~ सुधा सिंह
एक पुरानी घटना और मुझे याद आती है। प्रेस खुल गया था और आप स्वयं वहांकाम करते थे। जाड़े के दिन थे।मुझे उनके सूती पुराने कपड़े भद्दे जंचे और गर्म कपड़े बनाने के लिए अनुरोधपूर्वक दो बार 40 -40 रुपए दिए परंतु उन्होंने दोनों बार वे रुपए मजदूरों को दे दिए।घर पर जब मैंने पूछा: ‘ कपड़े कहां हैं?’ तब आप हंसकर बोले:’ कैसे कपड़े? वे रुपए तो मैंने मजदूरों को दे दिए। शायद उन लोगों ने कपड़ा खरीद दिया होगा।’
इस पर मैं नाराज हो गई पर वह अपने सहज स्वर में बोले:’ रानी, जो दिन भर तुम्हारे प्रेस में मेहनत करें, वे भूखों मरें और मैं गर्म सूट पहनूं, यह तो शोभा नहीं देता। ‘ उनकी इस दलील पर मैं खीझ उठी और बोली, ‘ मैंने कोई तुम्हारे प्रेस का ठेका नहीं लिया है ! ‘ तब आप खिलखिला कर हंस पड़े और बोले:’ जब तुमने मेरा ठेका ले लिया है, तब मेरा रहा क्या, सब तुम्हारा ही तो है। फिर हम -तुम दोनों एक नाव के यात्री हैं। हमारा- तुम्हारा कर्तव्य जुदा नहीं हो सकता, जो मेरा है वह तुम्हारा भी है क्योंकि मैंने अपने आपको तुम्हारे हाथों में सौंप दिया है। ‘मैं निरुत्तर हो गई और बोली:
‘ मैं तो ऐसा सोचना नहीं चाहती ‘ तब उन्होंने असीम प्यार के साथ कहा: ‘ तुम पगली हो’।
जब मैंने देखा कि इस तरह वे जाड़े के कपड़े नहीं बनवाते हैं तब मैंने उनके भाई साहब को रुपए दिए और कहा कि उनके लिए आप कपड़े बनवा दें, तब बड़ी मुश्किल से अपने कपड़ा खरीदा। जब सूट बनकर आया, तब आप पहन कर मेरे पास आए और बोले: ‘ मैं सलाम करता हूं। मैं तुम्हारा हुक्म बजा लाया हूं ।’ मैंने भी हंसकर आशीर्वाद दिया और बोली:’ ईश्वर तुम्हें सुखी रखें और हर साल नए-नए कपड़े पहनो।’ कुछ रुक कर फिर मैंने कहा: ‘ सलाम तो बड़ों को किया जाता है। मैं न तो उम्र में बड़ी हूं ,न रिश्ते में, न पदवी में। फिर आप मुझे सलाम क्यों करते हैं?’ तब उन्होंने उत्तर दिया: ‘ उम्र या रिश्ता या पदवी कोई चीज नहीं है। मैं तो हृदय देखता हूं और तुम्हारा हृदय मां का हृदय है। जिस प्रकार माता, अपने बच्चों को खिला-खिला कर खुश होती है, उसी प्रकार तुम भी मुझे देखकर प्रसन्न होती हो और इसीलिए अब मैं हमेशा तुम्हें सलाम किया करूंगा।’
हाय, मई, 1936 में उन्होंने स्नान करके नई बनियान पहनी थी और मुझे सलाम किया था- यही उनका अंतिम सलाम था।
(स्रोत : ‘प्रेमचंद घर में’ विष्णु नागर)