही नहीं था, यानी क्विक सप्लाई, उसने अपने मुनाफ़े से 377 प्रतिशत ज़्यादा 410 करोड़ रुपये का चन्दा इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये दे दिया! 

      तमाम कम्पनियाँ जो मज़दूरों को वक्त पर मज़दूरी नहीं दे रहीं, उनको जबरन ओवरटाइम करा रही हैं, कोई सुरक्षा उपकरण माँगने पर मन्दी का रोना रोती हैं, वे हज़ारों करोड़ रुपयों के, अपने मुनाफ़े से भी कई गुना ज़्यादा चुनावी चन्दा दे रही हैं? क्या यह सम्भव है? ऐसा कैसे हो रहा है? यह किसका पैसा है? हम देख चुके हैं कि क्विक सप्लाई कम्पनी वास्तव में अम्बानियों की है। उसी प्रकार, इस तरह की शेल कम्पनियों का इस्तेमाल करके तमाम पूँजीपतियों ने अपने लाखों करोड़ का काला धन जो मज़दूरों के खून से निचोड़कर हड़पा था, उसे सफ़ेद कर दिया।

      साफ़ है कि ये पैसा इन कम्पनियों के पास था ही नहीं, इसलिए वे उसे चन्दे में दे ही नहीं सकतीं थीं। मतलब यह किसी और का पैसा है, जो इन शेल कम्पनियों के माध्यम से काले धन से सफेद धन में तब्दील किया जा रहा है और बदले में इसका कमीशन उस पार्टी को दिया जा रहा है, जिसके हाथ में ई.डी., सी.बी.आई. और आयकर विभाग हैं। आप जानते हैं कि वह पार्टी कौन है!

       “रामराज्य” में सारी बातें नाम लेकर नहीं बतायी जाती हैं, थोड़ी अपनी अक्ल भी लगानी पड़ती है! भाजपा का यह दावा था कि इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था के ज़रिये चुनावों में काले धन की व्यवस्था पर रोक लगेगी। समझदार लोग तो तभी समझ गये थे कि भाजपा के इस दावे का अर्थ यह है कि चुनावों की व्यवस्था में काले धन का अभूतपूर्व बोलबाला इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था के साथ होने वाला है। क्योंकि भाजपा जैसी झूठी और बेईमान कोई पार्टी अभी तक अस्तित्व में नहीं आयी है। 

      हर फ़ासीवादी राजनीति की बुनियाद में पर्याप्त मात्रा में झूठ का गारा होता है, लेकिन भारत की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघी और भाजपाई राजनीति तो सिर से पैर तक झूठ में ही सराबोर है। ऐसे ही झूठ की एक चमकती मिसाल पर बात करते हैं।

मोटा भाई का मोटा झूठ :

      जब इलेक्टोरल बॉण्डों के महाघपले पर हर जगह भाजपा की फ़ज़ीहत होने लगी तो भाजपा के अमित शाह ने इण्डिया टुडे के मंच से जाकर झूठों की लड़ी लगा दी ताकि कुछ इज्जत बचायी जा सके। ये मोटा भाई की एक ख़ासियत है: झूठ बोलते वक़्त मोटा भाई एकदम आक्रामक और अति-आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हैं। इससे लोग झूठ को सच समझने लगते हैं कि मोटा भाई ने इतने मोटे तरीके से बोला है तो बात में मोटाई होगी! 

      शाह ने गोदी मीडिया के अपने एक दलाल राहुल कंवल के सामने इलेक्टोरल बॉण्ड पर कहा कि वह आज भी मानते हैं कि चुनावी बॉण्ड की व्यवस्था काले धन को ख़त्म करने के लिए है और 20,000 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड में भाजपा को तो केवल 6000 करोड़ रुपये के ही बॉण्ड मिले, बाकी 14,000 करोड़ तो विपक्षी पार्टियों को मिले; भाजपा के 303 सांसद हैं और बाकी विपक्षी पार्टियों के 242 सांसद हैं; भाजपा के 11 करोड़ सदस्य हैं (यह दीगर है कि बहुतों को पता ही नहीं है कि वे भाजपा के सदस्य हैं क्योंकि भाजपा वाले लोगों को मिस्ड कॉल देते थे और जो पलटकर मिस्ड कॉल दे देता था, वह भाजपा का सदस्य हो जाता था; बहुत-से लोगों को पता ही नहीं है कि अपनी एक मासूम सी हरक़त की वजह से वह दुनिया की सबसे झूठी और आपराधिक पार्टी के सदस्य बना दिये गये!) तो फिर चन्दा भी भाजपा को ज़्यादा मिलेगा! आइये, इस झूठ के पुलिन्दे के एक-एक दावे की पड़ता करते हैं।

       मोटा भाई का दावा :

   20,000 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड में से 6000 करोड़ रुपये भाजपा को मिले और बाकी 14,000 विपक्षी पार्टियों को।

     सच्चाई :

 एस.बी.आई. ने अभी 12,156 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉण्ड की सूचना ही सार्वजनिक की है और इसमें से करीब आधा, यानी 6061 करोड़ रुपये भाजपा को मिले हैं। मोटा भाई सफ़ेद झूठ बोल रहे हैं। भाजपा के ज्ञात चन्दे की तुलना कुल दिये गये ज्ञात चन्दों से ही की जा सकती है, किसी काल्पनिक संख्या से नहीं। जब हम ऐसा करते हैं, तो साफ़ हो जाता है कि लगभग दो दर्जन दलों के जितना चन्दा अकेले भाजपा को मिला है।

    मोटा भाई का दावा :

   मोटा भाई दावा करता है कि भाजपा को मिले कुल चन्दे को उसके सांसदों की संख्या से भाग देकर देखना चाहिए कि उसे प्रति सांसद कितना मिला और बाकियों को कितना मिला।

   सच्चाई :

   यह तो एकदम ही मूर्खतापूर्ण तर्क है। कोई भी चन्दा देने वाला पहले से नहीं जानता कि किस पार्टी के कितने उम्मीदवार जीतकर सांसद बनेंगे। 2019 के चुनावों में कांग्रेस और भाजपा ने लगभग बराबर उम्मीदवार खड़े किये; कांग्रेस ने 423 उम्मीदवार खड़े किये जबकि भाजपा ने 437। लेकिन भाजपा को चन्दा मिला 1600 करोड़ रुपये (ज्ञात, अज्ञात का तो अब पता चल रहा है!) जबकि कांग्रेस को मिले 388 करोड़ रुपये। यानी भाजपा के हर उम्मीदवार को औसतन 4 करोड़ रुपये मिले जबकि कांग्रेस के हर उम्मीदवार को औसतन 90 लाख रुपये मिले। वास्तव में, किसके कितने उम्मीदवार जीते यह इस बात से तय होता है कि किसे कितना चन्दा मिला, न कि इसके उल्टा! लेकिन अमित शाह जैसे व्यक्ति से तथ्य और तर्क की उम्मीद करना बेकार है। 

     सच्चाई यह है कि अगर चन्दा देने की व्यवस्था का आधार या नियम यह हो कि जिस पार्टी के जितने सांसद या विधायक हैं, उनको कम्पनियों को उतना ज़्यादा चन्दा देना होगा, तब तो हमेशा उसी पार्टी के सबसे ज़्यादा सांसद या विधायक होंगे और बराबरी के मुकाबले का अवसर बाकी पार्टियों को समाप्त हो जायेगा! लेकिन देश की शासनकारी पार्टी का प्रमुख नेता एक प्रमुख मीडिया घराने के मंच से खुलेआम ऐसी अश्लील बकवास करता है, लेकिन गोदी मीडिया का एँकर सवाल पूछने के बजाय पतलून गीली कर देता है।

वैसे भी अमित शाह से मुश्किल सवाल पूछकर इण्डिया टुडे के जन्म से ही डरे हुए एँकर राहुल कंवल को अपना लोया थोड़े ही करवाना है! मोदी-शाह के “रामराज्य” में असुविधाजनक सवाल पूछने वालों को वैविध्यपूर्ण और दिलचस्प तरीके से दैहिक और दैविक ताप से मुक्ति दे देने की योजना सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय और गृहमन्त्री कार्यालय से कल्याणकारी तरीके से चलायी जा रही है। और ऐसे लोगों के परिवारजन दैहिक-दैविक ताप से मुक्ति पाये अपने परिवार-सदस्य का श्राद्ध करते समय अभूतपूर्व रूप से पावन और पवित्र अनुभव करें, इसके लिए मोदी जी ने राम मन्दिर भी बनवा ही दिया है!

     बहरहाल, इसी प्रकार का सफेद झूठ संघ परिवार और भाजपा का ‘झूठ फैलाओ, झूठ दोहराओ’ तन्त्र पूरे देश में व्हाट्सएप के ज़रिये फैला रहा है। मज़दूरों, मेहनतकशों, आम घरों से आने वाले छात्रों-युवाओं, स्त्रियों व मेहनतकश दलितों, आदिवासियों व मुसलमानों को यह गाँठ बाँध लेनी चाहिए: ‘हाफपैण्टियों के व्हाट्सएप ग्रुपों और व्यक्तियों से जो सन्देश आते हैं, उसमें जो लिखा हो उसके उलटे को सच मानिये!’ आम जनता में जिन लोगों ने यह नियम लागू किया है, उन्हें इससे काफ़ी फ़ायदा पहुँचा है। 

      अफ़वाहों के संक्रामक रोग, साम्प्रदायिकता के कोढ़, फ़िरकापरस्ती की खाज से वे बचे हुए हैं और इसलिए पहचान पा रहे हैं कि उनके असली हित क्या हैं, उनके दुश्मन कौन हैं, दोस्त कौन हैं। बेहतर हो कि आप सब भी इस नियम को जान लीजिये, पहचान लीजिये।

निष्कर्ष :

   एक बात अब हमें समझ लेनी चाहिए, वरना आने वाले समय में अपनी बरबादी के लिए हम ही ज़िम्मेदार होंगे। इतिहास से सीखना चाहिए। इटली और जर्मनी में भी फासीवादी पार्टी व नात्सी पार्टी द्वारा फैलाये गये फिरकापरस्त जुनून में पगलाये तमाम निम्न मध्यवर्गीय, मध्यवर्गीय, संगठित मज़दूर वर्ग और लम्पट मज़दूर वर्ग के लोगों को अपनी बरबादी और देश की बरबादी के बाद समझ में आया था कि उनको सालों से बेवकूफ़ बनाया जा रहा था। जब फ़ासीवादी “राष्ट्र” का नाम लेते थे, तो उनका अर्थ होता था पूँजीपति वर्ग; इस “राष्ट्रवाद” के उन्माद में पागल टुटपुँजिया वर्गों ने अपनी ही कब्र खोदने का काम किया और बरबाद हुए। 

     आप जर्मनी और इटली का इतिहास पढ़ लें, आपको पता चल जायेगा। इन दोनों ही देशों में फ़ासीवादियों के झूठ-फ़रेब पर तमाम टुटपुँजिया वर्ग के लोग क्यों यक़ीन कर बैठे? क्योंकि वे आर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता से तंग थे, प्रतिक्रिया और गुस्से में थे, उनके पास अपने हालात ऐसे होने के कारणों की कोई समझ नहीं थी और फासीवादियों ने देश के मीडिया आदि पर नियन्त्रण कर उन्हें यक़ीन दिलवा दिया कि यहूदी व अल्पसंख्यक उनके दुश्मन हैं!

      उनकी अन्धी प्रतिक्रिया इन अल्पसंख्यकों पर टूट पड़ी, लेकिन साथ ही मज़दूरों और मेहनतकशों पर भी टूट पड़ी क्योंकि जर्मनी ने हिटलर और इटली में मुसोलिनी ने इस टुटपुँजिया वर्ग को यक़ीन दिला दिया कि अगर मज़दूर अपना हक़ माँगता है, तो वह राष्ट्रविरोधी है। यही आज हमारे देश में मोदी-शाह कर रहे हैं। लेकिन अन्त में जर्मनी और इटली का हश्र क्या हुआ? मेहनतकश जनता ने वहाँ फ़ासीवादी सत्ता को ज़मींदोज़ कर दिया और टुटपुँजिया वर्गों की बड़ी आबादी आर्थिक व सामाजिक रूप से युद्ध और विनाश के कारण तबाह हो गयी। हमारे देश की जनता को इतिहास के इस उदाहरण से सबक लेना चाहिए।

      हमारे देश में भी मोदी-शाह और समूचा संघ परिवार और भाजपा अपने भयंकर भ्रष्टाचार और कुकर्मों को धर्म की आड़ में छिपाते हैं। वे समूची हिन्दू आबादी के अकेले प्रवक्ता बनने का दावा करते हैं। एक ऐसा माहौल निर्मित किया जाता है, जिसमें भाजपा और संघ परिवार की आलोचना या उस पर होने वाले हर हमले को हिन्दू धर्म, हिन्दू धर्म मानने वाली जनता और “राष्ट्र” पर हमला क़रार दे दिया जाता है। उनके तमाम कुकर्म, व्यभिचार, दुराचार और भ्रष्टाचार के ऊपर एक रामनामी दुपट्टा डाल दिया जाता है। कभी मोदी को मन्दिरों में पूजा-अर्चना करते, कभी योग करते, कभी ध्यान लगाते दिखलाया जाता है और समूचा गोदी मीडिया इस छवि को निरन्तर प्रचारित-प्रसारित करता है।

       इसका मक़सद यह होता है कि जब भी आपके मन में उनके प्रति कोई सवाल आये, तो इस धार्मिक छवि के आभामण्डल में वह ओझल हो जाये, आप इस झूठी छवि के घटाटोप में अपना सवाल ही भूल जाते हैं। यह एक पूरा षड्यंत्र है जिसमें देश का पूँजीपति वर्ग और उसके द्वारा संचालित मीडिया हमारे देश के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों का साथ देता है। साथ ही, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले कई दशकों में राज्यसत्ता के हर निकाय, उसकी हर संस्था में जो घुसपैठ की है और जिस तरह से अपने लोगों को बिठाया है, वह भी फ़ासीवादियों के नापाक मंसूबों को अमल में लाने में उनकी मदद करता है। 

     चाहे आप नौकरशाही की बात करें, न्यायपालिका की बात करें, पुलिस व सेना की बात करें, हर जगह इन्होंने अपने प्यादे बिठा रखे हैं। क्या कारण है कि ईवीएम घपले के स्पष्ट उदाहरणों के बावजूद चुनाव आयोग और यहाँ तक कि देश का सुप्रीम कोर्ट तक कोई कार्रवाई नहीं करता? ईवीएम पर याचिकाओं की सुनवाई से चीफ जस्टिस चन्द्रचूड़ अपने आपको अलग क्यों कर लेते हैं? क्या ये सीधे सन्देह पैदा करने वाले मसले नहीं हैं?

      इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला और ईवीएम घोटाला इस समय भाजपा को फिर से सत्ता में पहुँचाने के लिए मोदी-शाह व संघ परिवार द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे दो प्रमुख उपकरण हैं। जनता को इस बात को समझना चाहिए और हर मंच पर भाजपा का बहिष्कार कर, अपने प्रतिरोध को दर्ज़ कराना चाहिए। इसके अलावा, आम जनता को बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के मसले पर एकजुट होकर जुझारू जनान्दोलन खड़े करने चाहिए जो कि मौजूदा सत्ता तन्त्र की चूलें हिला दे।

     आप यह भी जान लीजिये कि इलेकटोरल बॉण्ड और इलेक्टोरल ट्रस्ट का घोटाला तो अरबों रुपये भाजपा और गौण रूप में कुछ अन्य चुनावबाज़ पार्टियों को पहुँचा ही रहा है, लेकिन ये व्यवस्था ख़तम भी हो जायें तो पूँजीवादी व्यवस्था में होने वाले चुनावों में पूँजीपति वर्ग के धनबल की भूमिका समाप्त नहीं हो जायेगी। किसी और तरीक़े से पूँजीपति वर्ग अपने हितों की सेवा करने वाली पूँजीवादी पार्टियों में से किसी एक को सत्ता में पहुँचाने की हरसम्भव कोशिश करेगा। मौजूदा व्यवस्था में मेहनतकश आबादी के लिए जनवाद मूलत: और मुख्यत: औपचारिक होता है; निश्चय ही, इस आधार पर हम उन औपचारिक जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष का परित्याग नहीं कर देते हैं और उनको बचाने के लिए भी पुरज़ोर लड़ाई लड़ते हैं।

     लेकिन मौजूदा व्यवस्था में जनवाद पूँजीवादी जनवाद होता है और जैसे-जैसे आप समाज के वर्गों की सीढ़ी में नीचे उतरते जाते हैं वैसे-वैसे जनवाद अधिक से अधिक कागज़ी और दिखावटी होता जाता है। सही मायनों में समूची मेहनतकश जनता के लिए जनवाद एक समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है जिसमें उत्पादन, राजकाज और समूचे समाज के ढाँचे पर मेहनतकश वर्गों का नियन्त्रण हो और फैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में हो। हमारा दूरगामी लक्ष्य एक मज़दूर इंक़लाब के ज़रिये ऐसी सत्ता की स्थापना करना है। लेकिन तात्कालिक तौर पर आज हमें हरेक जनवादी अधिकार के लिए भी लड़ना है चाहे वह श्रम अधिकार हों या अन्य जनवादी व नागरिक अधिकार।

    इसीलिए मौजूदा फ़ासीवादी दौर में यह लड़ाई और भी अहम हो जाती है क्योंकि पूँजीपति वर्ग का कोई भी शासन इतने नग्न, भ्रष्ट और सीनाजोर तरीके से आम मेहनतकश आबादी का हक़ नहीं छीनता है, जितना और जिस तरीके से फ़ासीवादी पूँजीवादी शासन छीनता है। हमें एक बात अपने दिमाग़ में बिठा लेनी चाहिए: फ़ासीवाद, यानी हमारे देश में संघ परिवार और भाजपा, आम मेहनतकश जनता के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इनका मुकाबला कोई भी अन्य पूँजीवादी पार्टी निर्णायक रूप में नहीं कर सकती है। कोई एक चुनाव हारना और सत्ता से बाहर हो जाना फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं है। वैसे भी इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की ख़ासियत ही यही है कि यह कोई खुली तानाशाही आपवादिक स्थितियों को छोड़कर नहीं लाने वाला है। 

     यह पूँजीवादी जनवाद का खोल बरक़रार रखेगा, यह चुनाव हारकर अस्थायी रूप से सत्ता से औपचारिक तौर पर बाहर जा सकता है, लेकिन समाज और राजनीति और साथ ही राज्यसत्ता के ढाँचे पर इसकी पकड़ बनी रहेगी और यह हर बार और भी ज़्यादा आक्रामक तरीके से सत्ता में पहुँचेगा। दीर्घकालिक संकट के पूरे दौर पर यह बात लागू होती है, जिससे आज पूँजीवादी दुनिया गुज़र रही है। यही कारण है कि दुनिया के कई देशों में धुर दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी सत्ताएँ स्थापित हुई हैं और हो रही हैं। यह संकट ही वह ज़मीन तैयार करता है, जिस पर फ़ासीवाद का ज़हरीला कुकुरमुत्ता उगता है।

       इसी ज़मीन पर खड़े होकर फ़ासीवादी शक्तियाँ आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा झेल रही टुटपुँजिया आबादी और मेहनतकश आबादी के भी एक हिस्से की प्रतिक्रिया को संगठित करता है, उसे किसी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में एक नकली दुश्मन देता है, ताकि पूँजीवाद को कठघरे से बाहर किया जा सके और जनता को ही आपस में लड़वाकर पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा और हिफ़ाज़त की जा सके।

      इसलिए आने वाले चुनावों में तो मेहनतकश वर्ग को फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा को, यानी अपने सबसे बड़े राजनीतिक दुश्मन को सबक सिखाना ही चाहिए, लेकिन अगर वह ऐसा कर भी लेता है तो वह फ़ासीवादी शक्तियों की निर्णायक हार नहीं होगी। उनकी निर्णायक हार आज के दौर में एक मज़दूर इंक़लाब और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के साथ ही सम्भव है।

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